सिनेमा

लोककला की ‘अमर ज्योति’ बिजली रानी को भावपूर्ण श्रद्धांजलि

शम्भू शरण सत्यार्थी

बिहार के गाँव-देहात से लेकर कस्बों और नगरों तक जब रात ढलने लगती थी और गाँव के चौपाल, हाट या स्कूल के मैदान में रंग-बिरंगी रोशनी के बीच मंच सजा होता था,तो भीड़ के कानों में सबसे पहले जो नाम गूंजता था, वह था — “बिजली रानी”।आज बिजली रानी आएंगी..।यह सुनते ही औरतें अपने बच्चों को जल्दी सुला देतीं,पुरुष खेत-खलिहान से जल्दी लौट आते और नौजवानों के चेहरे पर एक अजीब-सी उत्सुकता चमक उठती। कोसों दूर से पैदल सायकिल से लोगों का हुजूम बिजली रानी के नाम पर उमड़ पड़ता क्योंकि उस रात गाँव में आने वाली थी वह ‘बिजली’ जो सचमुच अपने गीत और नृत्य से दिलों को रोशन कर देती थी लेकिन दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि — बिजली चली गई। यह बिहार की उस लोकसंस्कृति के बुझ जाने की खबर है जिसकी एक पहचान थीं — बिजली रानी।

बिजली रानी का असली नाम क्या था, यह शायद बहुत कम लोग जानते हों क्योंकि उनके नाम से ज्यादा प्रसिद्ध था उनका ‘रंगमंची व्यक्तित्व’। वे शाहाबाद क्षेत्र की थीं — वही इलाका जहाँ की मिट्टी में लोककला, गीत, बिरहा, और बिदेसिया जैसे स्वर जन्म लेते हैं। बिजली रानी का मंच पर उतरना किसी देवी के आगमन से कम नहीं होता था। उनकी मुस्कान में अपनापन था, नृत्य में ठेठ देहाती सौंधापन,और गीतों में ऐसी मिठास जो सीधे दिल को छू जाए। उनकी आवाज़ में न तो कोई कृत्रिमता थी, न कोई शहरी बनावट — बस एक सच्ची, मिट्टी की सुगंध थी। वे जब गाती थीं –“हमरा देसवा में ना रहबऽ अब परदेसवा जइबऽ…”तो हर परदेसी की आँख नम हो जाती थी।जब वे नाचती थीं तो तालियों की गूंज मीलों दूर तक सुनाई देती थी। भोजपुरी संगीत में एक दौर था — जब “बिजली और चाँद” की जोड़ी का कोई मुकाबला नहीं था। चाँद (गायक) अपनी आवाज़ से समा बाँधते,और बिजली रानी अपने नृत्य और अभिनय से उसे आत्मा देतीं। लोग कहते थे — “बिजली नाचती हैं तो चाँद की आवाज़ झिलमिलाती है।”यह जोड़ी बिहार के लोकमंच की पहचान बन गई थी। गाँवों में जब किसी बड़े आदमी के यहाँ शादी होती,तो पूछताछ होती थी — “बिजली रानी के डेट मिलल का?”अगर मिल गई, तो शादी का दिन तय; अगर नहीं, तो शादी टल जाती थी। इतना बड़ा आकर्षण था उस कलाकार महिला का —जिसे आज की पीढ़ी शायद सिर्फ़ नाम से जानती है।

बिजली रानी उस दौर की कलाकार थीं जब लोक संस्कृति ‘मनोरंजन’ नहीं, जीवन का हिस्सा हुआ करती थी। न टीवी था, न मोबाइल। लोग खेत-खलिहान की मेहनत के बाद रात में लोकगीतों और नाच-गान के कार्यक्रम में अपनी थकान मिटाते थे। बिजली रानी जैसे कलाकारों ने ही उस युग को रोशनी दी थी। उनका कला मंच ‘प्रोग्राम’ नहीं, बल्कि जनमानस की साझी खुशी होती थी। वे हर तबके के बीच लोकप्रिय थीं —गाँव की औरतें उनके गीतों में अपनी पीड़ा सुनतीं,पुरुष उनके नृत्य में जीवन की लय खोजते,और बच्चे बस उन्हें देख कर खुश हो जाते। बिजली रानी का जीवन संघर्षों से भरा रहा। कला को मंच देना आसान नहीं था, खासकर उस समय जबमहिलाओं के नाचने-गाने को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता था पर बिजली रानी ने समाज की परवाह नहीं की। उन्होंने अपने हुनर से यह साबित किया कि लोकनृत्य और लोकगीत अश्लील नहीं होते बल्कि वे संस्कृति की जड़ें हैं जो हमारी भावनाओं को अभिव्यक्ति देती हैं। कई बार समाज की संकीर्णता ने उन्हें चोट पहुँचाई लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उनका जवाब हमेशा कला के माध्यम से आता था, मंच पर, गीत में, नृत्य की थिरकन में।

