अब के सावन में
बूँदें सिर्फ़ पानी नहीं रहीं,
वो सवाल बनकर गिरती हैं
छतों, छायाओं और चेतना पर।
अब के सावन में
न कोई प्रेम पत्र भीगा,
न कोई हथेली मेंहदी से लिपटी,
बस मोबाइल स्क्रीन पर टपकी बारिश की रील।
अब के सावन में
कविताएं भीगने से डरती हैं,
काग़ज़ गल जाए तो?
या भाव उड़ जाए तो?
पर फिर भी,
जब एक बूँद चुपचाप
मेरी खिड़की पर टिकती है,
मैं जानती हूँ—
भीतर का सावन अब भी जीवित है।