कविता कांच के टुकड़े June 10, 2013 / June 10, 2013 by विजय निकोर | 2 Comments on कांच के टुकड़े कांच के टूटने की आवाज़ बहुत बार सुनी थी, पर “वह” एक बार मेरे अन्दर जब चटाक से कुछ टूटा वह तुमको खो देने की आवाज़, वह कुछ और ही थी ! केवल एक चटक से इतने टुकड़े ? इतने महीन ? यूँ अटके रहे तब से कल्पना में मेरी, चुभते रहे हैं तुम्हारी हर याद में मुझे। अब हर सोच तुम्हारी वह कांच लिए, कुछ भी करूँ, […] Read more » poem by vijay nikor कांच के टुकड़े