मनमोहन मंत्रिमंडल विस्तार की सार्थकता ?

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monmohanफिर  हुआ  मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल का विस्तार । कुल आठ नए उम्रदराज  मंत्रियों  के शपथ ग्रहण  के  साथ यूपीए -२  सरकार  में अब 77 मंत्री हो गए हैं ।  कई दिनों  से इसके कयास  लगाये  जा रहे थे। जोड़ – तोड़ का सिलसिला चालू था ।  तारीख  तय होने के बाद इसके  बदले जाने की  आशंका  की  ख़बरें भी  आती रही । विभिन्न टीवी चैनेलों ने इन खबरों से लोगों को बाखबर भी रखा । इस बीच कांग्रेस को बिहार से जदयू-भाजपा गठबंधन टूटने की प्रत्याशित एवं उत्साहवर्धक खबर भी मिल गयी। भाजपा में नरेन्द्र मोदी पर चर्चा का बाजार भी काफी गर्म रहा । उत्तराखंड के लोग प्राकृतिक  विपदा  से जूझते  रहे ।

बहरहाल, चर्चा को केन्द्रीय  मंत्रिमंडल  विस्तार तक  ही सीमित रखें तो यह प्रश्न पूछना लाजिमी है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के ‘लोक’ को क्या मिला इस राजनीतिक कवायद से – सिर्फ दो  मंत्रियों के पद छोड़ने,  कुछ का विभाग बदले जाने, दो-चार नए वफादारों को मंत्री बनाने और इस  सब को अंजाम तक पहुँचाने  के लिए अपनायी  गयी  प्रक्रिया में आम करदाता का कई करोड़ रुपया  जाया  करने के अलावे ? मजे की बात है कि  इस  आयोजन पर करोड़ों का खर्च जिस  जनता के नाम किया गया ,  उनमें  तीन चौथाई से भी ज्यादा देश की जनता आज भी रोटी, कपड़ा, मकान के साथ साथ स्वास्थ्य , शिक्षा और रोजगार की समस्या से बुरी तरह परेशान है, बेहाल है – आजादी के साढ़े छह दशकों के बाद भी।

याद करिए, पिछले विस्तार प्रक्रिया के पश्चात् यही बातें नहीं कही गयी थी कि इससे सरकार की कार्यकुशलता बढ़ेगी, विकास को और गति प्रदान की जा सकेगी आदि, आदि । पर, क्या पिछले  कुछ  महीनों में ऐसा कुछ हुआ या, देश कुछ और बदहाल हुआ? तो फिर इस बार के इस प्रयास से क्या हासिल हो जायेगा ? क्या हम इतने बड़े-बड़े मंत्रिमंडल का बोझ

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