राजनीति

अन्ना आंदोलन : श्राद्ध अभी बाकी है मेरे दोस्त!

जगमोहन फुटेला

देहात की एक पुरानी कहावत है कि किसी से बदला लेना हो तो उस के बेटे को कार ले के दे दो. पहले तो वो घर का काम छोड़ के बाहर डोलता फिरेगा. बची बचाई पूँजी तेल में फूंक देगा. और फिर एक दिन दुनिया को अपनी ड्राइविंग दिखाने के चक्कर में कार कहीं ठोक के खुद दुनिया छोड़ जाएगा. मां बाप को खाट से लगा जाएगा. पार्टी बना लेने का ख़्वाब दे के अकलमंदों ने अन्ना के साथ वही किया है. भ्रष्टाचार मिटाने वाले मसीहा के रूप में उनकी छवि आज गई. राजनीतिक दल के रूप में औकात कल बाहर आ जाएगी. अन्ना आंदोलन की ये परिणति होनी ही थी.

 

मरवा दिया अनाड़ियों ने अन्ना को. अकल के अंधे तो पहले भी थे. अपने कपड़ों से बाहर भी. भीड़ देख के फ़ैल गए. खुद को पगलाने से नहीं रोक नहीं सके. और फिर मंत्री भी आने, समझाने लगे तो समझने लगे कि बस हवा सरक गई सरकार की भी. ऊपर से महान देश का महान मीडिया. उस के पास कुछ था नहीं चलाने को. कहीं से दो मिनट की एक शूट भी मंगाओ, लिखवाओ, कटवाओ, चलाओ तो पांच दस हज़ार लग जाते हैं. इधर फ्री में घंटों का साफ्टवेयर मिल रहा था. बना बनाया. मीडिया अपनी फटी सिलने में लगा था. अन्नाइयों को भ्रम हो गया कि उनका जंतर मंतर तहरीक चौक हो गया है और क्रांति बस हुआ ही चाहती है. केजरीवाल जैसे लोग, जिन्हें अन्यथा कोई हवलदार पुलिस चौकी के सामने खांसने तक न देता, संसद और सांसदों के लिए जो जी में आये बकने लगा. आम लोगों को भी लगा कि ले भई आदमी तो तगड़ा है. ये भरेगा भूसा एमपियों के.

 

और केजरीवाल कंपनी फ़ैल गई. हिसार तक. मुझे बताया भीतर के एक बंदे ने एक पार्टी ने कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने के लिए पचास लाख रूपये दिए इन लोगों को. सूचना गलत हो सकती है लेकिन इस में क्या शक है कि जब किसी के भी कहीं करोड़ों खर्च हो रहे हों .चुनाव में जा के आने, बोलने, करने से हार और जीत हो सकती हो तो कोई बिना सुरक्षा कवच दिए आपको बुलाएगा क्यों और आपको अपनी खाट खड़ी कर के बड़े आराम से निकल भी जाने कैसे देगा कोई? और फिर जब वैसे भी हार ही जाने वाली कांग्रेस हार भी गई तो आपने पूरे देश में ढोल बजा बजा के कहा कि देखो हमने हराया है. अरे भई, तुम ही मारने जियाने वाले खुदा थे उस के कोई महीने भर बाद रतिया क्यों न गए? जहां वही कांग्रेस पिछली बार हारी हुई सीट भी एक बहुत बड़े अंतर से जीती. आपका आंदोलन चल रहे होने के बीच.

 

