उलझनों को सुलझाते–सुलझाते
जितना खुद को समझा,
उतना ही सच ने आकर
मुझ पर सवाल कसे हैं।
संघर्ष तो हर मोड़ पर था,
पर आख़िरी गाँठ ऐसी थी—
जिसे खोलने में
ज़ख़्मों ने भी
अपने हाथ पसरे हैं।
वक्त की तल्ख़ियों ने
धागा और कसा ही दिया,
हमने जहाँ राहत समझी
वहीं दर्द ठहरे हैं।
अब इस गाँठ को खोलूँ भी तो
टूट जाने का डर है,
और छोड़ दूँ तो लगता है
जीवन भर हम वहीं ठहरे हैं।
दुष्यंत की तरह कह दूँ—
“अब कोई भी फ़ैसला आसान नहीं होता,”
जब आखिरी गाँठ
दिल और हालात से
एक साथ जुड़े हैं…
— डॉ सत्यवान सौरभ