राजनीति

अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और सरकार

आर. सिंह

सच पूछिए तो बहुत से तथ्य अब एक साथ उभड कर सामने आ रहे हैं . अन्ना हजारे ने चार अप्रैल को जन्तर मन्तर में सत्याग्रह और अनशन आरम्भ किया. क्या समय चुना था उन्होंने या उनके सहयोगियों ने. अभी अभी भारत ने एक दिवसीय क्रिकेट का विश्वकप जीता था. पूरा युवक वृन्द उत्साह से भरा हुआ था. ऐसे भी भ्रष्टाचार एक ऐसा नासूर बन बन गया है कि उसके विरुद्ध कुछ भी करने पर सहयोग मिलना हीं है. बहुत दिनों से ऐसा कुछ हुआ भी नहीं था. अन्ना हजारे को एक गांघी वादी सामाजिक कार्य कर्ता के रूप में कुछ शोहरत भी मिल चुकी थी पर राष्ट्रीय मंच पर उनका आगमन एक तरह से अचानक ही दिख रहा था. उसके पहले बावा रामदेव रामलीला मैदान में अपनी लीला दिखा चुके थे और उनको अपेक्षा से अधिक ही सहयोग मिला था.

अन्ना हजारे के पक्ष में दो बातें थी. एक तो उपुक्त समय का चुनाव और दूसरा उनका सब राजनैतिक दलों से दूरी बनाए रखना. ऐसे तो कांग्रेस यह कहने से बाज नहीं आ रही है कि अन्ना हजारे को भी संघ परिवार का सहयोग प्राप्त था,पर सत्यता इससे कोसों दूर है. अन्ना हजारे को अपने मुहीम में अप्रत्याशित सफलता मिली. चार दिनों का अनशन ने पहले दौर में ऐसा प्रभाव छोड़ा जिसकी कतई उम्मीद नहीं थी. रामदेव और उनके समर्थकों को यह कतई गवारा नहीं हुआ कि उनके अभियान पर कोई दूसरा हावी हो जाए, पर जिन्होंने जेपी का आन्दोलन देखा था या उसके हर पहलुओं का अध्ययन किया था उनको ज्ञात था कि हो हल्ला मचा कर अगर किसी तरह सत्ता परिवर्तन कर भी लिया गया तो १९७७ से अच्छा होने की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि ढांचा तो वही रहेगा न. चूंकि एक तरह से रामदेव भी वही कर रहे है जो जेपी ने किया था, अतः कुछ अर्थों में उनका आंदोलन जेपी के आंदोलन की पुनरावृति है, हालांकि कुछ अंतर भी है. ऐसे इस बार सत्ता परिवर्तन भी उतना आसान नहीं.सत्ता परिवर्तन हो भी जाए तो दूसरी सरकार एक तो रामदेव और उनके अनुयायियों की बने इसकी सम्भावना नहीं के बराबर है और ऐसा हो भी जाये तो इसका दावा कौन कर सकता है कि वर्तमान ढांचे में वे भी अलग व्यवहार करेंगे. ऐसे भी अन्ना हजारे और रामदेव में बुनियादी अंतर है और यह अंतर उस समय और स्पष्ट हो गया जब उनके मंच पर आने वाले लोगों का मुयायना किया गया .जिन नेताओं और राजनैतिक कार्यकर्ताओं को अन्ना के मंच के पास भी फटकने नहीं दिया गया था और उस की विशेषता यह थी कि यह मापदंड सभी राजनैतिक दलों के लिए बिना भेद भाव के लागू था, वहीं रामदेव के मंच को देख कर तो ऐसा लग रहा था की उनको एक दल विशेष का अनुग्रह प्राप्त है. ऐसे कहा कुछ भी जाये ,पर अन्ना को किसी दल विशेष से जोड़ना आसान नहीं है पर रामदेव का तो गढ़ वही है जो संघ परिवार का है. काग्रेस को भी यह बात अच्छी तरह ज्ञात थी, अत: उनको रामदेव के रूप में एक ऐसा हथियार दिखा , जिसके सहारे वे एक तीर से दो शिकार कर सकते थे.