निवेश का नया दौर : भारत और चीन के बीच संभावनाओं की दिशा

 शम्भू शरण सत्यार्थी

आज की दुनिया उस मोड़ पर खड़ी है जहाँ कोई भी देश अपने दम पर लंबे समय तक आर्थिक विकास नहीं कर सकता। संसाधन कहीं और हैं, तकनीक कहीं और है और बाजार कहीं और। इस आपसी निर्भरता ने वैश्विक निवेश और साझेदारी को मजबूरी ही नहीं बल्कि आवश्यकता भी बना दिया है। भारत, जो दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन चुका है, इसी प्रक्रिया का एक बड़ा केंद्र बनने की ओर अग्रसर है। यही कारण है कि हाल के वर्षों में जब चीन की 200 से अधिक कंपनियों ने भारत में निवेश करने की इच्छा जताई तो इस खबर ने आर्थिक गलियारों से लेकर राजनीतिक मंचों तक गहरी हलचल पैदा कर दी। यह महज पूँजी का मामला नहीं है बल्कि इसमें भविष्य की दिशा, भू-राजनीति और आत्मनिर्भरता का सवाल भी छिपा है।

अगर हम इतिहास की ओर देखें तो भारत और चीन दोनों ही प्राचीन सभ्यताएँ रही हैं और व्यापारिक दृष्टि से एक-दूसरे के साथ लंबे समय तक जुड़े रहे हैं। रेशम मार्ग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जिसने न केवल वस्तुओं बल्कि विचारों और संस्कृतियों का भी आदान-प्रदान करवाया किंतु आधुनिक काल में जब 1962 का युद्ध हुआ, तो दोनों देशों के बीच गहरे अविश्वास की दीवार खड़ी हो गई। इसके बावजूद आर्थिक वास्तविकताओं ने धीरे-धीरे इस दीवार में दरारें डालीं। 1990 के दशक में भारत ने उदारीकरण की राह पकड़ी और चीन पहले से ही वैश्विक व्यापार में अपनी स्थिति मजबूत कर चुका था। परिणामस्वरूप दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंधों में तेजी आई और आज स्थिति यह है कि चीन भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन चुका है।

लेकिन तस्वीर इतनी सरल भी नहीं है। चीन ने पिछले चार दशकों में जिस चमत्कारी विकास को हासिल किया था, वह अब कई कारणों से थमने लगा है। चीन का घरेलू बाजार मंदी से गुजर रहा है, बेरोजगारी बढ़ रही है और पश्चिमी देशों के साथ उसके संबंध लगातार तनावपूर्ण बने हुए हैं। अमेरिका और यूरोप ने चीन की कई कंपनियों पर प्रतिबंध लगाए हैं, तकनीकी क्षेत्रों में उसे अलग-थलग करने की कोशिश की है और “चाइना प्लस वन” रणनीति के तहत कंपनियाँ अब केवल चीन पर निर्भर नहीं रहना चाहतीं। उत्पादन लागत भी वहाँ बढ़ चुकी है। इन सब कारणों से चीन की कंपनियों को नए बाजारों और नए ठिकानों की तलाश है। भारत उनके लिए सबसे स्वाभाविक विकल्प बनकर उभर रहा है, क्योंकि यहाँ विशाल उपभोक्ता बाजार है, श्रम शक्ति प्रचुर मात्रा में है और राजनीतिक स्थिरता भी अपेक्षाकृत बेहतर है।

भारत की स्थिति भी निवेश की दृष्टि से कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। यहाँ हर साल लाखों युवा शिक्षा पूरी करके नौकरी की तलाश में निकलते हैं लेकिन विनिर्माण क्षेत्र में पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते। हमारी अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा सेवा क्षेत्र पर टिका हुआ है, लेकिन विनिर्माण क्षेत्र अभी भी अपनी क्षमता के अनुसार योगदान नहीं दे पा रहा। “मेक इन इंडिया” और “आत्मनिर्भर भारत” जैसे अभियानों का उद्देश्य यही है कि भारत एक मजबूत औद्योगिक शक्ति बने परंतु विदेशी निवेश के बिना यह लक्ष्य पूरा करना कठिन है। ऐसे में अगर चीन की कंपनियाँ भारत में कारखाने लगाती हैं, उत्पादन इकाइयाँ स्थापित करती हैं तो यह भारत के लिए एक अवसर साबित हो सकता है।

