मिशन तिरहुतीपुर की गतिविधियों के कुल 9 आयाम हैं- मीडिया, इवेंट्स, इन्फ्रास्ट्रक्चर, संगठन, शिक्षा, कृषि, गैर कृषि उत्पादन, व्यापार और सेवाक्षेत्र। इनमें से कोई यदि मुझसे पूछे कि सबसे महत्वपूर्ण क्या है तो मैं कहूंगा शिक्षा और वह भी शैशवकालीन शिक्षा अर्थात शिशु के जन्म से लेकर 5 साल तक दी जाने वाली शिक्षा।

शिशु शिक्षा को इतना महत्वपूर्ण मानने के बावजूद हम इस संबंध में तुरंत कुछ नहीं कर सकते थे। इसके लिए अभी न हम तैयार थे, न समाज और न ही बच्चों के मां-बांप। हमारी समस्या भौतिक संसाधनों की थी लेकिन समाज और बच्चों के मां-बाप की समस्या वह सोच थी जिसमें शिशु शिक्षा के लिए कोई स्थान ही नहीं है। इस क्षेत्र में काम करने के पहले हमें मां-बाप की मानसिकता बदलने की जरूरत थी जो अपने आप में एक धीमी प्रक्रिया है।

शिक्षा के क्षेत्र में तुरंत कुछ करने के लिए दस से पंद्रह वर्ष के बीच वाले बच्चे सर्वाधिक उपयुक्त थे। हालांकि इस आयुवर्ग की अपनी समस्याएं थीं। कोरोना के कारण लंबे समय तक स्कूल बंद रहने के कारण बच्चों का पढ़ाई-लिखाई से संपर्क लगभग टूट सा गया था। उनकी तात्कालिक जरूरत को देखते हुए हमने 3 जनवरी, 2021 को स्टडी सेन्टर का प्रयोग शुरू किया।

सबसे पहले हम केवल यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि बच्चे एक जगह कापी-किताब के साथ इकट्ठा होना शुरू हों। गांव की चाचियों की मदद से यह काम आसानी से हो गया था, लेकिन बच्चों को अनुशासन के साथ प्रति दिन दो घंटे व्यस्त रखना एक बड़ी चुनौती थी। बच्चों के मां-बाप इसके लिए डंडा इस्तेमाल करने पर जोर दे रहे थे, लेकिन मेरा, कमल और हर्ष का सर्वसम्मति से निर्णय था कि किसी भी स्थिति में स्टडी सेंटर पर बच्चों को शारीरिक दंड देकर या डांट-फटकार कर अनुशासन बनाने की कोशिश नहीं की जाएगी। कमल ने चाचियों को भी समझाया कि वे डंडा लेकर स्टडी सेंटर के चारो ओर बैठें जरूर, लेकिन उसका इस्तेमाल न करें।

लगभग एक सप्ताह की मशक्कत के बाद हमने पहले स्टडी सेंटर पर कुछ हद तक व्यवस्था बना ली। इसमें कमल और हर्ष की भूमिका महत्वपू्र्ण थी। जब एक बार स्थिति नियंत्रण में आ गई तो सेंटर चलाने की जिम्मेदारी कुछ सीनियर बच्चों को सौंप दी गई। इसके लिए उनकी विशेष रूप से काउंसलिंग भी की गई। सबकुछ ठीक से चले, इसके लिए चाचियां भी सजग थीं।

पहला स्टडी सेंटर शाम को 6 बजे से 8 बजे के बीच चल रहा था। शुरू में इसमें अधिकतर लड़कियां थीं। लेकिन धीरे-धीरे लड़के भी आने लगे। कुछ ही दिन में बच्चों की संख्या यहां बढ़कर 70 के आसपास हो गई। बहुत कम स्थान में इतने बच्चों को साथ बैठाना एक कठिन समस्या थी, लेकिन सर्दी का मौसम होने के कारण किसी तरह काम चल रहा था।

जब पहले सेंटर पर संख्या अनियंत्रित होने लगी तो 28 जनवरी को दूसरा सेंटर खोला गया। यह सेंटर गांव के बाहर एक ऐसे मकान के बरामदे में शुरू किया गया जिसके लोग दिल्ली रहते थे। सुबह 6 से 8 बजे चलने वाले इस सेंटर पर धीरे-धीरे 50 से 60 बच्चों की नियमित पढ़ाई होने लगी।

हम देख रहे थे कि गांव के बच्चों को स्टडी सेंटर का प्रयोग पसंद आ गया था। 15 फरवरी को कुछ बच्चों ने अपनी ओर से पहल करते हुए तीसरे सेंटर को खोलने की तैयारी कर ली। गांव की सामूहिक जमीन पर उन्होंने घास-फूस की एक मंडई बनाई और उसके उद्घाटन का एक छोटा सा कार्यक्रम भी किया जिसमें गांव भर से लोग आए। इस तीसरे सेंटर पर 20 से 25 बच्चे पढ़ने आते थे। इसका समय भी शाम 6 से 8 के बीच था। यह सेंटर कुल 23 दिन चला। 10 मार्च को एक आंधी आई और मड़ई को अपने साथ ले गई। बच्चों ने दुबारा मड़ई बनाने की कोशिश नहीं की क्योंकि एक परिवार ने उन्हें अपने घर के सामने आकर बैठने और पढ़ने की सुविधा दे दी थी।

