अफगान-संकट का हल क्या?

afghanistanडा. वेद प्रताप वैदिक

काबुल में सुरक्षा मुख्यालय पर हुआ तालिबानी हमला पिछले सालों में हुआ सबसे बड़ा हमला है। इसमें दर्जनों लोग मारे गए हैं और सैकड़ों लोग घायल हुए हैं। ऐसा ही हमला काबुल में 2011 में हुआ था। लोग उम्मीद करते थे कि अशरफ गनी और अब्दुल्ला की सरकार बनने पर तालिबान से बातचीत चलेगी और हिंसा रुकेगी। शुरु-शुरु में वैसा माहौल बनता हुआ दिखा लेकिन पिछले साल तालिबान ने कुंदुज शहर पर कब्जा कर लिया और जलालाबाद में आईएसआईएस के लड़ाके छा गए।

यह सब तब हुआ जबकि राष्ट्रपति अशरफ गनी पाकिस्तान और तालिबान, दोनों के प्रति नरमी बरत रहे थे। गनी खुद पाकिस्तान गए और वहां के असली शासक फौजी जनरलों से भी मिले। उन्हें यह खुशफहमी थी कि यदि पाकिस्तान को पटा लिया तो तालिबान को पटाना तो बाएं हाथ का खेल है लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी। तालिबान ने पाक-अफगान संवाद में भाग लेने से मना कर दिया और अब अपने दिवंगत नेता मुल्ला उमर के नाम से जारी ‘उमरी’ अभियान के तहत यह हमला बोल दिया। तालिबान ने यह सिद्ध कर दिया कि वे अपने मालिक खुद हैं। वे पाकिस्तान से सक्रिय मदद ले सकते हैं लेकिन वे उसके इशारों पर नाचने वाले नहीं हैं।

अब मुल्ला उमर के निधन के बाद तालिबानी राजनीति में फूट पड़ी है। हालांकि मुल्ला अख्तर मंसूर ने अपने आपको सर्वेसर्वा घोषित कर दिया है, फिर भी कुछ लोग टूटकर आईएसआईएस (इस्लामी राज्य) से जा मिले हैं और कुछ ने अपना अलग अलग संगठन खड़ा कर लिया है। मुल्ला मंसूर के लिए यह जरुरी हो गया है कि वे अपना जौहर दिखाएं। इसीलिए इस तरह के हमले अब आए दिन होते रहेंगे।

जाहिर है कि अफगान फौज और पुलिस इन्हें रोक नहीं सकती। जब नाटो सेनाएं पूरी ताकत से उपस्थित थीं, तब भी ऐसे हमले होते रहते थे। अब उसकी नाम मात्र की उपस्थिति तालिबान का हौसला बढ़ाएगी। पाकिस्तान को क्या पड़ी है कि अफगानों की रक्षा के लिए वह अपने जवानों की बलि चढ़ाए। अशरफ गनी की सरकार पर जब तक यह ठप्पा लगा रहेगा कि यह विदेशियों के कंधे पर टिकी हुई सरकार है, उसके साथ तालिबान वही व्यवहार करेंगे, जो अफगान जनता ने लगभग 200 साल पहले शाह शुजा से किया था फिर तरक्कई, हफीजुल्लाह अमीन, बबरक कारमल, नजीबुल्लाह, रब्बानी और हामिद करजई के साथ किया है।

अफगानिस्तान का संकट उसके इस्लामी होने या न होने का उतना नहीं है जितना कि उसकी सरकारों के राष्ट्रवादी दिखने और न दिखने का है। काबुल में एक राष्ट्रवादी और लोकप्रिय सरकार कैसे कायम की जाए, यही अफगान-संकट का एकमात्र हल है।

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