राजनीति

जम्मू से गिलगित-बल्टिस्तान तक फैली रियासत की निगाहें रहेंगी मोदी के दौरे पर

संविधान से सरहद तक के सवालों पर क्या बोलेंगे भाजपा के महारथी मोदी ? 

वीरेन्द्र सिंह चौहान

narendra-modiप्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर इन दिनों सारी दुनिया कर निगाहें टिकी हैं। देश से बाहर वे टाइम्स मैगजीन के पर्सन ऑफ दि इयर की दौड़ में भी अग्रणी हैं तो मध्य एशिया के अल जजीरा मीडिया समूह में भी चर्चित हैं। देश में विरोधी हों या चाहने वाले सब मोदी को चौकन्ने होकर सुनते हैं। उनके दीवाने उनके अल्फाजों और जुमलों से ऊर्जा पाते हैं तो मोदी विरोधी उनके भाषणों के एक एक शब्द को इसलिए ध्यान से सुनते हैं कि कहीं मोदी चूकें तो उन्हें मीडिया में मोदी के खिलाफ चौके-छक्के लगाने का मौका मिले।

मगर ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी को लेकर चौकन्नेपन के पौमाने पर सबसे ज्यादा नंबर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को देने होंगे। नरेंद्र मोदी एक दिसंबर को जम्‍मू आने वाले हैं और उमर की बेचैनी देखिए कि उन्होंने सप्ताह भर पहले ही मोदी के भाषण के संभावित स्क्रिप्ट सार्वजनिक कर दी। जम्मू जिले के एक गांव में तवी नदी पर एक पुल की आधारशिला रखते हुए उमर ने लोगों को बताया कि मोदी आएंगे तो संविधान के अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को समाप्त करने की बात करेंगे, ज6मू और कश्मीर घाटी के बीच भेदभाव की बात करेंगे और पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर फारूख अब्दुल्ला तक नेताओं की कतार को रियासत के मौजूदा हालात के लिए कोसा जाएगा।

मोदी की जम्मू रैली को लेकर उमर की व्यग्रता स्वाभाविक है। मगर हमारा मानना है कि उमर से कहीं अधिक गौर से मोदी को पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलने वाले अलगाववादी सुनेंगे। पाकिस्तान परस्त तत्व जिनकी मोदी-ब्रांड सियासत के उभार के कारण घिग्घी बंधी हुई है,उन्हें भी मोदी को सांसे थाम कर सुनना होगा। सरहद के पार उनके आकांओं की धड़कनें भी इस दौरान तेज रहनी स्वाभाविक हैं चूंकि मोदी आतंक और पाकिस्तान के साथ निबटने के मामले में जिस शैली में बोलते रहे हैं, उसके कारण वे तमाम इस्लामिक आतंकी गुटों के राडार पर हैं।

खैर, अलगाव के अलाव को धीमे-धीमे सुलगाने वाले उमर अब्दुल्ला हों, पाकिस्तानी बिरयानी खाकर भारत को कोसने वाले मीरवायज मौलवी उमर फारूख हों, बंदूक के दम पर दिल्ली को सबक सिखाने का दम भरने वाले हुर्रियत वाले गिलानी हों या फिर सरहद पार के दो शरीफ(प्रधानमंत्री नवाज और उनके सेनापति राहिल),नरेंद्र मोदी इनके लिए क्या संदेश देते हैं, इस पर भी सब का ध्यान रहेगा। संभव है कि खबरिया चैनलों के एजेंडे पर भी एकाध दिन के लिए ही सही , जम्मू -कश्मीर आ ही जाए। मगर क्या जम्मू कश्मीर में असल और अधूरे एजेंडे पर मोदी की नजर जाएगी या नहीं, यह भी देखना होगा ?

बीते एक बरस के दौरान यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और खुद कांग्रेस के युवराज और प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल गांधी भी रियासत के दौरे पर आए। विशेषज्ञों को हर बार यूं ही लगता था कि दिल्ली से पधारने वाले देश के बड़े नेताओं का ध्यान रियासत के भारत-प्रेमी नागरिकों की ओर जाएगा। हमारा अभिप्राय उन लोगों से है जो देश के संविधान में आस्था रखते हैं, तिरंगा थामने और फहराने में जिन्हें गर्व की अनुभूति होती है और जिनके लिए भारत जमीन का टुकड़ा नहीं भारत-माता है। मगर हर बार अंतत: यह साबित हुआ कि दिल्ली भारत को गोली और गाली देने वालों को लुभाने-रिझाने में अधिक रूचि लेती है। इस प्रक्रिया में उसकी स्थिति दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम वाली हो जाती है।

दिल्ली के मौजूदा हुकमरान हों या वे जिनकी तमन्ना आने वाले दिनों में लाल-किले पर तिरंगा फहराने की है, सब को यह तय करना होगा कि वे पहले उनकी परवाह करें जो हर हाल में भारत माता की जय बोलते आए हैं। कश्मीर घाटी के कुछ मोहल्लों तक सिमटे अलगाववादियों से निपटने की बात भी होनी चाहिए मगर पहले लद्दाख और ज6मू के उन भारतवंशियों और भारत-प्रेमियों की संभाल की जाए जिनकी अब तक घनघोर उपेक्षा हुई है। कहना न होगा कि जम्मू -कश्मीर का दिल्ली दरबार में चलने वाला सियासी विमर्श अब तक घाटी केंद्रित रहा है। मोदी और उनकी टीम को इस विमर्श के केंद्र को बदलना होगा और उनकी जम्मू रैली इसकी शुरूआत का बेहतरीन अवसर साबित हो सकती है।

