राजनीति व्यंग्य

‘नाली के कीडे’

बहुतों को इस लेख का शीर्षक देख कर आश्चर्य होगा,पर मेरी अपनी मजबूरी है.

मैंने वर्षों पहले एक कविता लिखी थी. उस कविता का भी शीर्षक था,नाली के कीडे.( यह कविता प्रवक्त के दो अप्रैल के अंक में प़्रकाशित हुई हैऔर लेखक के लिये प्रवक्त द्वारा बनाये गये आर्काइव में भी उपलब्ध है). यह करीब करीब उन दिनों की बात है,जब जनता पार्टी का प्रयोग असफल हो गया था और वह विभिन्न घटकों में बँट गयी थी.मैनें उसमे दिखाया था कि नाली के कीडों को स्वच्छ जल में रख देने से वे तडप तडप कर मर गये थे.उस समय मैनें विचार व्यक्त किया था कि हम वही नाली के कीडे तो नहीं जो हर तरह की गंदगी में जीवन-यापन कर रहे हैं,तन की गंदगी,मन की गंदगी और हमारा पूर्ण वातावरण हमारी करतूतों से दुर्गंध पूर्ण है. फिर भी हम प्रसन्न हैं और इसमें परिवर्तन के लिये कोई चेष्टा नहीं कर रहे हैं,बल्कि अपने विभिन्न करतूतों से परिवर्तन में रुकावट बन रहे हैं.

जेपी आन्दोलन का एक तरह से मैं भी एक हिस्सा था. मुझमें इतना साहस तो नहीं था कि मैं नौकरी को लात मार कर इस आन्दोलन में कूद पडता,पर एक सिपाही की तरह प्रच्छन रूप से उससे जुडा हुआ अवश्य था. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन गुजरात से आरम्भ हुआ था और बाद में जय प्रकाश नारायण से अपने हाथों में उसकी बागडोर लेने की प्रार्थना की गयी थी,जिसको उन्होंने एक तरह से आनाकानी से ही स्वीकार किया था.पर यह तो बाद की बात है.उससे पहले ही जब राजनारायण इंदिरा गाँधी के विरुद्ध चुनाव लड रहे थे,तब मैनें किसी जानकार से पूछा था कि राज नारायण तो इतने लोकप्रिय हैं कि वे कहीं से चुनाव जीत सकते हैं.यह भी सत्य है कि वे इंदिरा गाँधी के विरुद्ध तो नहीं ही जीत सकते,तो आखिर वे वहाँ से चुनाव क्यों लड रहे हैं. मुझे बताया गया था कि वे जीतने के लिये चुनाव नहीं लड रहे हैं.वे जानते हैं कि चुनाव में धांधली होगी और वे प्रमाण एकत्रित कर मुकदमा करने के लिये चुनाव लड रहे हैं.मेरा माथा ठनका.लगा कि कुछ न कुछ अवश्य होगा,पर मैं भ्रष्टाचार से अपने को इतना त्रस्त महसूस करता था कि  मैने सोचा जो होगा अच्छा ही होगा. उसके बाद चुनाव में इन्दिरा गाँधी की जीत और युद्ध में भारत की पाकिस्तान पर विजय .इन्दिरा गाँधी की लोकप्रियता पराकाष्ठा पर  पहुँच गयी,जिसका नतीजा 1972 के राज्यों के चुनाव में साफ साफ दिखा.फिर भी 1971 के चुनाव और पाकिस्तान पर विजय के दो वर्षों के अंदर ही यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन आरम्भ हो गया. इन्दिरा गाँधी पर चुनाव में हुए धांधली को लेकर मुकदमा तो 1971 के चुनाव के बाद हीं दायर हो चुका था.

फिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने जोर पकडा और इन्दिरा गाँधी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनाव संबंधी मुकदमा भी हार गयीं. उसकी परिणति हुई आपात काल में. हो सकता है आपलोगों को आश्चर्य हो ,पर आपातकाल के आरम्भिक दिनों में जब सर्वत्र शान्ति छा गयी और सबकुछ अनुशासित दिखने लगा तो मेरे जैसे कुछ अनुशासन प्रिय लोग खुश हो गये थे.मेरे स्थानीय स्टेशन से एक पैसेंजर ट्रेन गुजरती थी.बचपन से मैं उसका समय 10.30 जानता था.यह आपातकाल में ही पता चला कि उसका मेरे स्थानीय स्टेशन पर पहुँचने का समय 9.30 है.विनोबा भावे ने जब कहा था कि आपातकाल अनुशासन पर्व है तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ था.लोगों ने विनोबा जी को बहुत बुरा भला कहा था.पर मैं तो विनोबा जी के विचारों का ऐसे भी भक्त था और उन्होनें जो कहा था वे तो मेरे मन के भी विचार थे.मैं विनोबा भावे को उनके व्यक्तिगत साधना ओर कर्तव्य परायणता के लिये महात्मा गाँधी से कम दर्जा नहीं देता. मैंनें विनोबा साहित्य का भी अध्ययन किया है और मैं उनका वह बचन भी नहीं भूला हूँ कि सर्वोदय और भूदान नहीं भी सफल हो तो विश्व के सामने कम से कम एक विचारधारा तो रहेगा,जिसपर आगे की कोई भी पीढी आदर्श के रूप में प्रयोग में ला सकती है.

हाँ तो मैं बात कर रहा था, आपातकाल और जनता पार्टी के उद्भव की.आपातकाल का अनुशासन चंद दिनों का मेहमान साबित हुआ, क्योंकि हम तो आखिर हम हैं.फिर जारी हुआ दमन का चक्र,जिसने मुझसे बडे लोगों को 1942 की याद दिला दी.नेता लोग तो पहले ही बंद थे.इसके बाद भी कौन पकडा जायेगा इसका कोई ठिकाना नहीं.रिश्वत का बाजार भी जो कुछ दिनों के लिये एकदम शांत हो गया था,बडे जोरों से गर्म हो गया.जो काम पहले सैकडों में होता था वह अब हजारों में होने लगा, क्योंकि रिश्वत लेने वIलों के अनुसार रिस्क ज़यादा हो गया था.किसी को भी छोटी छोटी बातों के लिये तंग करना प्रशासन का दैनिक कार्यक्रम बन गया.नागरिक अधिकारों का हनन तो आपातकाल की घोषणा के साथ ही हो चुका था,पर उसका दुष्परिणाम भी छः महीने के अंदर द्ऋष्टिगोचर होने लगा था.आपातकल में सबसे ज्यादा हनन हुआ था अख़बारों की स्वतंत्रता का.बहुतों ने तो सम्पादकीय लिखना ही बंद कर दिया था.नतीजा हुआ एक पन्ने के बुलेटीन का प्राईवेट वितरण.आलम यह था कि उसको पढते हुए पकडे जाने पर भी जेल की हवा खानी पड सकती थी.फिर भी वह वितरीत होता ही था और लोग छिपकर पढ भी लेते थे. ऐसे भी इन्दिरा गाँधी तो आखिर उस वातावरण की देन थी जो आजादी के माहौल का जन्मदाता था,वह जन्मजात ताना शाह तो थी नहीं.अंततः उन्होनें चुनाव करा हीं डाली और तब जन्म हुआ जनता पार्टी का.

