समाज

हिंदुस्तानी से बढ़कर कुछ और भी हैं हम

-राखी रघुवंशी

जनगणना का मामला गंभीर होता जा रहा है। सबसे पहले यह मुद्दा उठा कि जातिवार जनगणना की जाए, ताकि मालूम पड़े कि भारत में किस जाति के कितने लोग रहते हैं तथा किसकी क्या हैसियत है? यह सवाल मुख्यत: पिछड़ावादी नेताओं ने उठाया, जिनमें विपक्ष और सत्ता दोनों दलों के सांसद थे। अब निश्चित हो गया है कि जनगणना में जातियों की गिनती भी की जाएगी। इसके साथ ही एक और विवाद शुरू हो गया है कि सिर्फ पिछड़ी जातियों की गणना की जाए या सभी जातियों की। चूंकि सरकारी नौकरी में आरक्षण एस.सी./एस.टी. के अलावा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए ही है, इसलिए कुछ विद्वान इस पर अड़े हैं कि यदि जनगणना में जाति को शामिल किया जाता है, तो सिर्फ पिछड़ी जातियों की संख्या जानना काफी है। बाकी की संख्या जानकर हम क्या करेंगे? यह एक अनावश्‍यक चीज है और इससे नुकसान हो सकता है। जातिवार जनगणना का आरक्षण से सीधा संबंध नहीं है। जनगणना से प्राप्त आंकड़े का उपयोग बहुत दृष्टियों से होता है। इसमें मोटे तौर पर सामाजिक आर्थिक हकीकत सामने आ जाती है। इन आंकड़ों के आधार पर पंचवर्षीय योजनाओं का प्रारूप प्राप्त होता है और विशेष क्षेत्र व समुदायों के लिए योजनाऐं बनाई जाती हैं। जनगणना से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग समाजशास्त्रीय और राजनीति विज्ञान के विश्‍लेषण के लिए भी किया जाता है, जो किसी देश की स्थिति को समझने के लिए अनिवार्य है। चूंकि भारत का समाज वर्गों से कहीं ज्यादा जातियों में बंटा हुआ है। इसलिए जनगणना के दायरे में जातियों को ले आना इस दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है कि देश के संसाधनों का वितरण किन जातियों के बीच कितना हुआ है।

जाहिर है इस प्रकार की जानकारियां समतामूलक समाज बनाने में मदद ही करेंगी। देश को इन जरूरी जानकारियां से वंचित करना का प्रयास प्रतिगामी कदम है। जातिवार जनगणना के विरोधियों का कहना है कि इससे जातिवाद बढेग़ा। इस बात में कितना दम है, इस बारे में हम अभी से पूर्वकल्पना नहीं कर सकते। ज्ञातव्य है कि भारत में आखिरी बार जाति-आधारित जनगणना, ब्रिटिश राज में सन् 1931 मे की गई थी। स्वतंत्र भारत के संविधान में जाति का उन्मूलन कर दिया गया और इसलिए बाद की जनगणनाओं में जाति को कोई स्थान नहीं दिया गया। जिस कसौटी पर इसे जांचा जा सकता है, वह यह है कि 1931 के बाद जातिवार जनगणना बंद कर देने के बाद जातिवाद घटा या बढ़ा? हर कोई यही उत्तर देगा कि जीवन के हर क्षेत्र में कहीं न कहीं जातिवाद बढ़ा ही है और राजनीति में सबसे ज्यादा। हमारे समाज में जातिगत उंच-नीच और विभाजन लंबे समय तक बना रहने वाला है।

हम शुतुरमुर्गों की तरह, अपने सिर ऐसे गैर-यथार्थवादी आदर्शों की रेत में छुपा सकते हैं। जिन आदर्शों की हम रात दिन अवहेलना करते हैं, लेकिन इससे कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि हमारी संस्कृति ही जाति की संस्कृति है और इसे हमारी सामूहिक सोच, सामाजिक प्रतिष्ठा के हमारे मानदंड लेकिन उससे बढ़कर हमारी राजनीति उसे और मजबूत बना रही है। हमारे संविधान द्वारा जाति व्यवस्था को खारिज कर दिए जाने के बावजूद, पिछले साठ सालों में हमारी सरकारों ने एक भी ठोस कदम नहीं उठाया। बेशक इन अस्सी सालों में जातिवाद को चुनौती भी मिली है। इसका कारण शिक्षा का विस्तार, आधुनिक चेतना का उदय तथा पिछड़े समूहों की आय और सामाजिक स्तर का बढ़ना है। जातिवाद की भावना को कम करने वाले ये कारक भविष्य में कमज़ोर ही होते जा रहे हैं। इसलिए ऐसा नहीं लगता की जातिवार जनगणना से आधुनिकता का यह तत्व कहीं से कमज़ोर होगा। अगर जातिवाद बढ़ता भी है तो इस सच्चाई से मुंह चुराने से क्या फायदा कि जाति हमारी मानसिक और सामाजिक संरचना का मजबूत फैक्टर है? अगर भारत को जातियों के गणतंत्र में ही तबदील होना है, तो जनगणना का आधार चाहे जो निष्चित कीजिए, यह प्रक्रिया पहले से ही चालू है। इसे रोकने के लिए जाति तोड़ने का जो आंदोलन चालने की जरूरत है, उसमें किसी भी दल या समूह की गंभीर तो क्या साधारण दिलचस्पी दिखाई भी नहीं देती।

