मिलावट: मुंह में नहीं, ज़मीर में घुला ज़हर

मिलावट अब केवल खाने-पीने तक सीमित नहीं रही, यह हमारे सोच, संबंध, और व्यवस्था तक में घुल चुकी है। मूँगफली में पत्थर हो या दूध में डिटर्जेंट, यह मुनाफाखोरी की संस्कृति का विस्तार है। उपभोक्ता की चुप्पी, सरकार की ढील और समाज की “चलता है” मानसिकता ने इसे स्वीकार्य बना दिया है। मिलावट एक नैतिक संकट है, जो धीरे-धीरे शरीर ही नहीं, आत्मा को भी बीमार कर रहा है। जब तक ईमानदारी को समर्थन और सच्चाई को स्पेस नहीं मिलेगा, तब तक हर दाना शक के दायरे में रहेगा — और हर निवाला ज़हर जैसा लगेगा।

 प्रियंका सौरभ

मिलावट शब्द सुनते ही ज़हन में नकली दूध, पत्थर मिली मूँगफली, चायपत्ती में रंग, और मसालों में धूल की तस्वीरें दौड़ जाती हैं। पर ये तस्वीरें सिर्फ़ पेट तक सीमित नहीं हैं। आज जो सबसे बड़ी मिलावट हो रही है, वह हमारी सोच, ज़मीर और व्यवस्था में हो रही है। बाज़ार में बिकने वाले हर उत्पाद के साथ-साथ हमारी संवेदनाएं, ईमानदारी और नैतिकता भी धीरे-धीरे प्रदूषित हो रही हैं। और मज़े की बात देखिए — इस मिलावट को हमने इतना आम मान लिया है कि अब जब असली चीज़ सामने आती है, तो हमें शक होने लगता है।

मूँगफली में पत्थर मिलना अब कोई आश्चर्य नहीं रहा। दाल में कंकड़, मटर में रंग, नमक में पाउडर और घी में मोम — ये सब जैसे अब जीवन के स्थायी सदस्य हो गए हैं। दुकानदारों से लेकर बड़े-बड़े ब्रांड्स तक, मुनाफे की अंधी दौड़ में सब शामिल हैं। हर कोई चाहता है कम लागत में ज़्यादा मुनाफा, और इसका सबसे आसान तरीका है — मिलावट। नीयत में मिलावट, नफे में धोखा, और ग्राहक की सेहत की बलि।

गांव की गलियों से लेकर शहर के शोर तक, हर ओर वही अफ़सोसनाक कहानी है। अचार में पड़ी लाल मिर्च चमकती है, लेकिन असल में वह रंग ऐसा होता है जो कपड़े रंगने के लिए होता है। दूध में जो झाग है, वह डेयरी की ताजगी नहीं बल्कि डिटर्जेंट का कमाल है। और सब्ज़ियों पर जो हरियाली दिखती है, वह प्रकृति की नहीं, रसायनों की देन है। हम जो खाते हैं, वह शरीर में नहीं, धीरे-धीरे हमारी आत्मा में ज़हर घोल रहा है।

एक समय था जब किसी के घर से दूध, घी या अनाज आता था तो उसे आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया जाता था। आज तो रिश्तेदार की लाई हुई मिठाई को भी जांचने की ज़रूरत है — कहीं वह मिलावटी न हो। बाज़ार में “शुद्धता” अब सिर्फ एक ब्रांडिंग टूल है, हकीकत से उसका कोई लेना-देना नहीं। “100% शुद्ध” लिख देने से चीज़ें शुद्ध नहीं हो जातीं, लेकिन उपभोक्ता की आंखों पर ऐसी पट्टी बंध चुकी है कि वह सोचता भी नहीं।

बच्चों की टॉफियों में लेड की मात्रा, आटे में चूना, हल्दी में सिंथेटिक रंग — ये सिर्फ स्वास्थ्य के सवाल नहीं हैं, ये समाज के नैतिक पतन की निशानियाँ हैं। और अफ़सोस ये है कि इस मिलावट पर सिर्फ दुकानदारों या कंपनियों की जिम्मेदारी नहीं बनती, हमारे सहनशील समाज की भी बनती है जो सब कुछ जानते हुए चुप रहता है। जो “चलता है” वाली मानसिकता में जीता है, और धीरे-धीरे मरता है।

मिलावट सिर्फ खाने-पीने तक सीमित नहीं है। भावनाओं में मिलावट, रिश्तों में स्वार्थ की मिलावट, इबादतों में दिखावे की मिलावट और सबसे खतरनाक — राजनीति में विचारधाराओं की मिलावट। पहले लोग विचारों के लिए जिए और मरे, अब विचार तो ‘पैकेज’ में आते हैं। आजकल ‘सेक्युलर’ और ‘राष्ट्रवादी’ दोनों को एक ही विज्ञापन में बेचा जा सकता है — बस प्रचार सही हो। कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ — इसका निर्णय अब ट्रोल आर्मी करती है, न कि तर्क और विवेक।