यहाँ वैसे मैं जनता पार्टी का इतिहास दुहराने नहीं बैठा हूँ,पर हमारे नेताओं की पद लोलुपता और स्वार्थ ही मेरे विचार से उसके विघटन का कारण बना.जय प्रकाश जी का मोरारजी देसाई के प्रधान मंत्री बनने में सहयोग देना उनकी दुर्दर्शिता का प्रमाण था. जय प्रकाश नारायण जानते थे कि मोरारजी देसाई ही सबसे कद्दावर और इमानदार नेता हैं.ऐसे मोरारजी देसाई की इमानदारी बहुतों को रास नहीं आती थी.तुर्रा यह कि वे समाजवादी विचारधारा से कभी भी सहमत नहीं हुए.वे अपनी नीतियों से समझौता करने वाले भी नहीं थे.मैनें अन्यत्र भी लिखा है कि मेरे विचारानुसार स्वतंत्र भारत का स्वर्णिम काल  जनता पार्टी का पहले दो वर्ष का शासन है.उस समय का माहौल ऐसा था कि लगता था कि किसी को भी खाने का मौका नही मिल रहा है.चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम की महत्वाकांक्षाएँ अलग सर उठा रहीं थीं,मोरारजी देसाई का बहुमत खत्म हुआ और संजय गाँधी की क्ऋपा से चरण सिंह सिंहासन  पर विराजमान हुए.चरण सिंह का प्रधान मंत्री बनने पर पहले भाषण के प्रारम्भिक अंश मुझे आज भी याद हैं.उन्होनें कहा था.”मेरे जीवन की तमन्ना पूरी हुई.”फिर सम्भल कर बोले थे,”यह तो हर नेता की तमन्ना होती है”. जय प्रकाश नारायण की जिन्दगी के वे सबसे दुखद दिन थे और जेल की यातना से ज्यादा यह मानसिक पीडा उनके तत्काल मौत का कारण बनी.

संजय गाँधी ने इन पदलोलुप महत्वाकांक्षी नेताओं को किस तरह उंगलियों पर नचाया था,इसका पूर्ण विवरण शायद इंडिया टूडे में उस समय निकला था.संजय गाँधी के लिये भी यह एक चुनौती थी क्योंकि वह अपने को माँ के राजनैतिक जीवन के पतन का कारण समझता था.वह अपना कर्तव्य समझता था कि माँ को वह पुनः स्थापित कर दे और विधि का विधान ऐसा रहा कि माँ को गद्दी दिलाने के बाद हीं वह सबको अलविदा कह कर चल दिया.

नीतियाँ बनती रही और बिगडती रही.इन्दिरा गाँधीकी मौत हुई और राजीव गाँधी प्रधान मंत्री बने.फिर आये विश्वनाथ सिंह जिन्होने अपने ढंग से भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेडा.अंत में वे भी धराशाई हुए और चन्द्रशेखर इत्यादि के शासन काल से गुजरते हुए हम नरसिंहा राव और बाजपेई के शासन तक पहुँचे.भ्रष्टाचार पर बातेंचलती रही.शायद भ्रष्टाचार कम करने के लिये प्रयत्न भी होते रहे,पर परिणाम यह हुआ कि भ्रष्टाचार कम होने के बजाये बढता ही गया.शायर के शब्दों में,

मर्ज बढता ही गया,ज्यों ज्यों दवा की.

जेपी के आंदोलन में एक बडी कमी थी. उस आंदोलन ने इस बारे में कोई दिशा निर्देश नही दिया था कि भ्रष्टाचार पर लगाम कैसे लगाया जाए.आंदोलन के संचालक शायद यह सोचते थे कि सत्ता परिवर्तन से भ्रष्टाचार  अपने आप खत्म हो जाएगा,पर उन्होनें यह नहीं सोचा कि सत्ता परिवर्तन एक बात है,भारतीयों के स्वभाव को, जिसमे भ्रष्टाचार कूट कूट कर भरा है, बदलना एकदम दूसरी बात है. कानूनी लगाम और सत्ताधारियों के ऊपर कानूनी शिकंजे के अभाव में उस समय सत्ता में आये लोगों ने भी कुछ समय बाद वही करना आरम्भ किया जो उनके पहले वाले कर रहे थे. एक बात और थी राजनैतिक सत्ता पलट हुआ था,सत्ता का असली संचालक यानि बाबू समुदाय तो नहीं बदला था. बाद में तो हालात कुछ ऐसे बदले कि नये लोग तो कुछ मामलों में पुरानों से भी ज्यादा भ्रष्ट साबित हुए.