पहला तो आपसी मतभेद को सामने लाकर अन्ना के प्रभाव को कम करना, क्योंकि कांग्रेसियों को एक तो अन्ना अधिक खतरनाक दिख रहे थे. दूसरे कोई भी सरकार यह नहीं चाहेगी की दवाव में आकर उसे ऐसा कार्य करने के लिए मजबूर किया जाए जिससे उसको हानि के अतिरिक्त कुछ हासिल न हो. भ्रष्टाचार से प्रत्यक्ष रूप से वर्तमान सरकार को कोई हानि होती तो दिखती नहीं.जनता तडपती है तो तडपती रहे.अगर इसमें कमी आती है और उसका श्रेय कोई अन्य ले जाता है तो जग हसाईं भी अपनी. रामदेव को उछालने से संघ परिवार के वोट बैंक में सीधा सीधा छिद्र हो रहा था. साथ ही साथ लाभ यह था कि भ्रष्टाचार विरोधी दो खेमे खडे हो रहे थे और उनके आपसी टकराव की संभावना अधिक थी. रामदेव को वश में करना भी आसान लग रहा था,क्योंकि इस अभियान में उनका स्वार्थ जुड़ा हुआ था. अन्ना हजारे एक ऐसे आदमी का नाम है जिनके पास खोने के लिये शायद कुछ भी नहीं है. दूसरी ओर बाबा रामदेव हैं , जिनका अपना साम्राज्य है.उनकी महत्वकांक्षा भी बहुत ज्यादा है. उनका आंदोलन यद्पि जेपी के संपूर्ण क्रांति वाले आंदोलन से मिलता जुलता है,पर वे जेपी की तरह तटस्थ नहीं हैं. जेपी के आंदोलन की सफलता का एक पहलू यह भी है जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता. ऐसे रामदेव की लिप्तता से एक लाभ तो है . वह यह कि शासन की बागडोर अपने हाथ में लेकर वे ऐसा कुछ कर सकें ,जो जेपी चाह कर भी नहीं कर पाये थे,चूंकि सत्ता की बागडोर उनके हाथों में नहीं थी. यद्यपि इस तरह के त्याग का हमारे देश में बहुत सम्मान है, जिसका जीता जागता उदाहरण सोनिया जी हैं, पर यह एक तरह से पलायन भी है, जिम्मेवारियों से भागना है. बाबा के ढंग से आंदोलन चलाने का सबसे बडा घाटा यह है कि जनता की निगाह में कल के त्यागी बाबा आज सत्ता लोलूप नजर आने लगे हैं. अन्ना हजारे की प्रथम जीत और बाबा की पहली पारी में हIर के लिये कुछ हद तक यह अंतर भी जिम्मेवार है. कांग्रेस का विचार मंच ऐसे भी अन्ना हजारे के अनशन के समय इसके लिये तैयार भी नहीं था और शायद उन्हें इतनी सफलता की उम्मीद भी नहीं थी. सबसे बडा डर चुनाव के परिणामों पर असर पडने का था.कांग्रेस ने किस तरह भ्रष्टाचार का ठीकरा डीमके के माथे पर फोडा,यह चुनाव परिणामों से साफ जाहिर हो गया.लगता है यहीं से कांग्रेस की नीति भी बदल गयी.उन्होने समझ लिया कि इस बार के भ्रष्टाचार वाले मामलों में शायद वे जनता को समझाने में सफल हो जायेंगे,क्योंकि धर पकड़ तो उन्होने जारी कर ही दी है.

आज बाबा रामदेव हाशिये पर चले गये हैं.वह फिर कब सक्रिय हो पायेंगे यह तो भविष्य ही बतायेगा. अब यह देखना बाकी है कि अन्ना और उनके सहयोगी कहाँ तक सफल हो पाते हैं.हमारा राष्ट्रीय चरित्र ऐसा है कि हम व्यक्तिगत स्वार्थ और तत्कालिक लाभ से उपर उठ ही नहीं पाते.इस माहौल में भ्रष्टाचार आंदोलन के इस अध्याय का बिना किसी परिणाम के समाप्त होने के लक्षण अवश्य दिखाई पड़ रहे हैं.

ज्यादा से ज्यादा शायद यही हो कि कुछ फेर बदल के साथ वर्तमान लोकपाल व्यवस्था को थोड़ा और चमकदार बना दिया जाये.यह भी खैर भविष्य के गर्भ में ही है,पर यह भी हो सकता है कि अन्ना को दूसरी बार में और ज्यादा सहयोग मिले और सरकार को पूर्णतः झुकना पडे़,पर उसकी सम्भावना कम ही है.