साक्षात्‍कार

जेएनयू को बंद कर देना चाहिये: श्रीकृष्ण सिंह 

 

बहुत ही शर्म की बात है कि हमारे विश्वविद्यालयों में ऐसा हो रहा है। छात्र देशभक्ती के बजाय देश विरोधी नारे लगाये यह उस कालेज के अध्यापको के लिये शर्म की बात है। आखिर उन्होने तालीम क्या दी। कैसे छात्र और कैसे अध्यापक रहे जो की इस मर्यादा को लांध गये। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय को अगर यही सबकुछ हो रहा है तो बंद कर देना चाहिये। क्योंकि नदी जब पानी खुद पीने लगे और पेड फल खुद खाने लगे तो उसका अंत ही बेहतर है। यह बात एक मुलाकात के दौरान दिल्ली के पहले प्रधानाचार्य श्रीकृष्ण सिंह ने कही ।

गुलामी के दौर में 6 सितम्बर 1932 में जन्में श्रीकृष्ण के बारे में बहुत कुछ कहने को है। उनका जन्म जन्माष्टमी के दिन पडा था इसलिये उनका नाम भी श्रीकृष्ण रखा गया। गांव घेवरा के एक जमीनदार घराने में जन्मे श्रीकृष्ण को शिक्षा उर्दू से मिडिल तक की शिक्षा गुलामी के दौर में रानीखेडा से मिली, उसके बाद नागलोई से जूनियर हाई स्कूल किया, कंझावला के हरियाणा सीनियर सेकेण्डरी स्कूल से आगे की पढाई की। उसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से 1953 में बीए व एमए पंजाब यूनिवर्सिटी से की।उस वक्त पढे लिखे लोग कम ही हुआ करते थे और चूंकि पाकिस्तान से आये लोग पंजाब में बस रहे थे । इसलिये शिक्षा की ओर ध्यान भी किसी का नही था। इसी दौर में श्रीकृष्ण सिंह ने दिन में नौकरी की और रात की शिफट में पढाई की। इसके बाद एक लाला के यहंा कैथल में मैनेजर की नौकरी की। किन्तु बाद में वह दिल्ली के कनाट प्लेस स्थित हनुमान मंदिर के पास आ गये। यहां उन्होने बीटी में टाप किया, और पहली बार सारी योग्यता वाला प्रधानाचार्य दिल्ली को मिली। इसके पहले पहचान के लोगों को ही दिल्ली में प्रधानाचार्य बनाने की प्रथा थी। वह प्रधानाचार्य से शिक्षा निदेशक बनने वाले पहले दिल्ली के नागरिक भी रहे।

श्रीकृष्ण सिंह के बारे में कहा जाता है कि उन्होने अपने इस शैक्षिक पेशे के चलते कभी परिवार पर घ्यान नही दिया। उनका मानना था कि जिस तरह हम हजारों बच्चों को साक्षर बना रहें है उसी तरह से कोई आयेगा और हमारे बच्चों को भी आगे ले जायेगा। उनके इस बात को तब बल मिला जब उनके बच्चों की जिम्मेदारी गांव वालों ने ली और हास्टल में उनके गुरू ने उन्हे उसी तरह से पढाया जिस तरह से उनके पिता अन्य बच्चों को पढाते है। श्रीकृष्ण सिंह की पारिवारिक पृष्ठ भूमि देखी जाय तो वह समपन्न परिवार से जरूर थे लेकिन उनके पिता अनपढ होने के बाद भी अपनी घाक जमा रखी थी। 1942 में जब आजाद हिन्द ग्राम में नेताजी की फौज बनी तो उस फौज का खाना श्रीकृष्ण सिंह के पिता के मार्फत जाता था। उन्होने कई बार इस दौरान अंग्रेजों से बीच बचाव भी किया। जेल भी गये लेकिन कभी किसी से कुछ नही मांगा। 1931 में जब उनके चाचा चैधरी जीत सिंह ने दिल्ली के सेंट स्टीफन कालेज से गोल्ड मेडेल प्राप्त किया तो उन्हें कालेज ने आगे की शिक्षा के लिये कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी भेजा इतना ही नही , आज भी सेट स्टीफन कालेज में किसी रूरल छात्र को उनके नाम पर स्कालरशिप दी जाती है जो कि डेढ लाख रूपये साल है और यह श्रीकृष्ण सिंह का परिवार हर साल देता है।

श्रीकृष्ण सिंह का मानना है कि शिक्षा का मौलिक स्वरूप् जो होना चाहिये था वह अब नही दिख रहा है मानो वह जीतने की वस्तु सा हो गया है। हर बच्चे पर दबाब है कि ज्यादा से ज्यादा अंक लाये , इसके लिये परिवार , मित्र या रिश्तेदार सभी दबाब बनाते है और उसे एक रन मशीन सा बना दिये है। कोई यह नही जानना चाहता कि आखिर उसकी इच्छा क्या है। क्या हम किसी बच्चे को अपनी इच्छा अनुसार परिवर्तित कर सकते है , यह इतना आसान होता तो बेटा , बाप में अंतर ही समाप्त हो जाता। इसलिये जो वह करने के लिये जा रहे है उस पर अपनी इच्छा न थोपे , इससे तो वह कभी कुछ नही कर पायेगा। जेएनयू इसी का परिणाम है।