यूपीए शासन के प्रथम अवतार में कुछ ऐसी अनहोनी घटना नहीं घटी,जिससे लोगों का ध्यान भ्रष्टाचार की ओर आक्ऋष्ट होता.महगांई अवश्य बढती रही और लोग उसके विरुद्ध आवाज भी उठाते रहे.बीजेपी भी सत्ता से अभी अभी बाहर हुअI था और अपनी हार से अच्छी तरह उबर भी नहीं पाया था .फिर आया परमाणु संधि,जिसने अन्य मुद्दाओं को गौड कर दिया. यूपीए चुनाव जीत कर फिर सत्तारूढ हो गयी. इस  बार तो कुछ ही समय बीता था कि न  जाने क्या हो गया? एक से बढ कर एक घोटाले सामने आने लगे.विदेशों में जमा काला धन तो हमेशा चर्चा का विषय रहा है,पर इसी बीच उसने भी जोर पकडा.सबकुछ सम्मिलित होकर माहौल कुछ इस तरह का हो गया कि भ्रष्टाचार का मुद्दा पूरे जोर शोर से सामने आ गया.भ्रष्टाचार खत्म करने और विदेशों से काले धन की वापसी पर सबसे ज्यादा मुखर हुए बावा रामदेव. वे योग गुरु के रूप में तो प्रसिद्धि पा हीं चुके थे.अतः उन्होनें अपनी लोकप्रियता का लाभ उठाते हुए इस दिशा में भी अपने कदम बढा दिये. भ्रष्टाचार और बढती महंगाई से तो सब त्रस्त थे अतः उनको तो सार्वजनिक सहयोग तो मिलना ही था.व्यक्तिगत रूप से जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध थे ,वे भी उनके साथ हो लिये,पर लोगों ने शायद ही यह सोचा हो कि इनके आंदोलन का भी वही हस्र क्यों नही हो सकता जो जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का हुआ था.

बाद की घटनाओं को देखते हुए मुझे अब लग रहा है कि कुछ लोग अवश्य इस दिशा में सक्रिय थे,क्योंकि उन्हें शायद लग रहा था कि जब तक कानून में संशोधन नहीं हो तब तक केवल सत्ता परिवर्तन कारगर नहीं होगा.मेरे विचरानुसार अन्ना हजारे का मंच पर अवतरण अचानक नहीं था और न यह कुछ हीं दिनों का प्लान था.यह बहुत सोच समझ कर तैयार की हुई योजना थी.पहले जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करना और फिर उसको लागू करवाने के लिये अन्ना हजारे को आगे बढाना यह एक योजना बद्ध कार्यक्रम का हिस्सा था.तुर्रा यह कि वे ही लोग जो बावा रामदेव के साथ पहली पंक्ति में दिख रहे थे अब अन्ना हजIरे के साथ भी दिखे,पर थोडा फेर बदल के साथ.तथाकथित सिविल सोसायटी के लोगों को शायद लग रहा था कि इस माहौल में बावा रामदेव की सफलता संदिग्ध है. अगर सफल हो भी गये तो परिणाम जेपी आंदोलन के बाद वाला भी तो हो सकताहै. उन्हें शायद लगा कि वर्तमान व्यवस्था में बावा रामदेव भी शायद ही कुछ कर पायें.ऐसे भी लोकपाल बिल तो हमेशा चर्चा में रहता हीं था.लोकपIलों की कहीं कहीं बहाली भी हुई थी,पर वे नख दंत विहिन पशु की तरह थे.जन लोकपाल बिलके मसौदे को सामने लाना और उसको कानूनी जामा पहनाने के लिये आंदोलन उस प़्रक्रिया को अमल में लाने केलिये था, जो भ्रष्टाचार पर अधिक से अधिक रोक लगा सके.यह तो तय हैकि वर्तमान व्यवस्था से लाभांवित होने वाला समुदाय यानि शासक वर्ग चाहे वह राजनीतिज्ञ हो या नौकर शाह कभी इसको कानूनी जामा पहनाने में सहयोग नहीं करेगा. अगर ऐसा होना होता तो इस तरह का लोकपाल बिल बहुत पहले आ गया होता.ऐसे यह तो एक तरह से इस दिशा में पहला कदम था.जन लोकपाल बिल राम बाण तो नहीं है,पर सही दिशा में उठाया गया कदम अवश्य है. पर यह भी पारित होगा कि नहीं यह भी तो अभी भविश्य के गर्भ में है.