राम जाने नरेंद्र मोदी और उनके सिपहसालारों को खबर है या नहीं मगर ज6मू की पीड़ा महज यहां के मूल निवासियों की श्रीनगर केंद्रित सियासत के हाथों उपेक्षा तक सीमित नहीं। जम्मू क्षेत्र में थोड़े-बहुत नहीं बल्कि करीब सत्रह लाख ऐसे नागरिक बसे हैं जिन्हें शरणार्थी या विस्थापित कहा जाता है। सन सैंतालिस में देश के बंटवारे से लेकर अस्सी के दशक में घाटी में हिंदू विस्थापन की विभीषिका तक और इस बीच पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों में अपने घरों से बेघर हुए भारतीय नागरिकों को यह इलाका अपने यहां शरण दिए हुए हैं।

विस्थापितों की आबादी के घनत्व को देखें तो जम्मू को एशिया में विस्थापितों को राजधानी कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। इनमें घाटी से बेरहमी के साथ निकाल बाहर किए गए हिंदू ही नहीं, बल्कि पश्चिमी पाकिस्तान से विभाजन के समय इस प्रदेश को अपना भारत-देश मान कर यहां आ बसे करीब दो लाख नागरिक भी शुमार हैं। पश्चिमी पाकिस्तान से आए इन बेचारों को आज तक विधान सभा व पंचायतों का चुनाव लडऩा तो दूर वोट डालने तक का हक हासिल नहीं। इनके बच्चे सरकारी संस्थानों में शिक्षा के हक से ही वंचित हैं फिर नौकरी तो इन्हें भला कौन देगा। इसी क्रम में मीरपुर-मुजफराबाद (गुलाम कश्मीर)इलाके से आकर बसे करीब बारह लाख विस्थापित हैं। सरकार ने इनका स्थायी पुनर्वास यह कह कर नहीं किया कि एक न एक दिन पाकिस्तान के कब्जे से इनके इलाके छुड़ाएंगे और तब इन्हें वहां बसाया जाएगा। इन विस्थापितों के प्रति श्रीनगर और दिल्ली की सरकारों की संवेदनशून्य सोच का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि आज तक इनका पंजीकरण तक करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई। देखना होगा कि मोदी इन भारत-भक्तों के लिए क्या कहते हैं?

नरेंद्र मोदी जब जम्मू में गरजेंगे तो इस बात पर भी विश्लेषकों की नजर रहेगी कि तिरंगे के मान-स6मान की चौकीदारी की चाह रखने वाले इस शख्स की हुंकार केवल ज6मू के हकों के सवाल तक सीमित होकर तो न रह जाएगी। गुलाम कश्मीर सहित समूचा पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर नापाक पड़ौसी के चंगुल से छुड़वाना है, संसद का यह संकल्प भी इस रोज देश-दुनिया को याद कराना होगा। गिलगित-बल्टिस्तान के परे तक तिरंगा फहरे यह किसी एक दल का नहीं अपितु देश का एजेंडा और संकल्प है। इसे बारंबार नहीं दोहराया गया तो नई पीढ़ी देश की असली सरहदों को भूल जाएगी। दुर्भाग्य से दिल्ली बीते कई सालों से इस सवाल पर एक रहस्यमयी चुप्पी साधे हुए है, जिससे अक्सर इस बात की आशंका होती है कि कहीं न कहीं कुछ ऐसा तो नहीं पक रहा जो देश, संसद और संविधान की मूल भावना और प्रावधानों के प्रतिकूल है।

और हां, अंत में कम से कम देश का नौजवान सुनना चाहेगा भारतीय संविधान के अनुच्छेद तीन सौ सत्तर पर नरेंद्र मोदी क्या कहते है? ध्यान रहे कि संविधान का यह ऐसा प्रावधान है जिसे अस्थायी तौर पर संविधान में शामिल किया गया था। इसे समय के साथ समाप्त होना था। मगर दिल्ली की कमजोरी के कारण आज तक इसे हटाया नहीं जा सका है। इसके कारण जम्मू कश्मीर में बसे भारतीय नागरिक आज भी भारतीय संविधान द्वारा शेष भारत के लोगों को दिए गए कई अधिकारों से वंचित हैं। अनेक जनहितकारी संवैधानिक प्रावधान इस अड़चन के कारण जम्मू कश्मीर में लागू नहीं हैं। राजीव गांधी के सपनों का कानून कहलाने वाला पंचायती राज संबंधी संवैधानिक संशोधन इनमें से एक है। अनुच्छेद तीन सौ सत्‍तर को लेकर नरेंद्र मोदी के बोल उमर अब्दुल्ला दुल्ला से लेकर गिलानी और सरहद पार नवाज शरीफ तक कान लगा कर सुनेंगे।

लेखक जम्मू कश्मीर मामलों के अध्येता हैं।