विवेक पाठक
चित्र भारती राष्ट्रीय फिल्म समारोह में नामी फिल्म निर्माता सुभाष घई ने की मन की बात
ग्वालियर। हीरो, कर्मा, कालीचरण, सौदागर, परदेश और ताल जैसी सुपरहिट फिल्में बनाने वाले सुभाष घई वो नामी निर्माता निर्देशक हैं जो राजकपूर के बाद मुंबई सिनेमा में शोमैन के नाम से जाने जाते हैं। उनकी फिल्में की कहानियां और कर्णप्रिय गीत आज भी भारत में देखे और गुनगुनाए जाते हैं। 21 से 23 फरवरी के बीच अहमदाबाद में चित्र भारतीय राष्ट्रीय फिल्म समारोह हुआ तो वे पूरे दो दिन फिल्म समारोह में शामिल हुए। इस दौरान उन्होंने पत्रकारों से अपने फिल्मी सफर व सिनेमा को लेकर अपने मन की बातें कहीं तो इस सिने समारोह की उपयोगिता पर अपने प्रखर विचार रखे।
सुभाष घई कहते हैं कि सिनेमा में उनका प्रवेश उनकी साहित्य और कहानियों के प्रति रुचि के कारण हुआ। वे बचपन से ही कहानियों के प्रति रुचि रखते थे। घर में पिताजी डॉक्टर थे तो मां गृहिणी। मां रामायण खुद पढ़ती थीं और मुझे भी रामायण की कथाएं सुनातीं थीं। मुझे ये कहानियां इतनी अच्छी लगती कि मैं इनमें खो जाता। लिखे हुए शब्दों को इमेज करने लगता। जो पढ़ता अपने आसपास और मन मस्तिष्क में उसे होता हुआ भी महसूस करता। बस तबसे पढ़ने का ऐसा शौक लगा कि कहानियां पढ़ने और उन जैसी ही कहानियों पर फिल्म बनाने का शौक लग गया। तब से फिल्मी जगत में सफर बराबर जारी है।
सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं
सुभाष घई कहते हैं कि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं है। सिनेमा हमें समाज की कई कहानियों को जानने समझने का अवसर देता है। हम समाज और अपने आसपास को गहराई से जान समझ पाते हैं। सिनेमा हमें इसके लिए विविध तरीके व विविध दृष्टिकोण देता है। कई दृष्टिकोण हमारी मेधा का विस्तार करते हैं। उन्होंने उदाहरण दिया कि ज्ञान हम सबको हो जाता है मगर बुद्धि सभी पर हो ऐसा जरुरी नहीं है। लोग गायत्री मंत्र सुनते हैं गाते हैं मगर अर्थ कितने जानते और गहराई से समझते हैं। हकीकत में बुद्धि संवादों, व्यवहारों और अनुभवों से विस्तार पाती है। सिनेमा इस विस्तार को पाने का जरिया है। सिनेमा की अलग अलग कहानियां एक ओर हमारी नजर का चौतरफा विकास करती हैं तो दूसरी ओर हम समाज के अंदर भी बहुत गहराई से देखने के काबिल हो जाते हैं।
भारत भर में बिखरी हैं कहानियां
चित्र भारतीय राष्ट्रीय फिल्म समारोह को लेकर निर्माता सुभाष घई काफी आशाविन्त दिखे। उन्होंने कहा कि भारतीय चित्र साधना के ये फिल्म दिवार्षिक फिल्म समारोह देश की प्रतिभाओं के लिए उचित मंच हैं। पूरे भारत में संस्कृति, साहित्य, सफलताएं, संघर्ष, आशाओं व परिवर्तन की कहानियां बिखरी हुई हैं। ये कहानियां मुंबई में बैठे चंद सिने निर्देशक सामने नहीं ला सकते। इसके लिए सिनेमा सृजन की दृष्टि का भारत के मंझोले शहरों से कस्बों और गांवों तक फैलाव होना चाहिए। जब ऐसा होगा तो भारत का जनजीवन, समाज, कला, संस्कृति अलग अलग दृष्टिकोणों से हम सबके सामने पहुंचेगी। हम अनदेखे भारत और अनछुए मुद्दों को जान पाएंगे देख पाएंगे। चित्र भारतीय राष्ट्रीय फिल्म समारोह से ऐसा ही होता दिख रहा है। फिल्म समारोह में शॉर्ट फिल्म, डॉक्युमेंट्री से लेकर एनीमेशन फिल्म के जरिए युवा देश भर से विचार, तथ्य रोचक कहानियों को फिल्माकर हम सबके सामने लाए हैं। ये सिलसिला अभी बहुत आगे जाना चाहिए। ऐसा जरुर होगा ये युवा फिल्मकारों के उत्साह को देखकर मुझे पक्का विश्वास है।