लेख

हर बच्चे के सपने को बचाने का संकल्प

संध्‍या राजपुरोहित

सुबह की पहली किरणें जब जंगल की ओट से उतरती हैं, तब किसी छोटे से जनजातीय गाँव में कुछ नन्हे कदम तेजी से चलने लगते हैं। इन कदमों की दिशा स्कूल की ओर नहीं, खेतों की ओर होती है। उन छोटे-छोटे हाथों में कापियाँ और किताबें नहीं, कपास, मिर्ची और मक्का तोड़ने की थैलियाँ होती हैं। ये वे बच्चे हैं, जो जन्म लेते ही पढ़ने का अधिकार लेकर आते हैं, पर भूख और बेबसी उनके हाथों से वह अधिकार छीन लेती है। यह दृश्य केवल एक गाँव का नहीं, बल्कि हमारे देश के अनेक आदिवासी इलाकों की सच्चाई है, जहाँ गरीबी, अनिश्चित आजीविका और जीवन की कठिनाइयों ने बचपन को मजदूरी में बदल दिया है।

बाल दिवस पर जब हम बच्चों की मुस्कुराहट, उनके सपनों और उजले भविष्य की बातें करते हैं, तब यह सच्चाई हमारे भीतर एक गंभीर सवाल उठाती है कि क्या सचमुच हर बच्चे को बचपन जीने का अवसर मिला है। क्या हर बच्चा अपने अधिकारों से परिचित है। संभवत: नहीं। समाज की यह असमानता केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और संरचनात्मक भी है। शहरों में बाल दिवस के नाम पर सांस्कृतिक कार्यक्रम और उपहार बांटे जाते हैं, जबकि दूसरी ओर हज़ारों बच्चे खेतों, ईंट भट्टों और निर्माण स्थलों की धूल में अपना बचपन खोने को मजबूर हैं।

भारत की जनसंख्या में लगभग साढ़े आठ प्रतिशत हिस्सा आदिवासी समुदायों का है। यह समुदाय प्रकृति के सबसे करीब है, पर विकास के मुख्य प्रवाह से सबसे दूर। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की पहुँच अब भी सीमित है। 2023-24 की यू.डायस प्लस रिपोर्ट बताती है कि प्राथमिक स्तर पर आदिवासी बच्चों के नामांकन में सुधार आया है, पर माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर उपस्थिति में गिरावट स्पष्ट दिखती है। इसका कारण केवल गरीबी नहीं है। विद्यालयों की दूरी, कठिन भौगोलिक परिस्थितियाँ, परिवहन की कमी और बरसात में गाँवों का अलग-थलग पड़ जाना भी इसके बड़े कारण हैं।

ऐसे समय में जब परिवार रोज़ की आजीविका के संघर्ष में उलझा रहता है, तो बच्चों की पढ़ाई पीछे छूट जाती है। शिक्षा इन परिवारों के लिए खर्च बन जाती है, निवेश नहीं। बच्चे का स्कूल जाना या मजदूरी करना चुनाव नहीं, मजबूरी है। एक बार मजदूरी पर जाते परिवारों में एक दस साल के बच्चे को साथ देखा गया। पूछा कि क्या यह स्कूल नहीं जाता। पिता ने उत्तर दिया, न जाए तो खाएगा क्या। यह एक वाक्य उस कठोर जीवन-सत्य की ओर संकेत करता है, जहाँ भूख सपनों पर भारी पड़ जाती है।

आदिवासी जीवन स्वाभाविक रूप से जंगलों से जुड़ा रहा है, पर खनन, औद्योगिक विस्तार और भूमि अधिग्रहण ने कई गाँवों को उजाड़ दिया है। जंगलों के साथ रोजगार भी गया और उसके साथ शिक्षा की डोर भी ढीली हो गई। जिन रास्तों से बच्चे कभी महुआ और तेंदूपत्ता बीनने जाते थे, वे अब बंद हो चुके हैं। जीवन की यह अस्थिरता बच्चों की शिक्षा की सबसे बड़ी बाधा बनती है।

यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में पाँच से सत्रह वर्ष आयु के लगभग पचास लाख बच्चे अब भी श्रम में लगे हुए हैं। कानून बने हैं, अधिकार घोषित हुए हैं, पर इनका क्रियान्वयन गाँवों तक पूरी तरह नहीं पहुँच पाया। कई माता-पिता कानूनों से अनजान हैं, और जो जानते हैं वे भूख और जीवन की अनिश्चितता के आगे असहाय हो जाते हैं। ठेकेदार शहर में काम दिलाने के नाम पर बच्चों को मजदूरी में लगा देते हैं।

