कांग्रेस की दिल्ली रैली के निहितार्थ

सुरेश हिन्दुस्थानी

rahul rallyदेश के पांच राज्यों में जिस प्रकार से ताबड़तोड़ चुनाव प्रचार चल रहा है, उसमें हो रही चुनावी सभाओं में भीड़ कहीं कम तो कहीं ज्यादा आ रही है। जब चुनावी सभा में ज्यादा भीड़ आती है तो जिस दल की सभा होती है, उस दल के कार्यकर्ता समझने लगते हैं कि यह सब हमारे दल के मतदाता बन गए हैं और यह भ्रम हो जाता है कि अब सरकार उनकी ही बनने वाली है। इसके विपरीत जब भीड़ अपेक्षा से बहुत कम रहती है तो उस दल के नेताओं को पसीना छूटने लगता है। हम जानते हैं कि भारत में जन इच्छा ही सर्वोपरि मानी जाती है और लोकतंत्र की परिभाषा भी यही प्रतिपादित करती है। जब भीड़ कम होती है तब इसे जनता की इच्छा ही मानना चाहिए, लेकिन हमारे राजनेता इस सत्य को स्वीकार करने का साहस कदापि नहीं कर पाते। राजनीतिक दलों के नेता इसमें भी किन्तु परन्तु तलाशने लगते हैं।

दिल्ली के दक्षिणपुरी में हुई कांग्रेस की एक रैली में कुछ इसी प्रकार का दृश्य दिखाई दिया। जिसमें कांग्रेस के सितारा प्रचारक राहुल गांधी का भाषण होना था। कहते हैं कि इस सभा में जब राहुल गांधी बोलने खड़े हुए तब जनता अचानक सभा स्थल से जाने लगी। हालांकि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने इस अपमान से बचने के लिए प्रयास करते हुए जनता से आहवान किया कि जनता रुक जाए, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। इस रैली में राहुल का भाषण किसने सुना होगा, जब जनता ही नहीं रुकी। दिल्ली की इस रैली से कांग्रेस के बारे जो समाचार माध्यमों में लिखा गया, उसके निहितार्थ कांग्रेस तो तलाश कर रही होगी, साथ ही राजनीतिक विश्लेषक ही अर्थ ढूंढ रहे होंगे। शीला दीक्षित ने तो यह भी कहा कि ऐसा हर रैली और सभा में होता आया है कि लोग खाने पीने चले जाते हैं और फिर वापस भी आ जाते हैं। शीला को यह भी पता होना चाहिए कि वे जाने के बाद फिर वापस नहीं आए।

कांग्रेस की इस रैली के असफल होने के पीछे क्या कारण रहे होंगे, फिलहाल तो कहा नहीं जा सकता लेकिन इससे एक बात तो साफ है कि या तो दिल्ली का आम मतदाता बहुत समझदार है या नासमझ। नासमझ इसलिए कहा जा सकता है कि इतने बड़े नेता राहुल गांधी की सभा से उठकर जाने की उनकी हिम्मत कैसे हुई, संभवत: आम जनता को मालूम नहीं था कि राहुल गांधी कांग्रेस के युवराज हैं, और कांग्रेस की ओर से उनको प्रधानमंत्री बनाने की तैयारी भी हो चुकी है। हालांकि इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि कांग्रेस में अन्य कई नेता इतने तो योग्य हैं ही कि वे आम जनता के बीच भाषणबाजी कर सकें। कांग्रेस की इस सभा को लेकर सवाल यह भी खड़ हो रहे हैं कि क्या वे कांग्रेस के कार्यकर्ता थे या कांग्रेस के मतदाता, सभा से उनका चले जाना शायद यह तो जाहिर कर ही देता है कि ना तो वे कांग्रेस के कार्यकर्ता थे और न ही कांग्रेस के मतदाता, अगर कांग्रेस के प्रति जरा सा भी झुकाव होता तो वे रुक जाते, पर ऐसा लगता है कि इस भीड़ को स्थानीय नेता अपने अपने प्रबंधन से लेकर आए थे, अगर इस प्रकार से आते तो भी रुकते। दिल्ली की आमसभा में जो जनता आई वह महज तामाशाई भीड़ कही जा सकती है, क्योंकि इसे किसी नेता का करिश्मा या किसी पार्टी के प्रति के तौर पर कतई नहीं देखा जा सकता। इससे सवाल तो यह भी पैदा होता है कि क्या राहुल का जादू खत्म हो गया है, वैसे इस बात का जवाब तो कई बार मिल चुका है। उत्तरप्रदेश और बिहार इसके सटीक उदाहरण हैं, इन राज्यों में जिस प्रकार से राहुल गांधी ने मेहनत की थी वह किसी से छिपी नहीं हैं, चांदी के बर्तनों में खाने वाले ने उत्तरप्रदेश में गरीब की थाली का खाना खाया, यह बात और है कि वह खाना कहीं और से बनकर आया था और सुरक्षा दस्ते की निगरानी में रहा। इसे नौटंकी नहीं तो और क्या कहा जाएगा। उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणामों ने कांगे्रस की क्या तस्वीर दिखाई यह सबने देखा। इसी प्रकार दिल्ली में कांगे्रस की संभावनाओं को झटका लगा है।

