कुपित कुदरत का कहर या लापरवाही ? 

डॉ घनश्याम बादल

अपने नैसर्गिक एवं नयनाभिराम प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ उच्च गुणवत्ता के सेव उत्पादन के लिए प्रसिद्ध उत्तरकाशी गंगोत्री मार्ग का पर्यटकों का बेहद पसंदीदा हॉल्ट कैंप धराली आज सन्नाटे से घिरा है । वहां पर बसे हुए सत्तर अस्सी परिवारों में से अधिकांश के घर, दुकानें  व होम स्टे तबाह हो गए हैं एवं वहां का बाजार भी खत्म हो गया है । वहां स्थित शिव मंदिर को भी भारी क्षति पहुंचने का अनुमान है। 

      अस्सी गंगा एवं भागीरथी नदियों के तटीय क्षेत्र में बसा हर्षिल घाटी का यह सुंदर गांव पांच अगस्त की दोपहर 1:45 पर अचानक ही भारी चीखों एवं चीत्कारों से गूंज उठा जब अस्सी गंगा एवं सुक्खी टॉप से भारी मात्रा में मलबा एवं चट्टानें अचानक नीचे की तरफ लुढ़कने लगी।  पहाड़ों पर अक्सर होने वाले क्लाउडबर्स्ट यानी बादल फटने की घटनाओं के बाद  इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं लेकिन इतना भयावह दृश्य शायद उत्तरकाशी में 2019 में आए भूकंप के बाद पहली बार देखने को मिला है। 

    प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार केवल 34 सेकंड में ही सब कुछ तबाह हो गया और पहाड़ की गोद में बसे हुए घर,दुकान एवं होमस्टे तथा छोटे-छोटे होटल  ताश के पत्तों के महल की तरह ढह गए। उनमें रह रहे 70 से 80 परिवार और घूमने आए पर्यटक घरों से बाहर निकलने का भी मौका नहीं पा सके । आम आदमी की तो बात ही क्या, हर्षिल घाटी में सेना के शिविर के जवान भी अपनी रक्षा इस प्राकृतिक तबाही से नहीं कर पाए और मिली रिपोर्ट के अनुसार 11 जवान अभी तक लापता हैं।  सैकड़ो लोगों के मलबे में दबे होने की आशंका है यद्यपि वहां पर स्थित सैन्यकर्मियों एवं स्थानीय लोगों ने हिम्मत करके 130 लोगों को मलबे से बाहर भी निकाल लिया है। एनडीआरफ और एसडीआरएफ तथा तिब्बत पुलिस एवं सेवा के जवान लगातार वहां पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं ‌ लेकिन 24 घंटे बाद तक भी सहायता के लिए तैनात एवं भेजी गई टीमें घटना स्थल तक नहीं पहुंच पा रही हैं क्योंकि धराली, हर्षिल एवं भटवाड़ी जैसी जगहों को जोड़ने वाली अधिकांश सड़कें बुरी तरह क्षतिग्रस्त हैं तथा नदी में भारी मात्रा में गाद एवं कीचड़ समा गया है । मौसम की खराबी के चलते हेलीकॉप्टर से भी पर्याप्त सहायता नहीं पहुंचाई जा पा रही है और  अभी भी मौसम विभाग की भविष्यवाणी राहत का संकेत नहीं दे रही है । अगले 24 घंटे में इस क्षेत्र में एक बार फिर से भारी बारिश हो सकती है ।       

     यद्यपि उत्तराखंड की सरकार ने  राहत कर्मियों की टीम को घटनास्थल के लिए रवाना कर दिया है एवं हेलीकॉप्टरों से भी सहायता भेजी जाने के प्रयास चल रहे हैं लेकिन अभी भी हालत बेहद चिंताजनक हैं।

      उत्तराखंड का उत्तरकाशी जिला पहले से ही अति संवेदनशील क्षेत्रों में शामिल रहा है. यहां न केवल 2019 में प्रचंड भूकंप आया था बल्कि बहुत पहले से ही बादल फटने एवं भूस्खलन की घटनाएं होती रही हैं । 

