राजनीति

अरविन्द केजरीवाल का विरोध आखिर क्यों?

 विकास कुमार गुप्ता

arvind-kejriwalदेश में भ्रष्टाचार, चमचागीरी, सत्ताई दलाली, चारणभाटी अब कुछ लोगों के लिए रोजी रोटी बन चुका हैं। और यह सत्य है कि कोई भी सब कुछ बर्दाश्त कर सकता है लेकिन रोजी रोटी पर लात पड़े तो वह कतई बर्दाश्त नहीं करेगा। आज घूसखोरी, कमीशन कुछ लोगों के लिए रोजगार बन चुका है। थाने, सरकारी दफ्तर और अन्यत्र सभी जगह भ्रष्टाचार के कीड़े भर चुके हैं। आजादी पश्चात् ब्रिटिश इंडिया के लोकसेवक आजाद इंडिया में लोक सेवक बनते हैं और अंग्रेजी व्यवस्था इंडियन व्यवस्था के नाम से आज भी उसी तेवर में चलती ही आ रही हैं। एक समय आम आदमी सरकारी दफ्तर से उतना ही दूर था जितना अंग्रेजों के कार्यक्रमों से इंडियन और कुत्ते। आजादी आयी इंडियन तो अलाउ कर दिये गये क्योंकि इनके हाथों सत्ता आ चुकी थी लेकिन पालतु कुत्तों से भी बद्तर जिन्दगी झोपड़पट्टों में बसर कर रही आम जनता और शासन सत्ता से दूर साधारण जनता सरकारी दफ्तरों से दूर रही। आम जनता के लिए सरकारी लोग साहेब ही बने रहें। सिपाही जी, दरोगा साहेब, एसपी साहेब, क्लेक्टर साहेब से लेकर बहुतेरे साहबों को डर के मारे जनता उतनी ही मान सम्मान देती रही जितना अंग्रेजी शासन में दिया जाता था। देश के अनपढ़ और कम पढ़े लिखे लोगों को यह बताने वाला कोई नहीं था कि देश के डीएम, एसपी, दरोगा, सरकारी लोग आदि आम जनता के नौकर हैं। लोक सेवक हैं। इनके घर की रोटी आम जनता के खून पसीने से जमा किये गये टैक्स और सरकारी भुगतान से बनती हैं और जनता को अधिकार हैं इनसे सवाल करने और जवाब पाने का। फिर भारतीय व्यवस्था से एक आदमी निकलता हैं जो आज आम आदमी के लिए ‘आप’ की लड़ाई दिल्ली से आम जनता के बल पर लड़ रहा हैं। एक तरफ देश के सत्तासीन और सत्तासीन रह चुकी पार्टियां और इनके रंग में रंगी पूरी फौज हैं तो दूसरी तरफ यह शख्स हैं जिसपर पूरा देश नजरे गड़ाये है। जिसने आम जनता को आरटीआई एक्ट 2005 उपलब्ध कराने में अहम भूमिका निभायी। जिसने कभी कांग्रेस को मुकेश अंबानी की दुकान कहा। जिसने कुछ चोटी के लोगों और पार्टियों पर निशाना साधा। जो आज आम जनता को लेकर आशान्वित हैं कि जनता उसे एक बार सेवा का मौका दें।

आजादी दिवस के ठीक एक दिन बाद 16 अगस्त 1968 को हरियाणा के हिसार में जन्में अरविन्द केजरीवाल को लेकर आज पूरे देश समेत अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी इनके दिल्ली चुनावी प्रदर्शन को लेकर आखें गड़ाये हुये है। 1989 में आई.आई.टी. खड़गपुर से इंजीनियरिंग करने के बाद 1992 में केजरीवाल आइ.आर.एस. सेवा में आये और इनकी नियुक्ति दिल्ली में आयकर आयुक्त कार्यालय में हुई। फिर सेवा के दौरान पारदर्शिता की कमी और भ्रष्टाचार को लेकर सेवा में रहते हुए जंग शुरु किया। 2000 में सेवा से विश्राम लेकर एक नागरिक आन्दोलन परिवर्तन की स्थापना की और 2006 आते आते केजरीवाल ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। केजरीवाल को 2004 में अशोक फैलों, 2005 में सत्येन्द्र दूबे मेमोरियल अवार्ड, 2006 में रैमन मैगसेसे अवार्ड एवं लोक सेवा में सीएनएन आईबीएन इंडियन ऑफ द इयर पुरस्कार एवं 2009 में विशिष्ट पूर्व छात्र पुरस्कार आईआईटी खड़गपुर द्वारा दिया गया। 2 अक्टॅूबर 2012 को आन्दोलन के मंच से अरविन्द केजरीवाल ने राजनीति में आने की जबसे घोषणा की तबसे उनका छिटपुट विरोध शुरु हुआ। शुरु में मुख्य धारा की पार्टियों को लगा कि केजरीवाल के राजनीतिक गुब्बारे की हवा जल्द ही निकल जायेगी लेकिन वह गुब्बारा पिचकने के बजाय फुलता ही गया और वह अब इतना बड़ा हो गया है कि बड़ी पार्टियों को भी अपने घेरे में ले चुका हैं। फिर क्या राजनीति के गलियारें में अरविन्द विरोधी हवा बहनी शुरू हो गयी है। दिल्ली में 4 दिसम्बर से चुनाव होने जा रहे है और लगभग जनमत सर्वेक्षेणों में अरविन्द केजरीवाल अन्य पार्टियों को पछाड़ते नजर आ रहे हैं और यही वजह है कि अन्य पार्टिया भी भय में आने लगी हैं। पार्टियां ही नहीं वरन् लेखक भी चुनावी रणभेरी में अपने कलम से अरविन्द पर निशाना साधने में लगे हैं। देश के कुछ लेखक तो सभी मार्यादाओं को ताक पर रखकर अरविन्द केजरीवाल के विरोध में अपने कलम घीसने में लगे हुये है। सनातन सनातनी नेता, लेखक एवं कांग्रेस आदि अरविन्द केजरीवाल पर वार कर रहे हैं। यह वार आखिर क्यो हो रहा हैं? आखिर कौन सा तत्व केजरीवाल में समाहित हो गया है कि अब ये अविश्वासी हो गये है? वह तत्व है सत्ता की चाभी। सत्तासीन लोग, देश के भ्रष्टाचार में लिप्त लोग, कालेधन के पुरोधा आदि कतई नहीं चाहते की प्रोटोकॉल के खेल वाली सत्ता की चाभी ऐसे शख्स के हाथ में पहुंचे जिसके निशाने पर ये लोग स्वयं हैं।

एक फिल्म आयी थी रोटी जिसमें किशोर कुमार का गाया हुआ एक गाना बहुत प्रचलित हुआ था जिसकों अक्सर सर्वहारा के आन्दोलनों में बजाया जाता है। ‘ये बाबू ये पब्लिक है पब्लिक। ये पब्लिक है ये सब जानती है पब्लिक है।’ अरविन्द केजरीवाल की जीत होती है अथवा हार यह तो समय बतायेगा लेकिन यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि अगर केजरीवाल आते हैं समूचा वैश्विक लोकतंत्र इनका साक्षी होगा।