भारत की संसद का यह शीतकालीन सत्र ऐसे समय शुरू हुआ है जब देश तेजी से बदलती वैश्विक परिस्थितियों, आर्थिक चुनौतियों और व्यापक नीतिगत निर्णयों के बीच खड़ा है। सत्र की शुरुआत से पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो संदेश दिया कि संसद का हर क्षण देश के विकास के लिए होना चाहिए। वह सिर्फ एक राजनीतिक टिप्पणी नहीं थी, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की मूल आत्मा का स्मरण था। संसद केवल एक इमारत या सामूहिक बैठकों का स्थल नहीं; वह केंद्र है जहां राष्ट्र के भविष्य की रूपरेखा बनती है। परंतु जैसे ही सत्र आरंभ हुआ, ठीक वही दृश्य सामने आया जो पिछले वर्षों की एक स्थायी प्रवृत्ति बन चुका है। नारे, हंगामा, वेल में उतरना और अंततः कार्यवाही स्थगित होना। ऐसे में यह समझना आवश्यक है कि लोकतंत्र विरोध की व्यवस्था पर चलता है। असहमति लोकतांत्रिक प्राण है। किंतु विरोध जब निरंतर अवरोध में बदल जाए, तो यह केवल सरकार या विपक्ष की समस्या नहीं रहती। यह लोकतांत्रिक संस्कृति की समस्या बन जाती है। पिछले कुछ सत्रों का डेटा स्पष्ट संकेत देता है कि संसद अपने अपेक्षित स्तर पर काम नहीं कर पा रही। 2024 के मॉनसून सत्र में लोकसभा अपने निर्धारित समय का मात्र 29 प्रतिशत चला, और राज्यसभा 34 प्रतिशत। सूचीबद्ध प्रश्नों में से 419 प्रश्नों पर केवल 55 उत्तर प्राप्त हुए। 2024 का शीतकालीन सत्र भी औसत से कम उत्पादक रहा। इससे पहले भी 2023 का बजट सत्र और कई अन्य सत्र, विभिन्न विवादों और बाहरी रिपोर्टों को आधार बनाकर, लगातार बाधित होते रहे। कुछ मुद्दे बाद में तकनीकी रूप से संदिग्ध या अधूरे पाए गए, लेकिन तब तक संसद का अनमोल समय नष्ट हो चुका था। यह प्रवृत्ति किसी एक दल की आलोचना नहीं; यह बताने योग्य चेतावनी है कि राजनीति की मौजूदा शैली अधीर होती जा रही है और बहस की परंपरा कमजोर पड़ रही है।
संसद का हर मिनट लगभग लाखों रुपये खर्च करता है और यह राशि जनता के टैक्स से आती है। संसद का बाधित होना केवल एक प्रशासनिक समस्या नहीं; यह आर्थिक संसाधनों के दुरुपयोग, नीति निर्माण की रुकावट और नागरिकों के विश्वास को कमजोर करने वाली स्थिति है। लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका अनिवार्य है। वह सरकार को कठोर प्रश्न पूछकर जवाबदेह बनाता है, गलतियों का खुलासा करता है और वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। फिर भी विपक्ष की शक्ति तभी सार्थक होती है जब वह सदन के भीतर बहस में सक्रिय हो। नारे बहस की जगह नहीं ले सकते और शोर रणनीति का विकल्प नहीं हो सकता।इसके विपरीत, सरकार ने पिछले 11 वर्षों में यह दिखाया है कि नीति-निर्माण और सुधार उसकी प्राथमिकता है, और संसद के बाधित होने के बावजूद वह अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में सक्षम रही है। नए संसद भवन का निर्माण, संसद की कार्यप्रणाली का डिजिटलीकरण, कागज-रहित कामकाज, अप्रासंगिक 1576 कानूनों को हटाना और 421 बिलों को पारित कराना। यह सब किसी भी सरकार के लिए असाधारण उपलब्धियाँ हैं। यह कार्य ऐसे समय में संभव हुआ है जब लगभग हर सत्र में किसी न किसी मुद्दे पर व्यवधान पैदा हुआ। इससे यह स्पष्ट है कि नीति-निर्माण की दृढ़ता और प्रशासकीय निरंतरता ने सुधारों को गति दी है।
