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गोविन्दजी का तिरहुतीपुर गांव में दशहरा वाला कार्यक्रम बहुत अच्छे से संपन्न हो गया। लोगों की अपेक्षा थी कि अब हम गांव के हार्डवेयर पर अर्थात स्कूल, पुल, सड़क, बिजली, पानी, कृषि, पशुपालन आदि पर काम करेंगे ताकि गांव को माडल गांव बनाया जा सके। लेकिन हम फिलहाल कुछ और सोच रहे थे। गांव के हार्डवेयर पर काम जरूरी है, उसके महत्व को हम भी स्वीकार करते हैं, लेकिन हमारी प्राथमिकता में गांव का हार्डवेयर नहीं बल्कि साफ्टवेयर था। यहां साफ्टवेयर से हमारा तात्पर्य उस मानसिकता से है जिससे गांव चलते आए हैं और आगे जिनसे गांवों को चलना चाहिए। हमारी इच्छा है कि गांव को गांव बनाए रखते हुए विकास हो। विकास के नाम पर गांव का गंवईंपन ही चला गया तो इसे उचित नहीं कहा जा सकता।

सवाल उठता है कि गांव और गंवईपन क्या है? ऐसी कौन सी विशेषता है जो किसी बस्ती को गांव बनाती है? इस प्रश्न का बड़ा अच्छा उत्तर एक फिल्म में मिलता है जिसका नाम है – नदिया के पार। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गंवई परिवेश को लेकर 1982 में बनी इस फिल्म में नायिका गुंजा नायक चंदन के साथ उसके गांव जा रही है। कुछ दूर चलने के बाद वह पूछती है, “…कितनी दूर अभी कितनी दूर है, ऐ चंदन तोरा गांव हो…” जवाब में चंदन कहता है, “…जब कोई बुलाए लेके नाम हो…” अर्थात जहां पहुंचते ही लोग मुझे मेरा नाम लेकर पुकारने लगें, समझ लेना कि वही मेरा गांव है। गांव की इतनी सटीक परिभाषा आपको शायद ही कहीं और मिले।

असल में गांव वही है जहां आप सबको जानते हैं और सब आपको जानते हैं। गांव में आप का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। वहां आप हमेशा किसी के बेटे, भाई, पिता, पति, पत्नी जैसे अनगिनत रिश्तों को साथ लेकर चलते हैं। संबंध और जान-पहचान आपकी शहर में भी हो सकती है, वो भी हजारों मे। लेकिन वहां आपकी पहचान केवल आपकी पहचान होती है। उस पहचान के साथ संबंधों का काफिला नहीं चलता। गांव में केवल आपका ही नहीं बल्कि आपके पुरखों का भी हिसाब रखा जाता है। उनके यश-अपयश दोनों से आपको दो-चार होना पड़ता है।

जीवंत संबंध एक ऐसा पहलू है जो दुनिया के सभी गांवों में दिखाई देता है। यहां डेसमंड मोरिस की किताब – The Human Animal: A Personal View of the Human Species का उल्लेख प्रासंगिक है। इसी नाम से लेखक ने बीबीसी के लिए 6 एपीसोड में एक टीवी सीरीज भी बनाई है। इसके तीसरे एपीसोड में एक सीन है जहां एक आदमी दिल का दौरा पड़ने का नाटक करता है। पहले यह नाटक लंदन जैसे बड़े शहर में एक भीड़भाड़ वाले पैदल मार्ग पर हुआ। दूसरी बार इसे एक छोटे से गांवनुमा कस्बे में दोहराया गया। प्रयोग का परिणाम अपेक्षित था। शहर में उसे मदद मिलने में कई घंटे लगे, जबकि गांव में उसे कुछ ही मिनटों में मदद मिल गई।

इस प्रयोग पर टिप्पणी करते हुए डेसमंड मोरिस कहते हैं कि मनुष्य बड़े शहरों में रहने तो लगा लेकिन उसका मन-मष्तिष्क और उसकी जैविक संरचना अभी भी गांव नुमा माहौल में ही ठीक से काम करती है। मोरिस का कहना है कि शहरों में रहने वाले मनुष्यों का अवचेतन मन अनजान मनुष्यों को दूर किसी जंगल में उगे पेड़े-पौधों से अधिक कुछ नहीं मानता। लेकिन वही मनुष्य जब गांव के परिवेश में आता है तो उसका व्यवहार बदल जाता है। वह अपने आस-पास के अनजान मनुष्यों, पशु-पक्षियों और यहां तक की कई निर्जीव वस्तुओं से भी भावनात्मक रिश्ता बना लेता है।

