वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था में अमेरिका की भूमिका हमेशा से निर्णायक मानी जाती रही है। विशेष रूप से डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिकी नीतियों में एकतरफ़ा और आक्रामक दृष्टिकोण अधिक स्पष्ट रूप से देखने को मिला। हाल ही में अमेरिकी निवेश कंपनी जियोफ्रीज़ की रिपोर्ट ने इस बात की पुष्टि की है कि भारत के विरुद्ध ट्रंप प्रशासन द्वारा थोपे गए टैरिफ किसी तार्किक आर्थिक नीति का हिस्सा नहीं थे, बल्कि निजी खुन्नस और राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित कदम थे।
अमेरिका ने भारत पर व्यापारिक दबाव बनाने की कोशिश की, लेकिन भारत ने अमेरिकी दबाव के आगे झुकने के बजाय अपने राष्ट्रीय हितों और आत्मसम्मान को सर्वोपरि रखा। यह प्रसंग न केवल भारत-अमेरिका संबंधों की दिशा को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी बताता है कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में कोई भी देश अब एकतरफा धमकियों से प्रभावित होकर अपनी नीतियों को नहीं बदल सकता।
कृषि बाजार पर दबाव
अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार, ट्रंप प्रशासन चाहता था कि भारत अपना कृषि बाजार अमेरिकी उत्पादों के लिए खोल दे। लेकिन भारत सरकार ने स्पष्ट किया कि किसानों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा से समझौता संभव नहीं है। भारत में कृषि क्षेत्र देश की लगभग 40 प्रतिशत से अधिक आबादी को रोज़गार प्रदान करता है और यह अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। यदि अमेरिका के कृषि उत्पादों को बिना शर्त आयात की अनुमति मिल जाती तो भारतीय किसान गहरी मार झेलते। इसीलिए भारत ने लगभग 25 प्रतिशत कृषि उत्पादों पर उच्च टैरिफ बनाए रखा। यह कदम पूरी तरह भारतीय किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सुरक्षा के लिए आवश्यक था।
विद्वलीकरण का परिणाम
ट्रंप प्रशासन का झुकाव ‘विद्वलीकरण’ यानी डिग्लोबलाइजेशन की ओर रहा। मुक्त व्यापार की बजाय उन्होंने ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति अपनाकर मित्र राष्ट्रों पर भी मनमाने टैरिफ थोप दिए। जियोफ्रीज़ की रिपोर्ट के अनुसार, यह रवैया न केवल भारत बल्कि विश्व अर्थव्यवस्था के लिए भी घातक साबित हुआ। व्यापारिक संतुलन बिगड़ा, वैश्विक सहयोग कमजोर पड़ा और पारंपरिक मित्र देशों के बीच अविश्वास बढ़ा।
वास्तव में, इस प्रकार की नीतियाँ वैश्विक व्यवस्था को अस्थिर करती हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से दुनिया ने यह अनुभव किया है कि वैश्विक आर्थिक सहयोग और मुक्त व्यापार ही दीर्घकालिक समृद्धि का आधार है। जब अमेरिका जैसे महाशक्ति राष्ट्र ही इस सहयोग की उपेक्षा करते हैं तो अंतरराष्ट्रीय संबंधों में खटास आना स्वाभाविक है।
भारत-पाक मुद्दे पर तटस्थता
अमेरिका ने लंबे समय से भारत-पाक विवाद में हस्तक्षेप से परहेज़ किया है। ट्रंप ने भी इसी नीति का पालन किया। रिपोर्ट का यह भी कहना है कि शायद इसी वजह से उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने का अवसर नहीं मिल सका। किंतु भारत के लिए यह स्थिति लाभप्रद रही। क्योंकि भारत नहीं चाहता कि कोई तीसरा देश कश्मीर या द्विपक्षीय विवादों में मध्यस्थ बने। भारत की स्पष्ट नीति है कि पाकिस्तान के साथ मुद्दों का समाधान आपसी बातचीत से ही होगा।
धमकियों से मजबूत होता भारत
अमेरिका ने जब भारत पर टैरिफ और दबाव की नीति अपनाई, तो एक समय यह आशंका बनी कि भारत की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। किंतु वास्तविकता इसके विपरीत सामने आई। भारत ने अमेरिकी धमकियों को झुककर स्वीकारने की बजाय वैकल्पिक बाज़ारों और नए सहयोगियों की ओर रुख किया। यूरोप, एशिया और अफ्रीका के कई देशों से भारत ने व्यापारिक संबंध मज़बूत किए। इस प्रकार अमेरिका का दबाव अंततः भारत को और अधिक आत्मनिर्भर व दृढ़ बनाने में सहायक साबित हुआ।
ट्रंप प्रशासन की मनमानी व्यापार नीतियाँ अल्पकालिक लाभ की राजनीति से प्रेरित थीं, जिनसे न तो अमेरिका को कोई स्थायी फायदा हुआ और न ही वैश्विक अर्थव्यवस्था को। भारत ने इस दबाव के सामने आत्मसम्मान और राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी। आज की दुनिया में किसी भी देश को केवल धमकियों और अनुचित शर्तों से नियंत्रित करना संभव नहीं है।
भारत की यह नीति न केवल उसकी संप्रभुता की रक्षा करती है, बल्कि यह संदेश भी देती है कि विश्व व्यवस्था तभी संतुलित और स्थायी हो सकती है जब सभी देश समानता, सहयोग और पारस्परिक सम्मान के आधार पर आगे बढ़ें।
सुरेश गोयल धूप वाला