बिजली रानी ने न सिर्फ़ लोकगीतों को ऊँचाई दी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का दीपक भी जलाया। आज भोजपुरी में जो महिलाएँ मंच पर गाती या नाचती हैं, उनके आत्मविश्वास में बिजली रानी की झलक दिखाई देती है। उन्होंने यह सिखाया कि —एक महिला अपनी कला, मेहनत और निष्ठा से भीसम्मान कमा सकती है, सिर्फ़ परिवार के नाम से नहीं। उनकी कला ने यह मिथक तोड़ा कि लोकगीतों का मंच सिर्फ़ पुरुषों का है। उन्होंने कहा – “हम भोजपुरी हैं, और हमारी आवाज़ हमारी ताक़त है।”एक समय ऐसा भी था जब बिजली रानी का शो देखने के लिए लोगों की भीड़ किलोमीटरों दूर तक लग जाती थी। बिजली रानी के नाम पर “साटा” (कॉन्ट्रैक्ट) लिखा जाता था और कई बड़े घराने उनकी डेट पाने के लिए महीनों पहले बुकिंग करते थे। शादी की तारीख तक इस बात पर निर्भर करती थी कि बिजली रानी कब फुर्सत में हैं?”यह उनका नहीं, बिहार की लोकसंस्कृति का गौरव था। धीरे-धीरे जब टीवी, सिनेमा, और मोबाइल का युग आया, तो लोकमंचों की भीड़ कम होने लगी। बिजली रानी जैसे कलाकार जो गाँव-गाँव रोशनी फैलाते थे,धीरे-धीरे मंचों से उतरने लगे। उनकी जगह सस्ते मनोरंजन ने ले ली।लोकगीत की मिठास को भौंडेपन ने निगल लिया। गीत में संवेदना की जगह ‘शोर’ ने ले ली और लोकसंस्कृति, जो कभी आत्मा थी,अब “कंटेंट” बन गई।

बिजली रानी का स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा,लेकिन उनके मन की आग आख़िरी साँस तक जलती रही। वह कहती थीं –लोकगीत हमरा प्राण बा, जब तक साँस चली, तब तक गइब। जब यह खबर आई कि बिजली रानी अब नहीं रहीं तो सिर्फ़ एक कलाकार नहीं गईं —बल्कि भोजपुरी लोकसंस्कृति का एक युग समाप्त हो गया। यह वही युग था जब मंच पर कोई मशीन नहीं होती थी,कोई रिकॉर्डिंग नहीं —बस एक हारमोनियम, एक ढोलक, और एक आवाज़, वही आवाज़ जिसने हजारों चेहरों पर मुस्कान दी थी। आज भी जब उनके गीत रेडियो या गाँव के किसी टेप रिकॉर्डर पर बजते हैं तो लगता है मानो बिजली रानी अब भी पास ही हैं —मंच पर, हँसती हुई, अपनी चूड़ियों की खनक के साथ।

बिजली रानी के निधन के साथ एक सवाल भी उठ खड़ा हुआ है —क्या हम अपने लोककलाकारों की पहचान संभाल पा रहे हैं?क्या हम उस मिट्टी से जुड़े रह पाए हैं जिसने हमें गीत दिए, नृत्य दिया, संस्कृति दी?आज सरकारी मंचों पर तथाकथित “लोकमहोत्सव” तो होते हैं,पर उनमें लोक नहीं, सिर्फ़ आयोजन दिखता है ।बिजली रानी जैसे कलाकारों के लिए न तो कोई पेंशन,न कोई मान्यता —बस कुछ यादें और तालियाँ, जो वक्त के साथ फीकी पड़ जाती हैं।बिजली रानी के गीतों में औरत का दर्द, ममता, विरह और संघर्ष झलकता था।वे सिर्फ़ मनोरंजन नहीं करती थीं — वे संदेश देती थीं।उनके गीतों में समाज की तस्वीर थी। कभी वह बहू की व्यथा बनतीं, कभी माँ की पुकार। उनका हर नृत्य एक कहानी कहता था —देह से नहीं, भावना से नाचना उन्होंने सिखाया था।आज जब आधुनिक भोजपुरी गीतों में अभद्रता की चर्चा होती है तो बिजली रानी जैसे कलाकारों की गरिमा याद आती है।उन्होंने बताया कि “भोजपुरी अश्लील नहीं, संवेदनशील है।”बिजली रानी अब इस लोक से चली गईं पर उनकी आवाज़, उनकी थिरकन और उनकी मुस्कान अब भी बिहार की मिट्टी में गूंजती रहेगी। वे किसी बिजली के झटके की तरह नहीं बल्कि दीपक की लौ की तरह बुझीं धीरे-धीरे, लेकिन अपने पीछे उजाला छोड़ कर। उनका नाम अब इतिहास में दर्ज है पर असली श्रद्धांजलि तब होगी जब हम अपने लोकगीतों और लोककला को पुनः वह सम्मान देंगे जो कभी बिजली रानी ने अपने हुनर से पाया था।

बिजली रानी केवल एक कलाकार नहीं थीं —वह भोजपुरी अस्मिता की पहचान थीं। उन्होंने यह साबित किया कि भोजपुरी कला सिर्फ़ नाच-गाना नहीं,बल्कि हमारे समाज की आत्मा है। आज उनका जाना एक शून्य छोड़ गया है लेकिन वह शून्य हमें यह याद दिलाता रहेगा कि अगर लोकसंस्कृति को बचाना है तो हमें अपने गाँवों, अपने गीतों और अपने कलाकारों से फिर जुड़ना होगा क्योंकि जब लोक संस्कृति बुझती है तो सिर्फ़ ‘बिजली’ नहीं जाती बल्कि एक पूरी पीढ़ी अंधेरे में चली जाती है। “बिजली चली गई, पर रौशनी छोड़ गई…लोकगीत के हर सुर में अब भी उसकी झलक है,वह ग़ायब नहीं — हर ताल, हर नाच, हर मुस्कान में ज़िंदा है।बिहार की मिट्टी जब भी गूंजेगी,कोई कहेगा —‘देखऽ, फिर से बिजली आ गइल।’”

शम्भू शरण सत्यार्थी