जब हम गांव के विकास की बात करते हैं तो हमें सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारे हर छोटे-बड़े कार्य से गांवों की यह मूल विशेषता और मजबूत होनी चाहिए, उसे कोई नुक्सान नहीं पहुंचना चाहिए। गांव जिन खूबियों के लिए जाने जाते रहे हैं उनकी सूची बड़ी लंबी है। उदारहण के लिए अपने आस-पास के प्रति सजग रहना, एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आना, भोलापन, श्रम करने की आदत, बड़ों का सम्मान, रिति-रिवाजों के प्रति श्रद्धा, संघर्ष की प्रवृत्ति, सहअस्तित्व की भावना, समाज के काम में बढ़चढ़कर हिस्सा लेना, संयमित उपभोग और प्रकृति का उसकी तमाम विविधताओं के साथ संरक्षण आदि ऐसी कई विशेषताएं हैं जो गांवों की निशानी हुआ करती थीं।

दुर्भाग्य से गांव की ये सारी खूबियां आज खतरे में हैं। कुछ लुप्त हो चुकी हैं और कुछ लुप्त होने की कगार पर हैं। आज के गांवों में दिखावा, स्वार्थ, एकाकीपन, आलस्य, लोभ और हताशा जैसी समस्याएं उफान पर हैं। ‘बाजार’ ने गांव के लोगों को ‘आजाद’ कर दिया है। उन्हें भरोसा है कि उनकी हर आवश्यकता की पूर्ति ‘बाजार’ कर देगा। अब गांव में भी लोग एक-दूसरे से बेपरवाह हो रहे हैं। आंखों की शरम बेमानी होती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में जातीय दुराग्रह कमजोर हुआ है किंतु अभी भी उसकी जड़ें बची हैं। ये सारे दुर्गुण गांवों को अभाव, वैमनस्य और अपसंस्कृति की ओर ले जा रहे हैं।

जब हम गांव के साफ्टवेयर पर काम करने की बात करते हैं तो असल में हम गांव के पारंपरिक गुणों को सहेजने-संवारने और दुर्गुणों को समाप्त करने की बात करते हैं। हमारा मानना है कि यदि गांव का साफ्टवेयर अर्थात गांव की मानसिकता ठीक है तो समृद्धि के बाह्य चिन्ह अर्थात हार्डवेयर सहज ही प्रकट होने लगेंगे। ऐसी स्थिति में समृद्धि का आगमन संस्कृति के साथ होगा। लेकिन अगर मानसिकता वाले पहलू पर ध्यान नहीं दिया गया तो परिणाम ठीक नहीं होंगे। पहले तो समृद्धि आएगी ही नहीं और आ भी गई तो तमाम तरह की विकृतियों के साथ आएगी।

गांवों का हार्डवेयर ठीक करने में सरकारों की सक्रिय भूमिका हो सकती है लेकिन जब बात साफ्टवेयर की आती है तो उसमें सरकार कुछ खास नहीं कर पाती। यहां तो सामाजिक पहल से ही कुछ सार्थक परिणाम निकलते हैं। मिशन तिरहुतीपुर ने इसी बात को समझते हुए गांव के साफ्टवेयर को ठीक करना अपना प्राथमिक लक्ष्य माना है। मिशन ने अपने काम के जो 9 आयाम तय किये हैं, उनमें से 4 आयाम अर्थात शिक्षा, संगठन, मीडिया और ईवेंट्स को मुख्यतः गांव के साफ्टवेयर पर ही काम करने के लिए डिजाइन किया गया है। शेष 5 आयामों- आधारभूत ढांचा, कृषि, व्यापार, उत्पादन और सेवा के क्षेत्र में भी हम साफ्टवेयर वाले पहलू को लेकर विशेष उपाय करने वाले हैं।

मुझे अच्छे से मालूम है कि किसी का मन या मानसिकता बदलना बहुत ही मुश्किल काम है। उस पर भी यह बदलाव जब एक-दो गांवों में ही नहीं बल्कि देश भर के गांवों में लाना हो तो इसे लगभग असंभव माना जा सकता है। लेकिन मैं निश्चिंत था। परिणाम की मुझे चिंता नहीं थी। मेरा ध्यान तो केवल उन प्रक्रियाओं का पालन करने पर था जिन्हें मैंने गोविन्द जी की संगत और अपने अध्ययन से जाना–समझा है। इस जानकारी और समझ को मैंने तिरहुतीपुर में कैसे इस्तेमाल किया, इस पर चर्चा करेंगे अगली डायरी में। इसी दिन इसी समय- रविवार 12 बजे। तब तक के लिए नमस्कार…

विमल कुमार सिंह
संयोजक, मिशन तिरहुतीपुर

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