कविता

सहजीवन

30पत्नी नहीं है वह

पर

स्वेछा से करती है

अपना सर्वस्व न्यौछावर

 

 

एक अपार्टमेन्ट की बीसवीं मंजिल पर

है उनका एक छोटा सा आशियाना

घर को सुंदर रखने के लिए

रहती है वह

हर पल संघर्षरत 

 

पुरुष मित्र के लिए

नदी

बन जाती है वह

और समेट लेती है अपने अंदर

उसके सारे दु:ख – दर्द

 

 

घर से बहुत दुर है वह

फिर भी

एकाकीपन से नहीं है खौफ़ज़दा

पुरुष मित्र, कम्प्यूटर और कैरियर में

तलाशती रहती है

अपने जीवन की खुशी

 

 

उसका मकसद है

अपने पसंदीदा

जीवन साथी की तलाश

ताकि दु:ख का साया

उसे छू तक न सके

 

 

 

 

घड़ी की सूई

फिसल रही है

आगे की ओर

 

 

हर दुल्हन में

देख रही है

वह अपनी छवि

 

 

पर अतृप्त कुंवारी कामना

हर बार रह जाती है अतृप्त

 

 

दिल में है हाहाकार

पर होठों पर है हंसी।