जैसे हिसार में कहा लोगों ने ऐसे ही यूपी में आप की छवि ये थी कि मायावती से पैसे लिए आपने. वरना उन के तो अनुयाई कहाँ सुनते हैं किसी की. आने ही नहीं देते आप को और आ गए थे तो लौटने नहीं देते. वे हार गईं. आप को आंदोलन के लिए ‘ऊर्जा’ कहाँ से मिलती रही आप जानें. लेकिन सदबुद्धि कहीं से नहीं मिली. मुंबई में अनशन किया आपने. औकात बाहर आ गई. और फिर अब दिल्ली आये तो वहां भी. इस बार तो तय कर लिया था कांग्रेस ने कि मरने पे उतारू हो तो मर ही जाने देना है केजरीवाल को. मिलने तो क्या ही आना था किसी ने एक अपील तक नहीं हुई. भीड़ नहीं आई तो मीडिया को लगे गरियाने, धकियाने आप. और फिर अपना तुरुप भी नंगा कर दिया आपने. अन्ना को भी बिठा दिया अनशन पे. जैसे उन के आ जाने से सरकार बौखला उठेगी. हुआ क्या? न सरकार डरी, न भीड़ ही घर, दफ्तर, अस्पताल छोड़ के पिल पड़ी आपके आंदोलन में. सच तो ये है कि अपना इक्का चलने के बाद भी आप अनशन तोड़ लेने का बहाना खोज रहे थे. उस के लिए इस बार श्री श्री भी नहीं आए. राखी के दिन कोई राखी सावंत तक नहीं आई. अपना अनशन खुद ही तोड़ लेने का फैसला करना पड़ा आप को. बहाना बनाया इक्कीस लोगों की उस चिट्ठी को जिस में आपको पार्टी बनाने की कोई सलाह या उस में शामिल होने की कोई इच्छा नहीं लिखी गई.

 

समाजवादी नेता प्रो.मोहन सिंह को सुन रहा था मैं. बता रहे थे कि कैसे जय गुरुदेव को भी भीड़ देख कर भ्रम हो गया था कि देश उन के साथ है. उन ने पार्टी बनाई. चुनाव लड़ा. एक भी उम्मीदवार की ज़मानत तक नहीं बची कहीं भी पूरे देश में. मुझे पूरा यकीन है कि उन की तो सिर्फ ज़मानत तक नहीं बची थी. आपकी शायद अस्मत तक न बच पाए. पालिटिकल पार्टी बना और चला पाना आसान नहीं होता. और अगर आपको लगता है कि पैसों की कमी नहीं रहेगी तो कमी तो कभी उन अंबानियों, बिरलाओं और ताताओं को भी नहीं रही जिनके हर दिन हज़ार लफड़े होते हैं सरकारों से मगर फिर भी अपनी पार्टी के बारे में उन्होंने कभी सोचा तक नहीं. रही सोच और विचारधारा की बात तो बात तो आप फिर ग़लतफ़हमी में हो. दुनिया में साम्यवाद से बड़ी विचारधारा आज भी कोई नहीं है मगर इस के बावजूद रूस बिखर गया है, बंगाल में कामरेड आज कंगाल हैं और बाकी देश के कम्युनिस्टों को कभी पूँजीवाद के सब से बड़े हिमायती प्रणब मुखर्जी को वोट देना पड़ता है.

 

ये तो पढ़ा था कि लोकतंत्र मूर्खों का, मूर्खों के लिए भीड़ तंत्र है. मगर ये नहीं देखा था कि भीड़ देख के सयाने समझदार भी बेवकूफ बन जायेंगे. क्या समझ के चल रहे थे आप कि आपकी भीड़ में जो बस कंडक्टर आए वो सारे सारी सवारियां टिकटें काट कर चढ़ा रहे थे बसों में? या बाबू आ रहे थे बाकायदा छुट्टी ले और अपना सारा काम निबटा के? दुकानदार सारा सामान सिक्केबंद ही बेच रहे हैं और क्लर्क ऐसा कोई नहीं जिस ने कभी रिश्वत ली हो? क्या लगता है कि सब जीने मरने को तैयार हो के आए थे सब सोच समझ और ज़रूरी हो तो अपने माँ बाप को भी छोड़ देने की प्रतिबद्धता के साथ और उन में महज़ तमाशबीन कोई नहीं थे? …क्या आपको पता है कि सांसदों को खुलेआम गरियाने के बाद न सिर्फ शरद यादव और उन के साथ भाजपा समेत बाकी दलों से जुड़े छोटे बड़े लोग भी आपसे कन्नी काटने लगे थे. अब की दिख ही रहा था जंतर मंतर पे.