वर्तमान शीतकालीन सत्र में सूचीबद्ध 13 महत्वपूर्ण विधेयक देश की अर्थव्यवस्था, सुरक्षा और प्रशासनिक ढांचे को सीधे प्रभावित करते हैं। परमाणु ऊर्जा प्रबंधन, राष्ट्रीय उच्च शिक्षा आयोग, दिवालियापन प्रक्रिया सुधार, सिक्योरिटीज मार्केट कोड, राजमार्ग संशोधन, बीमा और कर संबंधी कानूनों में बदलाव। ये सभी ऐसे निर्णय हैं जो भारत की उभरती अर्थव्यवस्था को अगले दशक की दिशा देंगे। ऐसे में जनता को यह जानने का अधिकार है कि इन महत्वपूर्ण विधेयकों पर गंभीर चर्चा क्यों नहीं हो पाती और सत्र बार-बार अवरोध का शिकार क्यों बनता है? आज भारत वैश्विक मंचों पर नीति-स्थिरता, सुधारवादी दृष्टि और प्रशासनिक दक्षता के कारण सम्मान प्राप्त कर रहा है। जब दुनिया ऊर्जा सुरक्षा, सप्लाई-चेन स्थिरता, तकनीकी प्रतिस्पर्धा और भू-राजनीतिक संतुलन की चुनौती देख रही है, भारत को अपनी नीतियों में त्वरित निर्णय और स्पष्ट दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इस संदर्भ में संसद का हर सत्र देश की सामरिक और आर्थिक दिशा तय करने वाला निर्णायक क्षण बन जाता है। ऐसे समय में अवरोध की राजनीति केवल घरेलू नीतियों को नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रति विश्वास को भी प्रभावित कर सकती है। लोकतंत्र में बहस की संस्कृति केवल सत्ता बदलने का साधन नहीं; यह शासन की गुणवत्ता तय करती है। संसद वह जगह है जहां राष्ट्र का सामूहिक विवेक निर्णयों में बदलता है। सरकार पर कठोर सवाल उठाना विपक्ष की जिम्मेदारी है; पर उन सवालों को प्रश्नकाल, शून्यकाल और विधायी बहसों में उठाया जाना चाहिए, न कि हंगामे में खो जाने देना चाहिए। लोकतंत्र को शोर की जरूरत नहीं, जवाबदेही की जरूरत है। और जवाबदेही बहस से आती है, अवरोध से नहीं।
फिर भी यह मानना गलत होगा कि सारा दोष केवल एक प्रवृत्ति या समूह का है। भारत की राजनीति में टकराव स्वाभाविक है, और कभी-कभी भावनाएँ उग्र भी हो जाती हैं। इन सबसे परे परिपक्व लोकतंत्र वे हैं जो उस उग्रता को नियंत्रित कर लेते हैं, उसे बहस में ढाल देते हैं, और नीति-निर्माण को प्राथमिकता देते हैं। यही वह राजनीतिक परिपक्वता है जिसे भारत को और मजबूती से अपनाने की आवश्यकता है। सरकार को जनता ने लगातार इसीलिए समर्थन दिया है क्योंकि उसका जोर रोजमर्रा की राजनीति के शोर से ऊपर उठकर परिणामों पर रहा है। जनधन योजना, जीएसटी, दिवालियापन कानून, डिजिटल पेमेंट संरचना, प्रत्यक्ष लाभ अंतरण, यूपीआई विस्तार, महिला सशक्तिकरण, स्वास्थ्य ढांचे का विकास, राष्ट्रीय सुरक्षा पर स्पष्ट नीति। ये वो सुधार हैं जिन्होंने भारत की विकास दिशा तय की है। यही कारण है कि जनता सरकार से यह उम्मीद करती है कि वह अपनी नीतिगत प्रतिबद्धताओं पर मजबूती से आगे बढ़ती रहे और इस प्रक्रिया में विपक्ष का सहयोग या कम से कम, उसका संवैधानिक आचरण उतना ही आवश्यक है।
संसद का समय राष्ट्र का समय है। यह किसी दल या नेता का निजी परिसर नहीं; यह 140 करोड़ भारतीयों की सामूहिक आकांक्षा का केंद्र है। इसलिए संसद की गरिमा केवल भाषणों में नहीं, आचरण में दिखनी चाहिए। बहसें हों, कठोर सवाल उठें, सरकार घिरे, लेकिन यह सब प्रक्रिया के भीतर हो। जब संसद रुकती है, तो देश रुकता है। जब कार्यवाही ठप्प होती है, तो भविष्य ठहर जाता है। भारत आज निर्णायक मोड़ पर है—आर्थिक उछाल, वैश्विक भरोसा, युवाओं की बढ़ती आकांक्षाएँ और तकनीकी क्रांति। ये सब संकेत देते हैं कि आने वाला दशक भारत का हो सकता है। फिर भी यह तभी संभव है जब संसद अपनी मूल भूमिका में लौटे। बहस, तथ्य, नीति और राष्ट्रहित के आधार पर निर्णय हों। सरकार अपनी उत्पादकता बनाए रखे और विपक्ष अपनी सार्थक भूमिका निभाए। लोकतंत्र की सुंदरता इसी संतुलन में है। यही वह संतुलन है जिसे इस सत्र में पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है, क्योंकि अंततः लोकतंत्र की वास्तविक आवाज़ बहस में है, शोर में नहीं।