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मिलावट अब हमारी पहचान बन गई है। चुनावी घोषणाओं में वादों की मिलावट, अखबारों में खबरों की मिलावट, सोशल मीडिया पर तथ्यों की मिलावट — हर तरफ़ से हमें मिलावटी दुनिया ही घेर रही है। और जब कोई सच्चाई से बोलता है, तो वो या तो ‘एंटी-नेशनल’ कहलाता है या ‘पेड’ एजेंडा वाला। यही है असली त्रासदी।

दूसरी ओर, मुनाफाखोरी की भूख भी रुकने का नाम नहीं ले रही। व्यापारी जानता है कि अगर वह मूँगफली में 5% पत्थर मिला देगा, तो साल के अंत में लाखों का फायदा होगा। कंपनियाँ जानती हैं कि अगर थोड़ा-बहुत पाउडर रंग मिला दें तो ग्राहकों को “फ्रेश” लगेगा। और उपभोक्ता को ये सब पता होते हुए भी, वह मजबूर है — क्योंकि विकल्प कम हैं और सच्चाई महंगी है।

सरकार समय-समय पर ‘खाद्य निरीक्षण अभियान’ चलाती है। कुछ नमूने जांचे जाते हैं, कुछ लाइसेंस रद्द होते हैं। पर असली सवाल यह है — क्या इस व्यवस्था में भी कोई मिलावट नहीं? कहीं ये अभियान सिर्फ दिखावा तो नहीं? आखिर वो ताकतवर कंपनियाँ, जिनके प्रोडक्ट में मिलावट साबित हो जाती है, वो फिर भी कैसे धड़ल्ले से बिकते रहते हैं?

मिलावट पर बोलने वाला लेखक भी उस व्यवस्था का हिस्सा है जो कई बार समझौते करता है। एक रिपोर्टर अगर किसी मिलावटखोर व्यापारी के खिलाफ स्टोरी करना चाहता है, तो उसके संपादक को विज्ञापन का ख्याल आता है। एक डॉक्टर अगर नकली दवाओं के खिलाफ आवाज़ उठाए, तो दवा कंपनियाँ उसे ब्लैकलिस्ट कर देती हैं। और आम जनता? वह इतनी बार ठगी जा चुकी है कि अब उसमें प्रतिरोध की शक्ति ही नहीं बची।

इस मिलावटी माहौल में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो ईमानदारी से काम कर रहे हैं। जो अपने खेत में जैविक खेती करते हैं, जो बिना मिलावट के मिठाई बनाते हैं, जो दूध में पानी नहीं मिलाते। लेकिन इनका संघर्ष बहुत कठिन है। उपभोक्ता इन्हें महंगा कहकर छोड़ देता है, और सरकार इन्हें सहयोग की बजाय नियमों में उलझा देती है। ऐसे में सच बोलना और सही बेचना दोनों ही एक किस्म की ‘क्रांति’ बन गए हैं।

समाज की जड़ों में घुसी मिलावट को रोकने के लिए सिर्फ कड़े कानून ही नहीं, एक सांस्कृतिक आंदोलन की ज़रूरत है। हमें बच्चों को सिखाना होगा कि सच्चाई ही सबसे बड़ा व्यापार है। हमें उपभोक्ता के रूप में सजग होना होगा, सवाल पूछने होंगे, जांच करनी होगी, और सबसे जरूरी — अपने ज़मीर से समझौता नहीं करना होगा।

एक समय आएगा, जब मिलावटखोर खुद अपने घर की मिठाई भी चखने से डरेगा। जब समाज इतने नैतिक स्तर पर आ जाएगा कि झूठ बेचने वाला बाज़ार में खड़ा न हो पाए। पर वह समय तभी आएगा जब हम सब अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। वरना आज मूँगफली में पत्थर है, कल आत्मा में भी होगा।

जिन्हें लगता है कि मिलावट सिर्फ एक उपभोक्ता संकट है, वे बहुत सीमित सोच रहे हैं। यह संकट हमारे राष्ट्र की विश्वसनीयता का संकट है। अगर हम खुद अपने ही नागरिकों को नकली चीज़ें बेच रहे हैं, तो विश्व को क्या देंगे? “मेक इन इंडिया” की बात तब तक खोखली है, जब तक ‘मिलावट इन इंडिया’ का बोलबाला है।

अंततः यह लड़ाई खाने के स्वाद की नहीं, ज़िन्दगी की सच्चाई की है। क्योंकि आज का मिलावटी खाद्य पदार्थ सिर्फ स्वास्थ्य नहीं बिगाड़ता, वह पूरे समाज को बीमार करता है। एक पत्थर मूँगफली में ही नहीं, रिश्तों और भरोसे में भी चुभता है। और अगर अब भी हम नहीं जागे, तो अगली पीढ़ी को हम सिर्फ स्वादिष्ट ज़हर की थाली सौंपेंगे।

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