डा. वेद प्रताप वैदिक
उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने साहस का प्रदर्शन किया है या दुस्साहस का, यह कहना मुश्किल है। उसने हरीश रावत की कांग्रेस सरकार को बहाल कर दिया है। राष्ट्रपति शासन को रद्द कर दिया है। अब से पहले राष्ट्रपति शासन कई राज्यों पर थोपा गया लेकिन उसे अवैध घोषित करके किसी सरकार को दुबारा नहीं बिठाया गया। इस अर्थ में उत्तराखंड के न्यायाधीशों का यह फैसला ऐतिहासिक है। भारत के कानूनी इतिहास में इस फैसले का संदर्भ हमेशा दिया जाता रहेगा लेकिन यह फैसला देने के पहले जजों ने राष्ट्रपति, विधानसभा अध्यक्ष और कांग्रेस के बागी विधायकों के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया है, उनमें संयम, गरिमा और मर्यादा का इतना कम ध्यान रखा गया है कि उस फैसले को ठंडे दिमाग से दिया गया फैसला कैसे कहा जा सकता है?
जो भी हो, इस फैसले के मुताबिक हरीश रावत की सरकार को 29 अप्रैल को सदन में शक्ति-परीक्षण करना होगा। इसमें शक नहीं कि कोई भी सरकार बहुमत में है या नहीं, इसकी अंतिम परीक्षा सदन में ही हो सकती है लेकिन अभी तो इसी उच्च न्यायालय को यह तय करना है कि कांग्रेस के 9 बाकी विधायकों की सदस्यता कायम है या भंग हो गई है। यदि वह भंग हो गई है तो हरीश रावत आसानी से अपना बहुमत सिद्ध कर देंगे, क्योंकि 6 अन्य विधायकों और अपने 27 विधायकों को मिलाकर वे 33 हो जाएंगे, जो कि 61 सदस्यों की विधानसभा में स्पष्ट बहुमत हो जाएगा लेकिन यदि उन बागी विधायकों की सदस्यता कायम रही तो रावत सरकार का अल्पमत में होना सुनिश्चित है।
इसका फैसला 23 अप्रैल को आना है। हो सकता है कि भाजपा 23 अप्रैल तक इंतजार करे। यदि बागियों की सदस्यता भंग हो गई तो भाजपा निश्चय ही सर्वोच्च न्यायालय में जाएगी। यदि भाजपा अभी ही सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले ले तो बेहतर होगा। वह शक्ति-परीक्षण को उचित ठहरा दे और बागियों की सदस्यता कायम रखे तो सांप भी मरेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी। यदि सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराखंड न्यायालय के फैसले को मान्य कर दिया तो यह भारत के संवैधानिक इतिहास का युगांतरकारी फैसला होगा। सबसे बेहतर तरीका तो यह होगा कि उत्तराखंड की विधानसभा को तत्काल भंग किया जाए और वहां चुनाव करवाए जाएं। जनता की अदालत जो फैसला करे, उसे सभी अदालतें, सभी पार्टियों और सभी सरकारें शिरोधार्य करें।