‘ऑटिज्म’ से बच्चों को बचाने की गंभीर चुनौती?

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डा0 रमेश ठाकुर


‘ऑटिज्म बीमारी’ को हल्के में लेने की भूल कतई न की जाए, ये नवजात बच्चों के संग जन्म से ही उत्पन्न होती है। ऑटिज्म से बचा कैसे जाए, जिसके संबंध में प्रत्येक वर्ष 2 अप्रैल को पूरे संसार में ‘विश्व ऑटिज्म दिवस’ जागरूकता के मकसद से मनाया जाता है। मौजूदा वक्त में इस बीमारी को लेकर चिंताएं इसलिए बढ़ी हुई हैं क्योंकि सालाना करीब 10 हजार बच्चे सिर्फ भारत में जन्म के साथ ही लाईलाज ‘ऑटिज्म’ बीमारी लेकर पैदा हो रहे हैं। ये आंकड़ा विगत वर्षों में कुछ ज्यादा ही बढ़ा। दुख इस बात का है, बीमारी की न तो कोई अभी तक दवा है और न ही कोई प्रॉपर इलाज का इंतजाम? सिर्फ जागरूकता और बचाव ही ऑटिज्म का साधन-समाधान है।

 
बीमारी की गंभीरता को देखते हुए ‘संयुक्त राष्ट्र’ ने सर्वसम्मति से 2 अप्रैल को ‘विश्व ऑटिज्म’ मनाने का निर्णय लिया था ताकि जनमानस इस खतरनाक बीमारी के प्रति जागरूक और सतर्क हो सकें। ये खास दिन ऑटिज्म पीड़ितों के जीवन में गुणवत्ता और सुधार करने में न सिर्फ मदद करता है बल्कि बीमारी के कारणों की गंभीरता से पड़ताल कर उसपर प्रकाश भी डालता है। अप्रैल-1988 को राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने इस दिवस को मनाने की वकालत सबसे पहले की थी। डब्ल्यूएचओ की माने तो भारत में इस वक्त करीब 18 मिलियन बच्चे ऑटिज्म से पीड़ित हैं। 2-9 वर्ष की आयु के 1-1.5 प्रतिशत बच्चों में ऑटिज्म यानी एएसडी है। वर्तमान में अमेरिका कुछ ज्यादा ही पीड़ित है। सीडीसी रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका में लगभग 36 में से एक बच्चा ऑटिज़्म से ग्रस्त है। संसार भर की बात करें तो दुनिया की एक फीसदी आबादी इस वक्त ऑटिज्म से पीड़ित हो चुकी है।

 
सन-2022 में सीडीसी द्वारा किए गए शोध के मुताबिक, संसार में ऑटिज्म से पीड़ितों की संख्या 75,000,000 आंकी थी। आंकड़ों में 100 बच्चों में से 1 बच्चा ऑटिज्म से ग्रस्त हुआ है। ये वैश्विक आंकड़े निसंदेह रोंगटे खड़े करते हैं। तमाम देशों के वैज्ञानिक टीके और दवाई को लेकर रिसर्च करने में लगे हैं। पर, अफसोस  अभी तक कोई सफल नतीजे तक नहीं पहुंच पाया। विश्व में ऑटिज़्म निदान की उच्चतम दर वाला देश कतर है और सबसे कम दर वाला फ्रांस है। रिपोर्ट ये भी बताती है कि लड़कियों की तुलना में लगभग 4 गुना अधिक लड़के ऑटिज़्म से पीड़ित हैं। दुनिया भर में ऑटिज्म पीड़ितों की संख्या घटने के वजाए बढ़ ही रही है।

समझ, जानकारी और जागरूकता के अभाव के चलते स्थिति और भयाभय हो रही है। महिलाओं का गर्भ के दौरान संपूर्ण चिकित्सीय जांच न होना, भी एक मुख्य कारण है। ग्रामीण अंचलों में लोग गर्भवती महिलाओं की जाचं-पड़ताल न के बराबर करवाते हैं। इन्हीं कारणों को ध्यान में रखकर वैश्विक स्तर पर तमाम देशों के प्रतिनिधियों ने साल-2008 में ‘कन्वेन्शन ऑन द राइट्स ऑफ पर्सर्नस विद डिसएबिलिटीज’ लागू कर अक्षम लोगों को मानव अधिकारों की रक्षा और प्रोत्साहन सुनिश्चित करने का संकल्प लिया ताकि ऑटिज्म से पीड़ित सभी वयस्क और बच्चों की सही देखरेख सुनिश्चित करने पर जोर दिया जा सके। पीड़ित अपना पूरा जीवन उद्देश्यपूर्ण तरीके से जिए, इसकी पैरवी अपने स्तर पर यूनीसेफ और डब्ल्यूएचओ करते आए हैं। ये दिवस ऑटिज्म पीड़ितों की मदद और जीवन की गुणवत्ता को बेहतर कराने की ओर सभी का ध्यानाकर्षण करवाता है।


गौरतलब है ऑटिज्म सामान्य रोग नहीं हैं बल्कि कई बार तो लगता है कि ये रोग नहीं बल्कि ताउम्र रहने वाला विकार है। जीवन भर चलने वाली इस न्यूरोलॉजिकल स्थिति लोगों में यह बचपन में ही आती है जिसका लिंग, नस्ल और सामाजिक आर्थिक दर्जे से कोई लेना-देना नहीं होता। इससे ग्रस्त बच्चों की समाज में स्वीकार्यता मुश्किल से मिलती है और अगर समाज में इस रोग के प्रति जागरूकता ना हो पीड़ितों के प्रति रवैया और भी खराब हो। कई देशों में तो ऑटिज्म रोगियों को पागलखाने में भर्ती करवा देते हैं। जबकि, ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए, क्योंकि वो पागल नहीं होते? ग्रस्तों हमारी बहुत जरूरत होती है। उन्हें बेसहारा बिल्कुन न छोड़े।

ऑटिज्म रोगियों की अलग सामाजिक अंत क्रिया होती हैं, उनके सीखने के तौर-तरीके सामान्य लोगों से अलहदा होते हैं। उनके समक्ष विचार संप्रेषण की प्रस्तुतियों की चुनौतियां भी अलग होती हैं जिसका वह न चाहते हुए भी सामना करते हैं। समय की मांग यही है कि ऑटिज्म के लिए उचित दवाइयों और उपचार पर खोज हो, ताकि हजारों-लाखों बच्चों का जीवन जन्म से बेकार होने से बच सके। गर्भवती महिलाओं को गर्भधारण के पहले सप्ताह से लेकर डिलीवरी के दिनों तक चिकित्सीय परामर्शानुसार जांच-पड़ताल करवानी चाहिए क्योंकि ऐसे बच्चों को जन्म देने की इजाजत चिकित्सक भी नहीं देते।


डा0 रमेश ठाकुर

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