“कर्स आफ नालेज” से बचने की कोशिश

कोरोना काल-1 में कई महीनों के चिंतन-मनन और पठन-पाठन के बाद 16 अक्टूबर, 2020 के दिन मैं पत्नी के साथ गांव के लिए रवाना हो गया। चूंकि कोरोना के कारण रेलयात्रा सुरक्षित नहीं थी, इसलिए अपनी कार से ही गांव जा रहा था। रात में कानपुर में अपने मित्र सुरेश अग्निहोत्री जी के यहां रुका, उनसे मिशन के बारे में जरूरी विचार-विमर्श किया और अगले दिन सुबह-सुबह तिरहुतीपुर के लिए रवाना हो गया। रास्ते में लखनऊ और अयोध्या के अपने मित्रों-परिचितों और गुरूजनों से मिलते-मिलाते जब गांव पहुंचा तो रात हो गई थी। रात में किसी से कोई खास बात नहीं हुई, किंतु सुबह उठा तो देखा कि सबकी आंखों में सवालों का समुन्दर हिलोरें मार रहा था। मेरे पास सभी के सवालों के जवाब थे। लेकिन कुछ बोलूं, उसके पहले मुझे वेदव्यास जी की व्यथा याद आ गई।

चारों वेदों के संकलनकर्ता तथा महाभारत और भागवत् पुराण जैसे दिव्य ग्रंथों के रचयिता वेदव्यास जी महाज्ञानी थे। भारतीय संस्कृति का संपूर्ण ज्ञान एक तरह से उनके भीतर समाया हुआ था। लेकिन वे इस बात से व्यथित थे कि कोई उनकी सुनता क्यों नहीं। वे कहते हैं – “ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चित् शृणोति माम्, धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते?” अर्थात “मैं बाँहें उठाकर लोगों को समझा रहा हूँ कि धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है, इसलिए क्यों नहीं धर्म के मार्ग पर चलते? पर कोई मेरी सुनता ही नहीं।” सूर्यकांत बाली जी ने अपनी पुस्तक भारत गाथा में इस प्रसंग का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। प्रश्न उठता है कि सबकुछ जानते हुए भी वेदव्यास जी अपनी बात लोगों को क्यों नहीं समझा पा रहे थे?

अपनी बात दूसरों को न समझा पाने की समस्या कसान्ड्रा -Cassandra नामक एक राजकुमारी की भी थी जिसका उल्लेख ग्रीक मिथकों में हुआ है। कसान्ड्रा ट्राय के राजा की बेटी थी। एक वरदान के कारण भविष्य की घटनाएं उसे साफ-साफ दिखाई देती थीं लेकिन विडंबना यह थी कि उसकी बातों पर कोई भरोसा नहीं करता था। जब यूनान का ट्राय के साथ युद्ध शुरू हुआ तो उसने सबको बताया था कि यूनानी सैनिक लकड़ी के घोड़े में छिपकर शहर के अंदर आएंगे और शहर को तबाह कर देंगे। लेकिन उसकी चेतावनी पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। वह अपने शहर को बरबाद होने से बचा नहीं पाई और यूनानियों ने पूरे शहर को राख में मिला दिया।

जब आप किसी विषय पर खूब अध्ययन कर लेते हैं और उसके बारे में पर्याप्त अनुभव जुटा लेते हैं, तो आपके अंदर भी कुछ हद तक भविष्य को देखने-जानने की क्षमता विकसित हो जाती है। आप जान जाते हैं कि क्या करने से अच्छा होगा और क्या करने से खराब। यहां तक तो सब ठीक रहता है। चुनौती तब उत्पन्न होती है जब आप अपनी जानकारी के आधार पर उन लोगों को कुछ करने या कुछ नहीं करने के लिए समझाते हैं, जिन्होंने न तो आपके जितना अध्ययन किया है और न ही आप के जितना उन्हें अनुभव है। यह चुनौती तब विकट समस्या बन जाती है जब आप यह भूल जाते हैं कि आपके और आपकी बात सुनने वालों के बीच ज्ञान और अनुभव का कितना अंतर है। जब भी ऐसा होता है तो संवाद खत्म हो जाता है और आपकी बात अनसुनी रह जाती है।

हम सभी ज्ञान और अनुभव के मामले में एक-दूसरे से अलग होते हैं। कुछ मामलों में हम विशेषज्ञ तो अधिकतर मामलों में साधारण होते हैं। इसमें कोई समस्या नहीं। समस्या तब आती है जब हम इस अलगाव का और इस अंतर का सही-सही आकलन किए बिना ही अपने निष्कर्षों को दूसरों से साझा करने और उसे थोपने में लग जाते हैं। हम यह मानकर संवाद करते हैं कि सामने वाले की और हमारी मान्यताएं, प्राथमिकताएं एक जैसी हैं। हमें लगता है कि हम जो जानते, मानते और महसूस करते हैं, सामने वाला भी कमोबेश वही जानता, मानता और महसूस करता है। मनोविज्ञान में इस प्रवृत्ति को Curse of Knowledge कहते हैं।

आप कैसे बचेंगे ?

