शहर, कुत्ते और हमारी ज़िम्मेदारी

“पॉटी उठाना शर्म नहीं, संस्कार है, शहर की सड़कों पर पॉटी नहीं, जिम्मेदारी चाहिए”

भारत में पालतू कुत्तों की संख्या 2023 में लगभग 3.2 करोड़ आंकी गई, और यह हर साल 12-15% की दर से बढ़ रही है। लेकिन साफ़-सफ़ाई और सार्वजनिक शिष्टाचार पर आधारित पालतू नीति केवल गिने-चुने शहरों में ही लागू है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, कुत्ते की पॉटी में मौजूद परजीवी और बैक्टीरिया से बच्चों और बुजुर्गों में गंभीर संक्रमण हो सकता है। विकसित देशों में पालतू की गंदगी न उठाने पर औसतन 50 से 500 डॉलर तक का जुर्माना होता है, जबकि भारत में यह प्रावधान कई जगह मौजूद होते हुए भी शायद ही लागू होता है।

पालतू जानवर केवल हमारे घर का हिस्सा नहीं, बल्कि हमारे शहर की संस्कृति और अनुशासन का भी आईना होते हैं। उनकी देखभाल में हमारी आदतें यह तय करती हैं कि हम कितने जिम्मेदार नागरिक हैं।

– डॉ प्रियंका सौरभ

पालतू कुत्ता आज केवल घरेलू साथी नहीं, बल्कि शहरी जीवन शैली का अहम हिस्सा बन चुका है। शहरों में सुबह और शाम की सैर करते हुए सैकड़ों कुत्ते और उनके मालिक फुटपाथ, पार्क और गलियों में दिखाई देते हैं। यह दृश्य अपने आप में सुखद हो सकता है, बशर्ते इसके साथ ज़िम्मेदारी और अनुशासन भी उतना ही साफ़ दिखे। दुर्भाग्य से भारत में कुत्ता-पालन की संस्कृति में यह पहलू अब भी अधूरा है।

कुत्ता पालना केवल उसकी देखभाल तक सीमित नहीं है, बल्कि उस गंदगी को भी संभालना है, जो वह सार्वजनिक जगहों पर छोड़ता है। विकसित देशों में कुत्ते के मालिक के लिए यह सामान्य बात है कि यदि उसका पालतू कहीं पॉटी करता है तो वह तुरंत पॉलीथिन बैग निकालकर उसे उठाता है और नज़दीकी डस्टबिन में डालता है। इसके लिए कई नगरपालिकाएं मुफ्त बैग और पॉटी डस्टबिन उपलब्ध कराती हैं। इसके विपरीत भारत में सार्वजनिक स्थानों पर कुत्तों की पॉटी साफ़ करना अब भी एक दुर्लभ दृश्य है। कई मालिक यह मान लेते हैं कि ज़मीन तो सबकी है, इस पर गंदगी छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह सोच न केवल अस्वच्छता को बढ़ावा देती है, बल्कि बच्चों, बुजुर्गों और राहगीरों के लिए खतरा भी बनती है।

पालतू कुत्ते का प्रशिक्षण कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह अंततः एक जानवर है और उसका व्यवहार परिस्थितियों से प्रभावित हो सकता है। इसी वजह से विकसित देशों में सार्वजनिक स्थानों पर पट्टा लगाना अनिवार्य है। वहां के लोग न केवल कानून के डर से, बल्कि सामाजिक आदत के कारण भी ऐसा करते हैं। भारत में यह नियम अक्सर नज़रअंदाज़ होता है। कई मालिक गर्व से कहते हैं—“हमारा कुत्ता किसी को नहीं काटता।” लेकिन किसी अनजान राहगीर के डरने, बच्चे के गिरने या साइकिल सवार के असंतुलित होने की स्थिति में दुर्घटना हो सकती है। पट्टा न लगाना केवल नियम का उल्लंघन नहीं, बल्कि दूसरों की सुरक्षा के प्रति लापरवाही भी है।

कई देशों में कुत्तों का ज़्यादा भौंकना असामान्य माना जाता है और इसे नियंत्रित करने के लिए प्रशिक्षण पर ज़ोर दिया जाता है। भौंकना केवल खतरे या असामान्य परिस्थिति में होना चाहिए, इसे शोर-प्रदूषण और असामाजिक व्यवहार के रूप में देखा जाता है। भारत में इसके उलट, कुत्तों का दिन-रात भौंकना सामान्य समझा जाता है। यह न केवल पालतू बल्कि आवारा कुत्तों में भी दिखता है। इससे बच्चों और बुजुर्गों की नींद, मानसिक शांति और सुरक्षा प्रभावित होती है, लेकिन इस पर शायद ही कोई चर्चा होती है।

