पंकज जायसवाल
हम भले ही अपने आपको सुपर पावर बोलें लेकिन सच्चाई है कि अभी भी हमारे बाजार में विदेशी कंपनियां ही राज कर रहीं हैं. हर चीज हर संस्थाओं और बिजनेस पर उनका एकाधिकार सा हो गया है. पश्चिम कई मॉडल से दुनिया के बाजार को नियंत्रित करते हैं. वह एसोसिएशन और फोरम बनाते हैं और उसके मार्फ़त दुनिया के बिजनेस को नियंत्रित करते हैं. आज फ़ूड मार्किट देख लीजिये. चाहे वह भारत या अन्य देश हों, वहां आपको मक्डोनाल्ड, केएफसी, सबवे, बर्गर किंग, पिज़्ज़ा हट, डोमिनो, पापा जॉन, बर्गर किंग, डंकिन डोनट्स, हार्ड रॉक कैफ़े, कैफ़े अमेज़न, वेंडिज, टैको बेल, चिलीज़, नंदोस कोस्टा कॉफी या स्टार बक्स हों, यही छाये हुए मिलेंगे. ये सब विदेशी ब्रांड हैं. आप भारतीय शहरों के किसी भी मॉल या मार्किट में जाइये. भारतीय फर्मों को इनसे छूटा हुआ बाजार ही मिलता है और तकनीक के बल पर इनका ही एकाधिकार है . स्टार बक्स के आने के बाद भारत के शहरों में कॉफ़ी के होम ग्रोन ब्रांड या चाय के कट्टे पर भीड़ कम होती गई.
भारतीय बाजार में फ़ूड आइटम को देख लीजिये, क्या हम कोल्ड ड्रिंक में पेप्सी, कोक रेड बुल के इतर किसी ब्रांड को देख पाते हैं ? फ़ूड एवं FMCG में देख लीजिये, नेस्ले, हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड, प्रॉक्टर एंड गैम्बल एवं कोलगेट का कब्ज़ा है. इनके प्रोडक्ट लाइफबॉय, लक्स , मैग्गी, ले चिप्स, नेस्कैफे, सनसिल्क, नोर सूप ये सब इनके ही ब्रांड हैं. इनके आगे इंडियन ब्रांड को उड़ान भरने में बहुत ही मशक्कत करनी पड़ती है. इनके पूंजी और तकनीक के एकाधिकार के कारण भारतीय कंपनियों को लेवल प्लेइंग फील्ड मिल नहीं पाता है.
एडवाइजरी एवं ऑडिट के क्षेत्र में एर्न्स्ट एवं यंग, केपीएमजी, प्राइस वाटरहाउस, डेलॉइट, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, मेकेंजी, बेन एंड कंपनी, ए टी कर्णी, ग्रांट थॉर्टन, बीडीओ, प्रोटीवीटी, जेपी मॉर्गन, मॉर्गन स्टैनले, आर्थर एंडर्सन, एक्सेंचर का लगभग कब्ज़ा है. इन कंसल्टिंग फर्मों में से तो कई सरकारों के कामकाज में अंदर तक घुसी हुईं हैं.
कंप्यूटर की दुनिया ले लीजिये. क्या आप आईटी मार्किट में IBM, माइक्रोसॉफ्ट, एप्पल, इंटेल, डेल, एचपी, सिस्को, लेनोवो के बिना कंप्यूटर की कल्पना कर सकते हैं? आईटी क्षेत्र को लीजिये क्या Adobe Systems, SAP और Oracle को ERP को क्या भारतीय कंपनियां आसानी से बीट कर पा रहीं हैं ? आईटी में IBM, कैपजेमिनी, एक्सेंचर, डेलॉइट का ही दखल प्रभावी है. AI देखिये चैटजीपीटी की ही लीड है.
इंटरनेट देख लीजिये किसका एकाधिकार है ? सोशल मीडिया देख लीजिये हम अपने जीवन का सर्वाधिक समय व्हाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर देते हैं और सर्वाधिक चलने वाले जिस जीमेल अकाउंट, गूगल, अमेज़न या एज्युर क्लाउड का उपयोग करते हैं, सब विदेशी हैं.
इंजीनियरिंग या इलेक्ट्रॉनिक में देख लीजिये सीमेंस, GE, फिलिप्स, LG, ABB, सैमसंग, सोनी, फॉक्सवागन, हौंडा, ह्यूंदै, किआ, सुजुकी, टोयोटा, निसान, BMW, मर्सिडीज़, पॉर्श, रीनॉल्ट, Sony, Honda, Suzuki, Panasonic, Hitachi, Mitsubishi, Toshiba, ओप्पो, वीवो, वोडाफोन, and Canon, ये सब बाहरी हैं.
भारत में एयरपोर्ट को ही देख लीजिये. जिसके पास एयरपोर्ट का पूरा का पूरा ब्लू प्रिंट होता है. वह कौन है, सेलेबी टर्की की कंपनी, सेट्स सिंगापुर की कंपनी, इंडो थाई में थाई एयरपोर्ट ग्राउंड सर्विसेज पार्टनर, WFS भी विदेशी कंपनी है, NAS एयरपोर्ट केन्या की कंपनी है. जहाज जिनके हम चलाते हैं वह एयर बस या बोइंग या बॉम्बार्डियर सब विदेशी कम्पनी ही है.
इनके कल पुर्जे बनाने वाली कंपनी भी ज्यादातर विदेशी हैं. पूरे दुनिया के एविएशन को जो रेगुलेट करते हैं वह कौन है IATA, ICAO वह कहां की है उसकी स्थापना कहां हुई थी. क्या इनके एफ्लीएशन के बिना कोई एविएशन बिजनेस में घुस सकता है ?
गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम, माइक्रोन, एडोब, यूट्यूब, हनीवेल, नोवार्टिस, स्टारबक्स और पेप्सिको जैसी कई वैश्विक कंपनियों में भारतीय मूल के लोग सीईओ हैं लेकिन ये सभी अब भारतीय नागरिक नहीं बल्कि अब ये उन देशों के नागरिक हैं जहाँ वे काम करते हैं और रहते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि किसी द्विपक्षीय युद्ध की स्थिति में, एक नागरिक के रूप में उनकी निष्ठा किसके प्रति होगी ,उस देश के प्रति, जिसकी नागरिकता उन्होंने ली है, या भारत के प्रति, जहाँ उनकी जड़ें हैं? यह एक यक्ष प्रश्न है।
भारत के मामले में स्थिति उलटी है। यहां कई कंपनियां हैं जो राष्ट्रीय सुरक्षा या युद्धकालीन परिस्थितियों में भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं लेकिन उनके सीईओ न तो भारतीय मूल के हैं और न ही भारतीय नागरिक। ऐसे में वही सवाल खड़ा होता है द्विपक्षीय युद्ध की स्थिति में उनकी निष्ठा किसके प्रति होगी? उस देश के प्रति, जिसके वो आज भी नागरिक हैं, या भारत के प्रति, जहाँ वे कार्यरत हैं?
हैवी मशीनरी में यूरोप का अधिकार है. जो हैवी मशीनरी इंडिया में कुछ लाख या कुछ करोड़ में बन सकती है, विशेषता के हिसाब से उसी मशीनरी को ग्लोबल कार्टेल, एसोसिएशन जैसे मंचो का इस्तेमाल कर और ग्लोबल पेटेंट लेकर वह हमें कई गुना मूल्यों पर बेच रहे हैं. जिन हैवी मशीनों को भारतीय कंपनियां 1 से 2 करोड़ में बना सकती हैं उसे यूरोप की कंपनियां कई करोड़ में भारतीय कंपनियों को बेच रही हैं. इनके जर्मनी या फ्रांस में होने वाले कांफ्रेंस में चले जाइये. आपको इनके एकाधिकार का पता चल जायेगा.
बैंकिंग और रेटिंग कंपनी में क्रिसिल, सिबिल, सिटी बैंक, HSBC बैंक, डोएचे बैंक सब विदेशी हैं. भारत में किसको लोन मिलना चाहिए, किसको नहीं मिलना चाहिए, इतने बड़े प्रश्न का क्रेडिट रेटिंग के रूप में निर्धारण करने वाली कम्पनी जो हर आम ख़ास भारतीयों के लोन का निर्धारण करती है Transunion CIBIL में अमेरिकन कंपनी Transunion की मॉरिशस रुट के द्वारा बहुमत हिस्सेदारी है मतलब एक अमेरिकी कंपनी निर्धारण कर रही है कि भारत में किसको लोन मिलना चाहिए. ऐसा इकोसिस्टम बनाया है कि भारत की लगभग सभी वित्तीय संस्थान, बैंक या NBFC बिना सिबिल स्कोर के लोन ही नहीं दे सकते. एक तरह से भारत के करोड़ों भारतीयों के क्रेडिट रिपोर्ट के डेटा का प्रभावी रूप से मालिक आज एक अमेरिकी कंपनी है. विदेशी कंपनी सिबिल का इतने माइक्रो लेवल पर कब्ज़ा है कि मजदूर से लेकर मध्य वर्ग को लोन मिलेगा कि नहीं, यह उसके रिपोर्ट पर निर्भर करता है.
भारत को अभी इस क्षेत्र में मीलों सफर तय करना है जब देश के बाहर विदेशों में भी भारतीय ब्रांड छायें रहें, जैसे अभी विदेशी ब्रांड भारत और दुनिया के देशों में कब्ज़ा जमाये हैं. अभी ऐसे बहुत से लिस्ट हैं. यहां तो उसी का उल्लेख किया गया है जो पॉपुलर हैं. यह ध्यानाकर्षण इसलिए कि सरकार को और नियामकों को इस विषय पर चिंतन करना चाहिए और भारत फर्स्ट को ध्यान में रखते हुए ऐसे बजट को ऐसे बनाना चाहिए कि वह भारतीय कंपनियों को पॉपुलर ग्लोबल ब्रांड बनने का मार्ग प्रशस्त करे.
एक राष्ट्र के रूप में हमें यह मानसिकता अपनानी चाहिए कि हम अपने देशी ब्रांडों की सराहना करें और उनका समर्थन करें, चाहे वह जियो, रिलायंस, अदानी , टाटा , बिड़ला , पतंजलि , सीसीडी , सहारा या किंगफिशर हो। इन उद्यमों ने संस्थाएं खड़ी की हैं, बड़े पैमाने पर रोजगार सृजित किया है और हमारी अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जब सरकार, बैंक या कोई नियामक संस्था कोई कार्रवाई करें तो उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे संगठनों का अस्तित्व और निंरतरता सुरक्षित रहे। आखिरकार, ये व्यवसाय केवल उनके प्रवर्तकों का नहीं हैं बल्कि उन लाखों कर्मचारियों, उनके परिवारों के भविष्य और उन बच्चों की शिक्षा के बारे में भी हैं जो इनसे जुड़ें हैं और पोषित हैं। ये कंपनियां करों का भुगतान कर राष्ट्र को ईंधन भी देती हैं जिससे जनकल्याण और विकास संभव होता है।
इसलिए हमें अपने स्वदेशी ब्रांडों को कमजोर या नष्ट होने देने की बजाय ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र बनाना चाहिए जिसमें वे फलें-फूलें, योगदान दें और भारत के भविष्य का निर्माण करते रहें।
पंकज जायसवाल