विश्ववार्ता

कब तक चीन की चाटुकारिता करते रहेंगे हम ?

सिद्धार्थ मिश्र “स्‍वतंत्र”

भारत और चीन के रिश्‍ते अपने आरंभिक काल से बेहद जटिल रहे हैं । जिसकी एक वजह भारत की कूटनीतिक विफलता तो दूसरी वजह निश्चित तौर पर चीन की बहुआयामी कुटिलता ही है । इस विषय में सबसे हास्‍यापद बात तो ये है कि जब चीन साल दर साल की दर से भारत की जमीन कब्‍जाने में जुटा है इन परिस्थितियों में भी हमारे राजनेता कुटिल पड़ोसी की चाटुकारिता से बाज नहीं आ रहे हैं । भारत और चीन के बीच गहराते संकट के दौर में हमारे विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने हाल ही में बीजिंग का दौरा किया । उनके इस दौरे के अन्‍य नीहितार्थ तो समझ से परे हैं लेकिन एक बात अवश्‍य समझ आ गई वे बीजींग शहर से बहुत प्रभावित हुए है । जिसकी बानगी उनके बयानों में साफतौर पर दिखी । इसके पूर्व भी लद्दाख के इलाके में चीनी घुसपैठ के वक्‍त भी माननीय खुर्शीद साहब ने चीन की चाटुकारिता में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी । बड़े हैरत की बात है, ऐसे अल्‍पमति लोग आज भी अपने पदों पर काबिज कैसे हैं ? या सलमान साहब की किस योग्‍यता से प्रभावित होकर उन्‍हे विदेश मंत्र बनाया गया है ? इस विषय में सबसे अहम सवाल ये भी हो सकता है कि किस देश के विदेश मंत्री हैं सलमान खुर्शीद ?  यहां संशय इसलिए है कि क्‍योंकि उनके वाणी व्‍यायाम से तो ये स्‍पष्‍ट परिलक्षित होता है कि वो चीन की नीतियों के एक बड़े प्रशंसक हैं ।

बहरहाल कुछ वर्षों पूर्व भारतीय राजनीतिज्ञों ने भारत-चीन के बीच द्विपक्षीय व्‍यापार संबंध को संप्रभुता कायम रखने का सबसे कारगर उपाय बताया था । आज की तारीख में भारत  और चीन के बीच लगभग ७० अरब डालर का व्‍यापार हो रहा है जिसे २०१५ तक लगभग १०० अरब डालर तक पहुंचाने की कवायद की जा रही है । जहां तक इस कारोबार के परिणाम का प्रश्‍न है तो भारतीय नेता भले ही इसे भाईचारा बतायें,किंतु जहां तक नतीजों का प्रश्‍न है उनसे स्‍पष्‍ट हो जाता है कि कौन भाई बना और कौन बना चारा ? ये व्‍यापारिक संबंध हमारी सरकार की विफलता के सबसे जीवंत प्रमाण हैं । आंकड़ों के अनुसार भारत और चीन के बीच हो रहे व्‍यापार में भारत का बढ़ता घाटा । वर्ष२००२ में जहां भातर का व्‍यापार घाटा महज १ अरब डालर था वो आज बढ़कर ४० अरब डालर हो गया है । अब तो हद ही हो गई है एक ओर जब भारतीय बाजार चीनी उत्‍पादों के पटे जा रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर भारतीय कंपनियों को चीन से कोई विशेष सहूलियत नहीं प्राप्‍त हो रही है । गौरतलब है कि इस एकतरफा व्‍यापार से चीन का मुनाफा ज्‍यों ज्‍यों बढ़ता जा रहा है उसी अनुपात में उसकी कुटिलता में भी इजाफा हो रहा है । विगत एक महीने के अंदर चाहे भारतीय सीमा में बंकर बनाने की बात हो या सड़क चीन ने कभी भी कहीं भी भारतीय हितों की परवाह नहीं की है । अब आप ही सोचिये किस काम की है हमारी विदेश नीति जो प्रतिवर्ष  भारतीय सीमाओं को विवादित बना रही है ? अथवा क्‍या संबंधों के निर्वाह का एकतरफा ठेका सिर्फ  हमीं ने ले रखा है ? यदि नहीं तो क्‍या वजह है चीन के समक्ष हमारे दयनीय समर्पण की ?

विश्‍लेषकों के अनुसार भारत आज तक १९६२ की युद्ध की पराजय से उबर नहीं सका है ? इसी वजह से चीन आज भी भारत के लिए हौवा बना हुआ है । क्‍या वाकई ऐसा ही है ? ये तर्क कुछ हद तक जायज हो सकता है लेकिन पूर्णतया सत्‍य नहीं है । काबिलेगौर है कि १९६२ की पराजय हमारी सेनाओं की पराजय नहीं बल्कि हमारे नेताओं की विफलता थी । कुछ ऐसे ही हालात आज भी दिखाई रहे हैं । उस समय हमारे प्रथम प्रधानमंत्री चीन के प्रति व्‍यामोह पीड़ित थे,आज हमारे प्रधानमंत्री और विशेषकर विदेश मंत्री चीन के मोह में मरे जा रहे हैं । उनकी चीन यात्रा के निहीतार्थ अब भी सामने बाकी हैं । इस यात्रा के अर्थ समझ आयें इसके पूर्व ही चीन सिरी जैप इलाके में सड़क बनाकर अपने मंसूबे साफ कर दिये हैं । दूसरी ओर अपने स्‍वभाव अनुरूप हमारे नेता कभी घोटाले तो कभी वंदे मातरम का अपमान करते जा रहे हैं । क्‍या ऐसे तुच्‍छ मति नेताओं के हाथ राष्‍ट्रीय संप्रभुता संरक्षित है ? ये निर्विवाद सत्‍य है कि सैन्‍य क्षमताओं के लिहाज से भारत चीन से कहीं पीछे है ।जहां तक इसके कारणों का प्रश्‍न है स्‍पष्‍ट तौर पर रक्षा सौदों में दलाली और घोटाले इसके बड़े कारण हैं । इन सबके बावजूद भी अगर इस समस्‍या का दूसरा पहलू वियतनाम और जापान देखें तो पाएंगे कि असंभव कुछ भी नहीं है । चीन की कुदृष्टि के बावजूद भी इन देशों ने यदि अपनी संप्रभुता सुरक्षित रखी  है तो उसके पीछे की सबसे बड़ी वजह है इन राष्‍ट्रों के नेतृत्‍व कर्ताओं की चारित्रिक दृढ़ता । ऐसे में हमें चीन के साथ अपने संबंधों पर पुर्नविचार करने की आवश्‍यकता है । यदि आवश्‍यक हो तो युद्ध के लिए भी प्रतिक्षण तत्‍पर होना पड़ेगा ।इस सबके साथ ही साथ हमें अपने व्‍यापारिक संबंधों की पुर्नसमिक्षा कर चीन की बंदरबांट को सीधे तौर पर रोकना होगा । इन विषम परिस्थितियों में ये यक्ष प्रश्‍न अब भी अनुत्‍तरित है । कब तक चीन की चाटुकारिता  करते रहेंगे हम ?2