दिलचस्प यह है कि जो दो-तीन छोटे-छोटे समूह जातिवार जनगणना का विरोध कर रहे हैं, उनमें अधिकांश सदस्य सवर्ण हैं। सभी जातियों की वास्तविक संख्या सामने आ जाए, यह बात सवर्णों को चुभ क्यों रही है? इसका एक उत्तर यह भी है कि वे इस तथ्य को सांख्यिकीय आधार पर प्रगट होने से इसलिए डर रहे हैं कि देश के अधिकांश संसाधनों पर अभी भी कुछ र्सवण समूहों का ही कब्जा है। राजनीति में दलित और पिछड़ावाद आ गया है, लेकिन राष्ट्रीय संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण तक इनकी धमक नहीं पहुंच पाई है। दलित और पिछड़ावादी नेतृत्व राजनीतिक सफलता पाकर ही संतुष्ट या प्रसन्न है, उसे इस बात की फ्रिक नहीं है कि संसाधनों के वितरण का आधार समता व न्याय हो। लेकिन यह कोशिश सवर्ण नेतृतव ने भी नहीं की है। इसलिए जहां तक भारतीय संविधान के मूल लक्ष्य प्राप्त करने का सवाल है – सवर्ण, पिछड़ा और दलित, तीनों श्रेणियों का नेतृत्व एक जैसा अपराधी है।

हमारी राजनैतिक संस्कृति हमारे सामाजिक विरोधाभासों को बढ़ा रही है। हम समानता पर आधारित समाज की रचना करना चाहते हैं परंतु जाति प्रथा इसके आड़े आ रही है। बिडंवना यह है कि समानता पर आधारित समाज के निर्माण के लिए भी हमें जाति व्यवस्था के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा, क्योंकि तभी हम पिछड़ी जातियों को अगड़ों के समकक्ष ला सकेंगे और इसके लिए पिछड़ों की जनसंख्या का पता लगाना जरूरी है। इस तरह, हम एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में फंस गए हैं। समानता पर आधारित समाज तभी बन सकता है, जब जाति प्रथा समाप्त हो जाए। समस्या यह है कि जब तक हम पिछड़ी जातियों के साथ न्याय नहीं कर सकते, उन्हें आरक्षण आदि के जरिए आगे बढ़ने में मदद कर नहीं सकते, तक समतामूल समाज की के बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती। अगर हमें अपने समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता को कम करना है और पिछड़ी जातियों की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना है तो उनके लिए विशेष नीतियां बनाना, विशेष प्रावधान करना आवश्‍यक है। इसके अलावा हमारे सामने कोई रास्ता नहीं है। जाति आधारित संस्क़ृति लंबे समय तक हमारे समाज में बनी रहेगी। हालांकि जाति प्रथा समाज में असामानता का कारक है तथापि उसकी मदद के बगैर हम समानता नहीं ला सकते।

पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक मुखर समूह प्रचारित कर रहा है कि हम जनगणना में अपनी जाति हिंदुस्तानी बताएं। यह सुनने में अच्छी, पर विचित्र किस्म की मांग है। अगर सबकी एक ही जाति है – हिंदुस्तानी, तो हम धर्म के स्तर पर अपने को हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, वौध्द, जैन आदि क्यों लिखवाएं? यह दावा क्यों न करें कि सभी का एक ही धर्म है – मानव धर्म? इसी तरह, छोटा किसान, बड़ा किसान क्या होता है? सभी बस किसान हैं। यहां तक की खेत मजदूर भी किसान है, क्योंकि किसानी का वास्तविक काम तो वही करते हैं। हम सभी हिंदुस्तानी हैं, यह सच है। लेकिन सच यह भी है कि हमारा हिंदुस्तान विभिन्न धर्मों, जातियों, वर्गों, पेशों, राज्यों में बंटा हुआ है। यह सही है कि धर्म-निरपेक्ष प्रजातंत्र में जाति के लिए कोई स्थान नहीं है और भारत में जाति प्रथा का उन्मूलन आवष्यक है। हमारे संविधान निर्माताओं ने जाति को संविधान में कोई स्थान न देकर ठीक किया। लेकिन यथार्थ तो इसे ठीक विपरीत है। ज़मीनी हकीकत यह है कि हमारा समाज अनेक वर्गों और श्रेणियों में बंटा हुआ है। यह देश अनेक सांस्कृतियों और धर्मों वाला देश है। इस यथार्थ से हमारा कहीं न कहीं हमेषा सामना होता है। इस सामाजिक विभाजन और उंच-नीच में जरा भी कमी नहीं आई है। हालांकि बढ़ जरूर रहा है। इस हकीकत को समझे और उसके पूरे यथार्थ को सामने लाए बिना न हिंदुस्तान को समझा जा सकता है न ही हिंदुस्तानियों को। इसलिए जनगणना के समय अपने को हिंदुस्तानी बताने का आग्रह वास्तव में हिन्दुस्तान का बहुस्तरीय यथार्थ ढकने की कोशिश है। इसके पीछे कोई सत प्रयोजन नहीं हो सकता। हिंदुस्तान को बेहतर ढंग से समझने के बाद ही हम सच्चे हिंदुस्तानी बन सकते हैं, उसके बगैर नहीं।