यह तो हुआ जन लोकपाल बिल और फिर उसको लागू करने के लिये सत्याग्रह. पर उसके बाद जो हुआ या हो रहा है,वह हमारे असली चरित्र को दुनिया के समक्ष प्रस्तुत  कर रहा है.हम वास्तव में क्या हैं,यह जग जाहिर हो जाता है, सत्याग्रह के बाद के आरोपों प्रत्यारोपों में.इन सब में सच पूछिये तो हमारा राष्ट्रीय चरित्र सामने आा जाता है.यहाँ जो सबसे बडी बात उभर कर सामने आयी है,वह दर्शाती है कि हम अपनी नीचता का बखान करने में भी अपनी बहादुरी ही समझते हैं. मैं बेईमान हूँ तो अन्ना जी या उनके आस पास के लोग भी इमानदार नहीं हैं.मैं तो बेईमान हूं हीं,पर मैं यह प्रामाणित कर सकता हूँ  कि आपभी बेईमान हैं. जन लोक पाल बिल का मसौदा किसी खास व्यक्ति के लिये कुछ नहीं कहता और न उस  मसौदे को तैयार करने वाले उससे कुछ लाभ उठाने की स्थिति में हैं. क्या वे कमीटी में शामिल हो जायेंगे तो उनको कोई विशेषाधिकार प्राप्त हो जायेगा, जिसका जायज या नाजायज लाभ वे उस समय या बाद में उठा सकें? तो फिर उनको नीचा दिखाने के लिये इतना हो हल्ला क्यों?जन लोकपाल बिल के मार्ग में इतनी अडचने डालने का क्या अर्थ?क्यों हम एक से एक बढकर इस बात पर कम कि जन लोकपाल बिल से लाभ होगा कि नहीं,पर इस बात पर अधिक जोर दे रहे हैं कि जनलोकपाल बिल तैयार करने  का उनलोगों को कोई अधिकार ही नहीं,जो इस काम के लिये मनोनीत किये गये हैं.होना तो यह चIहिये था कि जन लोकपाल बिल के मसौदे के एक एक पहलु पर बिस्त्ऋत बहस होता.लोग अपने अपने ढंग से इस पर विचार प्रकट करते .मसौदा सबके सामने है और मेरे विचार से अभी उसमें खामियाँ भी हैं,जो हो सकता है कि कमिटी द़वारा दूर भी कर दी जाये,पर हम भी उस पर अपना विचार तो दे हीं सकते हैं और तब इसमे हमारी सकारात्मक भूमिका होती.जो लोग इसको और प्रभावशाली बनाने की दिशा में निर्देश दे सकतेहैं,उनको सामने आना चाहिये था. पर मेरे विचारानुसार लोग साधारण रूप से दो खेमों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं या यों कहिये कि साधारणतः दो खेमों में बँटे हुए हैं. एक खेमा तो यह प्रमाणित करने में लगा हुआ है कि जो लोग जन लोकपाल बिल तैयार करने वाली कमिटी में हैं,वे हमलोगों से कम बेईमान नहीं हैं.कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि बईमानी में मेरा और उनका करीब करीब बराबर का साझा है. दूसरा खेमा इस बात पर जोर दे रहा है कि जन लोकपाल बिल लोकपाल को सर्व शक्तिमान बना देगा.बाहर से तो दोनो खेमे अलग अलग दिखाई दे रहे हैं,पर तह में जाईयेगा तो पता चलेगा कि दोनो खेमों का उद़देश्य एक है और वह है,जन लोकपाल बिल को किसी तरह रोकना,पर ऐसा क्यो? तो फिर मैं उसी पुरानी बात पर आ जाता हूं कि हम जी रहे है सडन में,दुर्गंध में.मौत हमारी भी तो नहीं हो जायेगी जब हम बढेंगे स्वच्छता की ओर,सादगी और सत्यता की ओर.और तब मुझे कहना पडता है कि मेरे विचार से इस लेख का कोई अन्य शीर्षक हो ही नहीं सकता था.