अब तक कुल 3 सेंटर चल रहे थे। उसमे 5 साल से लेकर 18-19 साल के बच्चे आ रहे थे। उम्र में इतनी असमानता होने के कारण पढ़ाई कम, तमाशा अधिक होता था। इसे देखते हुए 18 फरवरी से चौथा स्टडी सेंटर शुरू किया गया। गांव के बाहर मिशन ग्राउंड में शुरू हुए इस सेंटर पर 5 से 10 साल के बच्चों को बुलाया जा रहा था। ये ऐसा समूह था जो स्वयं पढ़ने-पढ़ाने की स्थिति में नहीं था। इसलिए पहली बार मिशन की ओर से एक महिला अध्यापक की अवैतनिक नियुक्ति की गई। यह कोई और नहीं बल्कि मेरी धर्मपत्नी आभाजी थीं। उन्होंने खुशी-खुशी यह जिम्मेदारी स्वीकार कर ली। इसमें कुछ समय तक उनकी जेठानी ने भी मदद की। बच्चों का यह सेंटर सुबह-शाम दोनों समय चलता था। आमतौर पर यहां बच्चों की संख्या 60-70 के आस-पास होती थी।

स्टडी सेंटर का हमारा प्रयोग लगभग चार महीने चला। जब कोरोना की दूसरी लहर आई तब हमें अपने सभी सेंटर 22 अप्रैल को बंद करने पड़े। उस समय हमें नहीं मालूम था कि अब हम अपना प्रयोग दुबारा कब शुरू कर पाएंगे। बात केवल कोरोना की ही नहीं थी। कई और समस्याएं भी थीं। सबसे बड़ी समस्या मौसम की थी। गर्मी का मौसम शुरू हो गया था। उसके बाद बरसात आने वाली थी। सर्दियों में जैसे हम बच्चों को बैठा रहे थे, वैसा करना गर्मी और बरसात में संभव नहीं था।

भविष्य को लेकर हम चिंतित थे, लेकिन अतीत के काम से मन में संतुष्टि भी थी। बिना किसी नियमित अध्यापक के चार महीने तक गांव के लगभग 200 बच्चों को संभालना और उनमें पढ़ाई की ललक पैदा करना सामान्य बात नहीं थी। हमारे सेंटर ‘पीअर लर्निंग’ के सिद्धांत पर चल रहे थे। अर्थात वहां बच्चे ही एक-दूसरे को पढ़ा रहे थे। लेकिन इस व्यवस्था को गढ़ने में बड़ी मेहनत हुई थी। इसमें कमल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। कमल का काम पढ़ाना नहीं था, लेकिन हर रोज सभी सेंटरों पर जाकर वहां की हर छोटी-बड़ी चीज की निगरानी करना उनकी रोज की दिनचर्या थी। सेंटर पर ब्लैकबोर्ड, डस्टर सहित सभी जरूरी सामान उपलब्ध कराना, वहां प्रकाश की व्यवस्था करना और समय-समय पर नए-नए नियम बनाकर सेंटर को सुचारु रूप से चलाए रखना उन्हीं की जिम्मेदारी थी। 18 जनवरी को हर्ष के दिल्ली चले जाने के बाद उन्हें यह सब अकेले ही करना पड़ा था।

उपलब्धि की बात करें तो चार महीनों में मिशन ने पढ़ाई को लेकर बच्चों का दृष्टिकोण काफी हद तक बदल दिया। बच्चों को पहली बार पता चला कि बिना डंडे के और बिना डांट-फटकार के भी पढ़ाई हो सकती है। निरपेक्ष रूप से देखा जाए तो मिशन के इन स्टडी सेंटर्स पर शोरशराबा ज्यादा और गंभीर पढ़ाई कम ही हो पाती थी। लेकिन फिर भी इससे गांव में शिक्षा को लेकर एक सकारात्मक माहौल बना।

शिक्षा के क्षेत्र में मिशन तिरहुतीपुर ने कायदे से अभी एक कदम भी नहीं बढ़ाया है। लेकिन हमें यह अच्छे से मालूम है कि जाना कहां है। पारंपरिक स्कूल खोलना हमारे एजेंडे में शामिल नहीं है। स्कूली व्यवस्था को टक्कर देने की भी हमारी कोई मंशा नहीं है। हम तो बस एक पूरक व्यवस्था चाहते हैं जो देश के प्रत्येक गांव में काम करे। स्कूल-कालेज जहां जाकर रुक जाते हैं, वहीं से हम शिक्षा को शुरू करना चाहते हैं।

इस डायरी में फिलहाल इतना ही। आगे की बात डायरी के अगले अंक में, इसी दिन इसी समय, रविवार 12 बजे। तब तक के लिए नमस्कार।

विमल कुमार सिंह
संयोजक, मिशन तिरहुतीपुर

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