    यहां का इतिहास बताता है कि सन् 1750 में भी यहां पर भागीरथी नदी एवं उसके आसपास के क्षेत्र में बहुत बड़ा बादल विस्फोट हुआ था और तब भी सैकड़ो जानें चली गईं थीं । बीच-बीच में बादल फटने एवं भूस्खलन तथा भारी वर्षा या बर्फबारी की वजह से पस्थितिकी का क्षतिग्रस्त होना जारी रहा लेकिन 1978 में यहां पर एक बार फिर से बादल फटने से भारी तबाही मची. एक प्रत्यक्षदर्शी ने बताया कि जहां से अब सुक्खी गंगा एवं अस्सी गंगा तथा भागीरथी नदी तबाही मचाते हुए निकली है, 1978 में यही नदियों का मुख्य प्रवाह क्षेत्र था।   कह सकते हैं कि नदियों के इस प्रवाह क्षेत्र पर मनुष्यों ने कब्जा कर लिया और शायद इसी गुस्से में प्रकृति ने अपना इलाका फिर से खाली करा लिया है। ‌

   यह अजीब संयोग  है कि 1978 में भी 5 अगस्त को ही यहां पर ऐसी तबाही मची थी । उसके बाद 2023 एवं 2024 में भी यहां बादल फटने एवं आतिवृष्टि का तांडव देखने को मिला लेकिन न सरकार चेती, न ही वहां बसने वाले लोगों अथवा प्रशासन ने सुरक्षा के अच्छे प्रबंध किए जिसका नतीजा आज सैकड़ो लोगों को अपना जीवन गंवाकर भुगतना पड़ा है। ‌

    विकास की अंधी दौड़ के सबसे ज्यादा शिकार पहाड़ी क्षेत्र ही हुए हैं. वहां तक सुविधाएं एवं सड़क पहुंचाने के लिए बिना किसी खास भू सर्वेक्षण या विशेषज्ञों की राय लिए पहाड़ों का काटना लंबे समय से चल रहा है । पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए इन क्षेत्रों को सुगम बनाने के लिए भी तथा अपनी स्वार्थ पूर्ति या दूसरी वजहों से भी लगातार वनों का कटान जारी रहा है जिसके चलते हुए देवदार या चीड अथवा साल के वृक्ष जिनकी जड़ें गहराई तक जाकर मिट्टी को जकड़ लेती थी, खत्म होते गए और पहाड़ अंदर से दरदरा और भुरभुरा होता चला गया । इससे भी ज्यादा ख़राब बात यह हुई कि वहां पर लोगों को रोज़गार दिलाने के अवैज्ञानिक तरीके अपनाए गए और पहाड़ों पर बहुमंजिली इमारतों के रूप में सीमेंट एवं लोहे के सरियों का वज़न और बढ़ा दिया गया । रही – सही कमी पर्यटकों की बढ़ती हुई संख्या के चलते हुए प्लास्टिक एवं दूसरे पर्यावरण प्रदूषण ने पूरी कर दी । नतीज़ा एक बार फिर भारी तबाही एवं जान-माल की क्षति के रूप में सामने आया है। 

   बेशक हर क्षेत्र को विकास का हक है और बिना विकास के जीवन भी आगे नहीं बढ़ सकता लेकिन यह दायित्व सरकारों एवं प्रशासन का है कि वह मानकों की अनदेखी न करने दे, न ही स्वयं इस प्रकार के निर्माण करें कि वहां की भौगोलिक एवं प्राकृतिक स्थितियां बिगड़ती चली जाएं। 

    पिछले दिनों से देश भर में उत्तर पूर्व क्षेत्र के राज्यों व हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश का पर्वतीय इलाका, जम्मू कश्मीर जैसे राज्य लगातार प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहे हैं।  इतना ही नहीं, इस बार तो राजस्थान एवं गुजरात को भी बाढ़ का सामना करना पड़ा है । 

    मौसम का चक्र लगातार बदल रहा है और बावजूद सैटेलाइट सुविधाओं के मौसम की अनिश्चितता की भविष्यवाणी या तो सटीक नहीं हो पाती है या भविष्यवाणी के बावजूद बचाव राहत एवं सुरक्षा के उचित कदम समय से नहीं उठाए जाते हैं जिसकी वज़ह से वहां के निवासियों को भीषण प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ता है। 

   सवाल केवल धराली, भटवाड़ी या हिमाचल के मंडी, धर्मशाला अथवा दूसरे इलाकों में हुए जान माल के नुकसान मात्र का नहीं है । असली मुद्दा तो यह है कि यह अवैज्ञानिक तरीके का विकास और सरकारों की लापरवाही या अनदेखी अथवा मानकों के उल्लंघन की प्रवृत्ति कब तक लोगों की जान लेती रहेगी ? 

डॉ घनश्याम बादल 

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