अगर हम संभावित फायदों पर नज़र डालें तो सबसे पहला लाभ रोजगार के रूप में दिखाई देता है। लाखों युवाओं को सीधे-सीधे नौकरी मिलेगी और अप्रत्यक्ष रूप से भी अनेक अवसर पैदा होंगे। दूसरा लाभ तकनीकी हस्तांतरण का है। चीन ने मोबाइल निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल और फार्मा जैसे क्षेत्रों में बड़ी प्रगति की है। अगर यह तकनीक भारत आएगी तो हमारी घरेलू कंपनियाँ भी इसे सीखेंगी और आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम बढ़ाएँगी। तीसरा लाभ निर्यात क्षमता के रूप में सामने आएगा। भारत न केवल अपने उपभोक्ता बाजार को पूरा करेगा बल्कि इन कंपनियों के माध्यम से विदेशों में भी सामान निर्यात कर पाएगा। चौथा लाभ बुनियादी ढाँचे के विकास का होगा, क्योंकि जब निवेश आएगा तो सड़क, बिजली, पानी और लॉजिस्टिक्स जैसे क्षेत्रों में भी सुधार होंगे। और अंततः यह संभावना बनेगी कि भारत “दुनिया की फैक्ट्री” कहलाने वाले चीन की जगह खुद एक मैन्युफैक्चरिंग हब बन सके।

लेकिन इन सबके बीच चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। सबसे बड़ा सवाल राष्ट्रीय सुरक्षा का है। चीन की कंपनियों पर कई बार डेटा चोरी और जासूसी के आरोप लगे हैं। ऐसे में भारत को सतर्क रहना होगा कि कहीं आर्थिक सहयोग सुरक्षा के लिए खतरा न बन जाए। दूसरा खतरा घरेलू उद्योगों पर असर का है। बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाली चीनी कंपनियाँ भारतीय लघु और मध्यम उद्योगों को कमजोर कर सकती हैं जिससे आत्मनिर्भरता का लक्ष्य प्रभावित होगा। तीसरा खतरा आर्थिक निर्भरता का है। अगर भारत बहुत अधिक चीन पर निर्भर हो गया और भविष्य में दोनों देशों के बीच कोई राजनीतिक विवाद हुआ तो भारत की स्थिति कमजोर हो सकती है। चौथा खतरा नीति और भ्रष्टाचार से जुड़ा है। विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए भारत को नीतियाँ स्पष्ट करनी होंगी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना होगा अन्यथा निवेशक असुरक्षित महसूस करेंगे।

दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों से भारत की तुलना की जाए तो तस्वीर और स्पष्ट हो जाती है। वियतनाम, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और ताइवान सभी इस दौड़ में हैं। वियतनाम की नीतियाँ और व्यापारिक सुगमता भारत से बेहतर मानी जाती हैं, बांग्लादेश वस्त्र उद्योग में बड़ा खिलाड़ी बन चुका है, ताइवान तकनीक में आगे है और चीन से दूरी बनाए रखना चाहता है परंतु भारत की सबसे बड़ी ताकत उसका विशाल घरेलू बाजार है, जो इन देशों के पास नहीं है। यही कारण है कि चीन की कंपनियाँ भारत को प्राथमिकता दे रही हैं।

अब प्रश्न उठता है कि भारत को किस तरह आगे बढ़ना चाहिए। सबसे पहली आवश्यकता है कि भारत निवेश का स्वागत तो करे, लेकिन शर्तों के साथ। रक्षा, संचार और डेटा जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में चीन की कंपनियों को सीमित किया जाए। हर निवेश अनुबंध में तकनीकी हस्तांतरण की शर्त रखी जाए ताकि भारतीय उद्योग भी सीख सकें। छोटे उद्योगों को सुरक्षा कवच दिया जाए ताकि वे प्रतिस्पर्धा में टिक सकें। विदेशी निवेश की निगरानी के लिए स्वतंत्र एजेंसी बनाई जाए ताकि पारदर्शिता बनी रहे।

अगर भारत इन शर्तों के साथ निवेश स्वीकार करता है तो आने वाले दस-पंद्रह वर्षों में उसका चेहरा पूरी तरह बदल सकता है। पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना साकार हो सकता है, भारत मैन्युफैक्चरिंग हब बन सकता है और रोजगार का महास्रोत खुल सकता है। परंतु अगर हमने बिना सोचे-समझे आँख मूँदकर निवेश स्वीकार कर लिया तो भविष्य में हम वही गलती दोहरा सकते हैं जो कई छोटे देशों ने की जहाँ विदेशी कंपनियों ने स्थानीय उद्योगों को समाप्त कर दिया और अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण जमा लिया।

इसलिए भारत को इस निवेश अवसर को अवसर की तरह ही लेना होगा, मजबूरी की तरह नहीं। निवेश तभी सार्थक है जब वह आत्मनिर्भरता, तकनीकी विकास और सामाजिक स्थिरता को मजबूत करे। यही निवेश का नया दौर है और यही भारत के लिए असली परीक्षा।

शम्भू शरण सत्यार्थी

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