विकसित देशों में कुत्ता काटने, पट्टा न लगाने या गंदगी न उठाने पर भारी जुर्माना और कानूनी कार्रवाई का प्रावधान है। वहां कानून का पालन केवल दंड के डर से नहीं, बल्कि सामाजिक दबाव से भी होता है—क्योंकि नियम तोड़ना शर्मनाक माना जाता है। भारत में भी कुछ नगर निगमों ने ऐसे नियम बनाए हैं, लेकिन उनका पालन बेहद ढीला है। जुर्माने के प्रावधान अक्सर कागज़ों में ही रह जाते हैं, और लोग इन्हें गंभीरता से नहीं लेते।

विदेशों में ‘सार्वजनिक’ का मतलब है—सबका और सबके लिए। भारत में अक्सर ‘सार्वजनिक’ का मतलब बन जाता है—किसी का नहीं। यही कारण है कि सार्वजनिक संपत्ति और जगहों की देखभाल को व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं माना जाता। कुत्ता पालने के मामले में भी यही मानसिकता हावी है। पालतू को परिवार का हिस्सा मानने का दावा किया जाता है, लेकिन उसकी गंदगी, सुरक्षा और सामाजिक व्यवहार की जिम्मेदारी को लेकर ढिलाई बरती जाती है।

पालतू कुत्ते की पॉटी में कई प्रकार के बैक्टीरिया, परजीवी और रोगजनक तत्व हो सकते हैं, जो इंसानों के लिए हानिकारक हैं। सार्वजनिक जगहों पर इसे छोड़ना न केवल अस्वच्छता बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी खतरा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट बताती है कि खुले में पालतू जानवरों की गंदगी से बच्चों में आंत संबंधी बीमारियों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। ऐसे में यह केवल एक सफ़ाई का मुद्दा नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य का सवाल भी है।

इस समस्या को हल करने के लिए व्यक्तिगत, सामाजिक और प्रशासनिक—तीनों स्तरों पर बदलाव ज़रूरी है। सबसे पहले, लोगों में यह समझ विकसित करनी होगी कि पालतू जानवर पालना केवल भावनात्मक जुड़ाव नहीं, बल्कि जिम्मेदारी भी है। स्कूलों और सामुदायिक कार्यक्रमों के माध्यम से बच्चों और वयस्कों को पालतू जानवरों के प्रति सही व्यवहार और सार्वजनिक शिष्टाचार सिखाया जा सकता है।

दूसरा, नगरपालिकाओं को अपनी भूमिका सक्रिय रूप से निभानी होगी। हर पार्क, फुटपाथ और सार्वजनिक स्थल पर पालतू पॉटी डस्टबिन और मुफ्त बैग की व्यवस्था करना आवश्यक है। यह न केवल सुविधा बढ़ाएगा, बल्कि लोगों को जिम्मेदार बनाएगा।

तीसरा, कानून का सख़्त पालन होना चाहिए। पट्टा न लगाने, पॉटी न उठाने या आक्रामक कुत्ते को खुला छोड़ने पर जुर्माना और कार्रवाई सुनिश्चित करनी होगी। नियमों का अस्तित्व तभी सार्थक है जब उनका पालन हो और उल्लंघन पर तुरंत कार्यवाही की जाए।

चौथा, केवल दंड ही नहीं, बल्कि अच्छे व्यवहार के लिए सार्वजनिक सराहना और प्रोत्साहन भी देना चाहिए। अगर कोई पालतू मालिक नियमों का पालन करता है, तो उसकी मिसाल पेश की जानी चाहिए। इससे सकारात्मक प्रेरणा मिलेगी और बदलाव तेज़ होगा।

अंत में, कुत्तों के प्रशिक्षण केंद्रों को बढ़ावा देना ज़रूरी है। एक प्रशिक्षित कुत्ता न केवल अपने मालिक के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए सुरक्षित होता है। प्रशिक्षण में न केवल आदेश मानना बल्कि भौंकने की आदत और आक्रामक व्यवहार को नियंत्रित करना भी शामिल होना चाहिए।

शहर केवल इंसानों का नहीं, बल्कि उन सभी जीवों का भी है जो इसमें रहते हैं—चाहे वे पालतू हों या आवारा। पालतू कुत्ता पालना एक सुखद अनुभव है, लेकिन यह तभी संपूर्ण होता है जब हम उसकी जिम्मेदारियों को भी गंभीरता से निभाएं। सड़कें, पार्क और फुटपाथ सबके लिए सुरक्षित और साफ़ रहें, यह सुनिश्चित करना हम सबकी जिम्मेदारी है। इसका मतलब है कि पालतू की गंदगी उठाना, उसे पट्टा लगाना, उसके भौंकने और आक्रामकता को नियंत्रित करना और दूसरों की सुविधा का ध्यान रखना हमारी आदत में शामिल हो।

अगर हम सच में चाहते हैं कि हमारे शहर रहने लायक बनें, तो हमें यह मानना होगा—मुद्दा यह नहीं कि कुत्ता किसका है, मुद्दा यह है कि शहर किसका है। जब हम इस शहर को अपना मान लेंगे, तब हमारा कुत्ता भी इसका जिम्मेदार नागरिक बन जाएगा।

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