फिर भी कुछ रोशनियाँ हैं। सरकार द्वारा एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय, सर्वशिक्षा अभियान, छात्रवृत्ति योजनाएँ और मध्यान्ह भोजन जैसी पहलों ने शिक्षा तक पहुँच बढ़ाई है। पर वास्तविक परिवर्तन तब आएगा जब शिक्षा को स्थानीय भाषा, संस्कृति और जीवन अनुभवों से जोड़ा जाएगा। जब शिक्षक बच्चों की मातृभाषा में संवाद करेंगे, जब पाठ्यक्रम में उनकी परंपराएँ और ज्ञान प्रणाली शामिल होंगी, तब शिक्षा उनके जीवन में अपनत्व का भाव जगाएगी।

यह समस्या केवल विद्यालय की नहीं है। जब तक परिवारों के लिए स्थायी आजीविका के साधन नहीं होंगे, तब तक बच्चों का स्कूल जाना चुनौती बना रहेगा। जंगल आधारित अर्थव्यवस्था, लघु वन उत्पादों का उचित मूल्य, कुटीर उद्योग और ग्रामीण रोजगार योजनाओं की मजबूती अत्यंत आवश्यक है। आर्थिक स्थिरता ही शिक्षा का मार्ग खोलती है।

समाज की भूमिका भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। शिक्षा केवल सरकारी योजना नहीं, एक सामूहिक सामाजिक प्रतिबद्धता है। गाँव, समुदाय, शिक्षक, युवा और स्थानीय संस्थाएँ मिलकर जागरूकता फैला सकते हैं। लोकगीत, नाट्य रूपांतरण, जनसंवाद और सामुदायिक सहयोग शिक्षा को घर-घर तक पहुँचा सकते हैं।

बाल दिवस हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हर बच्चा सचमुच मुस्कुरा सकता है, खेल सकता है, सपने देख सकता है। जब तक कोई बच्चा ईंट भट्टे की आग में झुलस रहा है, खेतों में पसीना बहा रहा है, या बचपन की कीमत पर मजदूरी कर रहा है, तब तक यह उत्सव अधूरा है।

आज आवश्यकता है कि संवेदना को कर्म में बदला जाए। पंडित नेहरू का सपना था कि हर बच्चा सुरक्षित, शिक्षित और स्वतंत्र वातावरण में बड़ा हो। यह सपना तभी पूर्ण होगा, जब किसी गाँव की झोपड़ी में बैठी बच्ची यह न सोचे कि स्कूल जाने का अर्थ भूखे रह जाना है। बचपन सपने देखने और उन्हें आकार देने का समय है, बोझ ढोने का नहीं।

हर बच्चे को समान अवसर मिलना चाहिए, चाहे वह शहर में रहता हो, जंगल में या पहाड़ पर। यदि हम आदिवासी इलाकों में शिक्षा की लौ जला सके, तो आने वाले समय में गरीबी और शोषण की अंधकार भरी रातें स्वयं समाप्त हो जाएँगी।

आज बाल दिवस पर यह संकल्प आवश्यक है कि हम हर उस बच्चे तक शिक्षा की रोशनी पहुँचाएँगे, जो अभी अंधेरे में है। जब हर बस्ती में बच्चों की हँसी गूँजेगी, जब उनके हाथों में किताबें लौटेंगी, तब हम कह सकेंगे कि हमने सच्चा बाल दिवस मनाया। आज जरूरत है संवेदना को कर्म में बदलने की, भाषणों को पहल में ढालने की। जब हर बच्चे को बचपन जीने का अवसर मिले चाहे वह पहाड़ों में रहता हो, जंगलों में, या शहर की झुग्गियों में। जब हर बच्चा कह सके “अब हम शब्द सीख रहे हैं” तब सचमुच यह देश नई, उजली और समानता से भरी सुबह का स्वागत करेगा।

संध्‍या राजपुरोहित 20 वर्षो से शिक्षा एवं सामाजिक विकास के क्षेत्र में कार्यरत है। वर्तमान में मध्‍यप्रदेश के आदिवासी अंचल में शिक्षकों व आदिवासी बच्‍चों के साथ जीवन कौशल शिक्षा कार्य से सम्‍बद्ध है।