मनोविज्ञानी “कर्स आफ नालेज” को Cognitive Bias की श्रेणी में रखकर अध्ययन करते हैं। यह प्रवृत्ति प्रत्येक मनुष्य में जन्मजात होती है – किसी में कम किसी में ज्यादा। कोई भी इससे बच नहीं सकता। हां इसके बारे में जानकर इसके असर को धीरे-धीरे कम जरूर किया जा सकता है। आप के ऊपर “कर्स आफ नालेज” का जितना असर होगा, उसी अनुपात में इससे जुड़े दुष्परिणाम दिखाई देंगे। उदाहरण के लिए-

(1). आप दूसरों के व्यवहार का सही-सही अनुमान नहीं लगा पाएंगे। आप प्रायः यह सोचेंगे कि फलाने व्यक्ति ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?

(2). आप स्वयं अपने अतीत के व्यवहार को अच्छे से समझ नहीं पाएंगे। आप बार-बार खुद से पूछेंगे कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ?

(3). आप अक्सर कहते हुए मिलेंगे कि लोग तो मेरी बात ही नहीं सुनते।

(4). आप जिन चीजों के विशेषज्ञ हैं, उसे नौसिखियों (विद्यार्थियों) को अच्छे से नहीं समझा पाएंगे।

(5). आप अपने सामने वाले को बोलने का बहुत कम मौका देंगे।

(6). आप को यह भी खीझ हो सकती है कि लोगों को आपकी बात समझ में नहीं आती। इसी के साथ यदि अलग-अलग विशेषण के साथ आप लोगों को कोसने का भी काम करते हैं तो सावधान हो जाइए, आप “कर्स आफ नालेज” के शिकंजे में हैं।

“कर्स आफ नालेज” से निपटने का सबसे अच्छा तरीका है कि जब भी आपका किसी नए व्यक्ति या नई परिस्थिति से सामना हो तो एक क्षण के लिए अपनी पूर्व सूचनाओं, धारणाओं और अपेक्षाओं को किनारे ऱख दीजिए। आपको चीजों को उनके वास्तविक स्वरूप में देखना सीखना पड़ेगा। बिना ऑब्जर्वेशन और इनवेस्टिगेशन किए ही, धारणा बना लेने से बड़ा नुक्सान होता है। प्रसिद्ध जासूसी उपन्यास का नायक शेरलाक होम्स अपने सहायक डा. वाट्सन को एक केस (The Scandal of Bohemia) में डांटते हुए कहता है, “You see, but you do not observe”. यह डांट केवल वाट्सन पर ही नहीं, बल्कि कमोबेश हम सब पर लागू होती है।

यह सच है कि “कर्स आफ नालेज” का असर प्रत्येक मनुष्य पर होता है, लेकिन जो लोग समाज सुधार या व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं, उन पर इसका सबसे अधिक असर होता है। ये लोग दो प्रकार के होते हैं। पहले वे जो क्रांति की बात करते हैं और दूसरे वे जो क्रमिक बदलाव के पक्षधर होते हैं। क्रांति की बात करने वालों में जहां “कर्स आफ नालेज” आउट आफ कंट्रोल होता है तो वहीं क्रमिक बदलाव की बात करने वालों में यह कंट्रोल में होता है।

चूंकि मैं क्रमिक बदलाव का पक्षधर हूं, इसलिए संभवतः “कर्स आफ नालेज” मेरे मामले में आउट आफ कंट्रोल नहीं है। इसे और कम करने के लिए हमने अपने रोडमैप में दो साल के आब्जर्वेशन पीरियड (2020 से 2022) का विशेष प्रावधान किया है। मेरा मानना है कि “कर्स आफ नालेज” जितना कम रहेगा, संवाद उतना ही बेहतर होगा।

इसी निष्कर्ष के साथ मैंने गांव में अपने परिवार और अन्य लोगों के साथ बात-चीत का सिलसिला शुरू किया। सभी को तुरंत सब कुछ समझा देने की मुझे कोई जल्दी नहीं थी। मेरी बातें मुख्यतः 26 अक्टूबर 2020 दशहरा के दिन गोविन्दजी की प्रस्तावित यात्रा पर केन्द्रित थीं।

विमल कुमार सिंह
संयोजक, मिशन तिरहुतीपुर

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