व्यंग्य कविता : मौके की बात

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queue मिलन  सिन्हा

आधुनिक युग

कलयुग तो है ही

‘क्यू’  युग भी है

जहाँ  जाइए वहां  क्यू

नल पर नहाइए,

वहां  क्यू

राशन लेना है,

क्यू  में आइए

बच्चे का एडमिशन है,

क्यू  में आइए

भाषण देना है,

क्यू  में आइए

रोजगार  दफ्तर में

बेकारों के लिए क्यू

श्मशान में

मुर्दों के लिए क्यू

एक दिन  बात – बेबात  पर

पत्नी  से  हो गया  उसका झगड़ा

वो भी मामूली नहीं, तगड़ा

वह  भी आ गया  ताव में

चल दिया  आत्महत्या करने

क़ुतुब मीनार से

कूद कर मरने

मीनार घर से था  दूर

रास्ते में जाम

लगा था भरपूर

यहाँ भी था

क्यू का कमाल

जाम बना था

जी का जंजाल

ऐसे में

उसे उसके ‘स्व’ ने पूछा

फंसा है तू यहाँ

इस क्यू के जाल में

पता नहीं,ऊपर जाकर भी

फंस न जाए  फिर

इसी जंजाल में

उसने सोचा, सही है

मरना भी नहीं है आसान

इतने से ही मैं

कितना हूँ  परेशान ?

सो, बदला उसने अपना इरादा

किया  जीवन से यह वादा

फिर कभी ऐसा विचार

मन में नहीं आने दूंगा

न खुद मरने की सोचूंगा

और न ही किसी और को

इस तरह मरने दूंगा

तब से

जीवन की समस्याओं पर

दुखी और पीड़ित लोगों से

बात करता है

एक-एक को

ठीक से समझाता है

भैया, बेशक जिंदगी में है

कुछ कष्ट

पर इसे न करो

यूँ  ही  नष्ट

चली गयी जो एक बार जिंदगी

फिर, न मिलेगी दोबारा

तो क्यों न  अब से

बने एक  दूसरे  का सहारा

बदलें जीने का नजरिया

बात उसकी थी सच्ची

लगी सबको अच्छी

सचमुच,

‘क्यू ‘ ने उसे सोचने का मौका दिया

कई  और लोगों  को उसने

फिर से जीना सीखा दिया !

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