 

पालिटिकल पार्टी बनाने का फैसला भी आपका सोचा समझा कम, फ्रस्ट्रेशन की उपज ज्यादा है. सरकार सुने न, अरविन्द केजरीवाल मरे न तो और आप कर भी क्या सकते थे? दो ही विकल्प थे. या तो चुपचाप दुकान समेटें और घर चले जाएँ. कभी फिर वापिस न आने के लिए. या फिर कुछ ऐसा करें कि घाटे में चले बेशक मगर दुकान कुछ दिन और चले. आपने दूसरा विकल्प चुना और बहुत खतरनाक है. इस का सब से बड़ा खतरा तो यही है कि इस ने आपकी अब तक की सारी मेहनत और जैसी भी बनी उस छवि को पहले ही पल मिटा दिया है. आप की पहचान अब इस देश में उस संत की तरह है जिस का कोई धर्म नहीं है. उस नेता की तरह है जिस का कोई दल नहीं है और उस आदमी की तरह जिस का कोई स्टैंड नहीं है. टीम भी जिस के पास ऐसी है कि जो दूसरों का कम मगर अपना नुक्सान ज्यादा करती है.

 

अभी तक आप की टीम का बनाया जन लोकपाल बिल समझ में नहीं आया किसी की. अब उसे चुनाव में जा सकने लायक पूरे का पूरा एजेंडा तैयार करना है. आर्थिक, राजनीतिक, विदेशी नीति बनानी और बतानी है. संगठन तैयार करना है अपनी सियासी सोच से सहमत लोगों का. वो सोच क्या, किन के लिए होगी ये भी समस्या है. इस देश में राईट है, सेंटर है और जैसा भी है लेफ्ट भी है. बंगालियों के कामरेड, मुसलमानों के सिर्फ समाजवादी और सिखों के सिर्फ अकाली हो सकने का मिथक भी टूट चूका है. जाट एक साथ एक ही समय पर हरियाणा में किसी एक तो साथ लगे यूपी और राजस्थान में दो अलग पार्टियों के साथ होते हैं. तो आपका पालिटिकल प्रबंधन कौन सी नई अवधारणा ले के आने वाला है, अन्ना?

 

मुझे याद है जब भीड़ देख के ग़लतफ़हमी पल जाने की बात मैंने लिखी थी तो लोगों ने मुझे गालियाँ दीं थीं. अब समय आ गया है कि वो लोग आप को देंगे और आप अपने साथियों को. वीडियो फुटेज मिल जायेगी. अब आप अपनी पार्टी की तरफ से भीड़ जुटा के देखना कितने लोग आते हैं. कार्यकर्ता छोड़ो, कहीं से किसी भी टिकट ले के नेता हो सकने वाले लोग भी नहीं मिलने वाले हैं आप को. आप के साथ जिस आंदोलन के लिए मरने मारने तक पे उतारू हो गए थे लोग वो भी अब अपने आप को आप का साथी बता कर जैसी भी है उस व्यवस्था के दुश्मन नहीं दिखना चाहेंगे. आप की पार्टी की फ़्रैन्चाइज़ी भी कोई न लेगा स्टेटों में.

 

पंजाबी में एक कहावत है कि पीट देने से पीट देने का डर दिखाते रहना ज्यादा अच्छा होता है. जैसे, बंद मुट्ठी लाख की, खुल गई तो राख की. बहुत बेहतर होता कि आप पहली बार ही अनशन पे बैठे न होते. बैठ ही गए थे तो जो लेना था ले के ही उठाना था. बीच में किसी को भी कहीं भी किसी भी चुनाव शुनाव में जा के कोई धंधा या उपकार करने की इजाज़त नहीं देनी थी. न किसी को संसद जैसी संस्थाओं को गरियाने की छूट. और अब जब नहीं हो पाया था कुछ तो ह़ार ही मान लेते अपनी. लोग सर आखों पे बिठा लेते आपको. पालिटिकल पार्टी बनाने की बात कतई नहीं कहनी थी. आप को पता नहीं है अन्ना जी कि आपने कितना बड़ा नुक्सान कर दिया है इस देश का. दुःख इस बात का है अन्ना, कि अब आप को भूल जाने तक इस देश में अब कोई किसी को अन्ना नहीं मान पाएगा !