राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी प्रतिनिधि सभा में पहले तो शिक्षा और चिकित्सा का मामला उठाया और अब उसने सामाजिक क्रांति का शंखनाद कर दिया है। जो बात संघ ने कही है, उसको कहने की हिम्मत आज देश में किसी की नहीं है। सभी नेताओं और पार्टियों की बोलती बंद है। कोई भी बिल्ली के गले में घंटी बांधने की हिम्मत नहीं करता। संघ ने आरक्षण पर पुनर्विचार करने की बात कही है। उसका आग्रह है कि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों में जो मालदार और समर्थ हैं, उन्हें अपने आप ही आरक्षण छोड़ देना चाहिए। इन्हीं लोगों को सर्वोच्च न्यायालय ने ‘मलाईदार परत’ कहा है।
क्या संघ के कहने से ये अपना कब्जा छोड़ देंगे? ये ही वे मुट्ठीभर लोग हैं, जो अपनी ही जातियों के गरीबों और वंचितों के गले पर छुरा चलाते हैं। वे अपने विशेषाधिकारों का फायदा अपने बेटों, पोतों और पड़पोतों तक लगातार पहुंचाना चाहते हैं। जिन्हें अब तक नौकरियां नहीं मिली हैं, उन परिवारों के नौजवान बेकारी में सड़ते हैं तो सड़ते रहें। उनके लिए ये लोग जगह खाली करने के लिए तैयार नहीं हैं। यदि संघ के आह्वान पर कुछ दलित, आदिवासी और पिछड़े स्वयंसेवक स्वयं ही आरक्षण का त्याग कर दें तो चमत्कार हो जाएगा। इन राष्ट्रभक्त स्वयंसेवकों का अनुकरण शायद अन्य समर्थ आरक्षित लोग भी करने लगें। यदि ऐसा हो जाए तो नौकरियां का यह आरक्षण अपने आप में जितना बुरा है, उतना बुरा नहीं रह जाएगा। मैं तो चाहता हूं कि नौकरियों में जातीय आधार पर कोई भी आरक्षण नहीं होना चाहिए।
जब तक जातीय आरक्षण रहेगा, देश में जातिवाद कुलाचें भरता रहेगा। जातीय आरक्षण जातिवाद के जहर को जिंदा रखने का सबसे तगड़ा उपाय है। संघ ने जातिवाद और छुआछूत को खत्म करने का भी शंखनाद किया है। किसी भी राजनीतिक दल में ऐसी हिम्मत नहीं है। जहां तक संघ के स्वयंसेवकों का प्रश्न है, संघ की शाखाओं में जातिवाद और छुआछूत का नामो-निशान भी नहीं है लेकिन सबके निजी और सार्वजनिक जीवन में जातिवाद बढ़ता जा रहा है।
जातिवाद पर सबसे जबर्दस्त प्रहार भारत के संतों और महर्षि दयानंद जैसे महान पंडितों ने किया है। संघ वही करना चाहता है लेकिन उसे पता नहीं है कि वह यह कैसे करे? डा. राममनोहर लोहिया ने भी जात-तोड़ो आंदोलन चलाया था। संघ को चाहिए कि वह खुले-आम जातीय आरक्षण का पूर्ण विरोध करे। जातीय उपनाम हटवाने का आग्रह करे। सरकारी नौकरियों और चुनावों में ऐसे किसी व्यक्ति को न आने दे, जो अपना जातीय उपनाम प्रकट करता हो। अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित करे। जातीय संगठनों पर प्रतिबंध लगवाए। जाति-प्रथा को खत्म करने के कई अन्य उपाय भी खेाजे जा सकते हैं। जात खत्म हो तो मानव-मात्र की समानता का वातावरण अपने आप बनेगा।
इस काम को नेता लोग नहीं कर सकते। यह बड़ा काम है। वे बहुत बौने हैं। वे वोट और नोट के गुलाम हैं। ऐसे काम आर्यसमाज, संघ, सर्वोदय समाज तथा अन्य समाज सुधारक संस्थाएं ही कर सकती हैं। वर्तमान सरकार संघ के स्वयंसेवकों की सरकार है। संघ चाहे तो सरकार को भी इस दिशा में प्रेरित कर सकता है। संघ को इस बात से क्यों चिढ़ जाना चाहिए कि किसी हताश नेता ने उसकी तुलना सीरिया के उग्रवादी संगठन ‘इस्लामी राज्य’ से कर दी है। यह तुलना इतनी बेतुकी है कि इस पर टिप्पणी करना भी अपना समय खराब करना है