राहुल की इस सभा के बाद कहा तो यह भी जा रहा है कि अब दिल्ली में राहुल गांधी की कोई सभा भी न हो, कांग्रेस बिरादरी के नेताओं के जिस प्रकार के स्वर उभरे हैं वह तो इसी प्रकार का संकेत करते हैं। कई कांग्रेसी नेता अब दिल्ली में राहुल की सभा नहीं चाहते, उनको आशंका है कि कहीं सभा की हालत वैसी ही न हो जाए जैसी दक्षिणपुरी की सभा की हुई, कांग्रेसी मानते हैं कि अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस के लिए हालात और खराब हो जाएंगे। वैसे यह बात सत्य है कि राहुल गांधी जब बोलते हैं, तब ऐसा लगता है कि वे नेता की भूमिका का बाल अभिनय कर रहे हैं। भाषण के दौरान उनका हाथ उठाना स्वाभाविक प्रतीत नहीं होता, किसी रिमोट द्वारा संचालित किया गया लगता है।

राहुल की सभा का बार बार असफल होना क्या कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है, यकीनन यह सत्य भी हो सकता है क्योंकि आज तक कांग्रेस के किसी भी नेता ने जनता की परेशानी का अपने भाषणों में जिक्र तक नहीं किया। पूरा देश महंगाई के बोझ तले दबा है, केन्द्र में जमकर भ्रष्टाचार है। ऐसे सभी मुद्दे वर्तमान में कांग्रेस के भाषणों से गायब हैं। कांग्रेस के सभी भाषण ऐसे लगते हैं कि वह केवल विरोध करने के लिए विरोध करते हैं, उनमें सत्यता का जरा सा भी पुट नहीं रहता। एक लाइन में कहा जाए तो यह कहना तर्क संगत ही होगा कि कांग्रेस आज आज केवल और केवल सत्ता प्राप्ति के लिए छटपटा रही है, वे बिना सत्ता के जीवित ही नहीं रह सकते। मध्यप्रदेश के चुनाव में कांग्रेस का प्रचार कुछ इसी तर्ज पर चल रहा है, कैसे भी हो सत्ता प्राप्त करना एक मात्र उद्देश्य है।

भाजपा और कांग्रेस की बात की जाए तो कांग्रेस पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव को नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी बनाने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन जिस प्रकार से मोदी की सभाओं में भीड़ उमड़ रही है, उसी प्रकार से राहुल की सभाओं में भी भीड़ पर्याप्त नहीं रहती। ऐसे में कांग्रेस के उस दावे की हवा निकलती दिखाई दे रही है, जिसमें कांग्रेस राहुल को मोदी के समकक्ष खड़ा करने की कोशिश में प्रयत्न कर रही थी। आगामी लोकसभा चुनाव कांग्रेस राहुल को आगे करके ही लड़ेगी, यह तय सा लगने लगा है, लेकिन जिस प्रकार से राहुल का प्रभाव क्षीण होता जा रहा है, उससे कांग्रेसियों के होश उडऩे लगे हैं।

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