राजनीति

क्या काम के दबाव में बीएलओ की मौतें हो रही हैं

राजेश कुमार पासी

देश के 12 राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में 4 नवंबर से मतदाता सूची की विशेष गहन पुनरीक्षण(एसआईआर) की प्रक्रिया चल रही है । विपक्षी दलों की कई सरकारों ने इस प्रक्रिया के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की हैं और माननीय अदालत द्वारा उन पर सुनवाई जारी है । बिहार में चुनाव आयोग इस प्रक्रिया को पूरी कर चुका है और उसका भी विपक्षी दलों ने जबरदस्त विरोध किया था । बिहार में जब एसआईआर की प्रक्रिया चल रही थी तो कई दल इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए थे लेकिन माननीय अदालत ने इस प्रक्रिया पर रोक लगाने से इंकार कर दिया । जब इस प्रक्रिया का दूसरा चरण शुरु किया गया तो विपक्षी दल एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए हैं । बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो इसके खिलाफ एक मार्च भी निकाल चुकी हैं ।

वैसे देखा जाए तो चुनाव आयोग कोई नया काम नहीं कर रहा है बल्कि भारत में ये प्रक्रिया पहले भी 11 बार की जा चुकी है । हैरानी की बात यह है कि पहले इस प्रक्रिया के बारे में किसी को पता भी नहीं चला क्योंकि इसका बिल्कुल भी विरोध नहीं हुआ था । देखा जाए तो यह चुनाव आयोग का संवैधानिक कर्तव्य है जिसे वो पूरा कर रहा है । इसके लिए संविधान द्वारा ही उसे अधिकार दिए गए हैं जिनके अनुसार वो काम कर रहा है, यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट भी इसमें दखल नहीं दे पा रहा है । अजीब बात है कि जो विपक्ष संविधान की प्रति सिर पर उठाकर पूरे देश में घूमता रहता है, वो एक संवैधानिक काम को रोकने की पूरी कोशिश कर रहा है ।

इस प्रक्रिया द्वारा मतदाता सूची को अपडेट किया जाना है । इसमें 18 साल से ज्यादा उम्र के नए मतदाताओं को जोड़ा जाएगा । जिन लोगों की मौत हो चुकी है या वो लोग जो स्थायी रूप से अपना घर छोड़ चुके हैं, उनका नाम इस प्रक्रिया द्वारा हटाना जाना है । इसके अलावा मतदाता सूची में नाम और पते में हुई गलतियों को ठीक किया जाना है । चुनाव आयोग द्वारा एसआईआर कराने का उद्देश्य यह है कि कोई भी योग्य मतदाता सूची में न छूटे और कोई भी अयोग्य मतदाता सूची में शामिल न हो । इस काम के लिए चुनाव आयोग ने सभी राज्यों में बीएलओ की नियुक्ति की है । सभी बीएलओ सरकारी कर्मचारी हैं, जिन्हें एक निश्चित समय के लिए चुनाव आयोग द्वारा दिए गए काम को पूरा करना है । इसके लिए इन्हें घर-घर जाकर फार्म देना है और फिर उसे लेकर मतदाता सूची में अपडेट करना है । 

                चुनाव आयोग के पास चुनावी कार्य के लिए कर्मचारी नहीं होते हैं. वो यह काम राज्य और केंद्र सरकार के कर्मचारियों से करवाता है । इसके लिए संविधान में उसको अधिकार दिए गए हैं जिसके द्वारा वो इन कर्मचारियों को निश्चित समय के लिए उपयोग करता है । चुनावी कार्य अनिवार्य सेवा है जिसको करने से कर्मचारी इंकार नहीं कर सकता । एक निश्चित अवधि तक कर्मचारी चुनाव आयोग के अधीन होता है और उसे दिया गया कार्य पूर्ण करना होता है । बहुत जरूरी होने पर ही कर्मचारी को चुनावी कार्य से छूट मिल सकती है । मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 22 दिन में 7 राज्यों में 25 बीएलओ एसआईआर की प्रक्रिया के दौरान मर चुके हैं । सबसे ज्यादा 9 मौतें मध्यप्रदेश में हुई हैं जबकि तमिलनाडु और केरल में एक-एक बीएलओ मारे गए हैं । इसके अलावा बंगाल में 3 मौतों की खबर है जबकि वहां ही बीएलओ की मौत बड़ा मुद्दा बनी हुई है । पश्चिम बंगाल के मंत्री अरूप बिश्वास ने कहा है कि एसआईआर के चलते राज्य में 34 लोगों ने जान दे दी है । इन मौतों का चुनाव आयोग ने भी संज्ञान लिया है और सभी राज्यों से रिपोर्ट मांगी गई है । विपक्ष आरोप लगा रहा है कि बीएलओ काम के दबाव में अपनी जान दे रहे हैं । मानसिक तनाव के कारण कई बीएलओ के हार्टफेल से मरने की भी खबर है । चुनाव आयोग का कहना है कि फार्म बांटने का 99 प्रतिशत काम पूरा हो गया है और 70 प्रतिशत फार्म जमा भी हो गए हैं । कई राज्यों में तो 80-90 प्रतिशत फार्म अपलोड कर दिये गये हैं ।

उत्तरप्रदेश और केरल में फार्म अपलोड करने का काम धीमी गति से चल रहा है और लगभग आधे फार्म ही अपलोड किए गए हैं । देखा जाए तो बीएलओ ने अपने हिस्से का काफी काम पूरा कर दिया है। यह इसलिए संभव हुआ है क्योंकि बीएलओ ने अपना काम जिम्मेदारी से किया है। हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था में चुनाव की बड़ी अहमियत है क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार चुनाव ही होते हैं। चुनाव का लगभग सारा काम सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों द्वारा किया जाता है। एसआईआर का काम भी चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा है जो 5-10 साल में एक बार किया जाता है। इस बार यह काम 22 साल बाद हो रहा है, इसलिए काम का कुछ दबाव हो सकता है। सवाल यह है कि क्या बीएलओ काम के इतने दबाव में हैं कि वो आत्महत्या तक करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। क्या एसआईआर करना इतना मुश्किल है कि सरकारी कर्मचारी इस काम को करने में मुश्किल महसूस कर रहे हैं। कुछ बीएलओ की मौत से यह सवाल खड़ा हुआ है और विपक्षी दलों ने भी इसे मुद्दा बना दिया है। उनका कहना है कि सरकार का बीएलओ पर इतना दबाव है कि वो मानसिक तनाव के कारण आत्महत्या तक करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। 

               मैंने 27 साल सरकारी नौकरी की है और अपनी सेवा के दौरान मैंने तीन बार चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा लिया है। इसके अलावा 2011 की जनगणना में भी भाग लिया है। इन कामों के लिए सरकारी कर्मचारियों का ही इस्तेमाल किया जाता है और ये काम अनिवार्य सेवा की प्रकृति के होते हैं। जब इन कामों के लिए एक सरकारी कर्मचारी की नियुक्ति की जाती है तो वो इससे इनकार नहीं कर सकता । कुछ विशेष परिस्थितियों में ही उसे इस सेवा से मुक्त किया जा सकता है। सच तो यह है कि इन कामों को ज्यादातर कर्मचारी एक बोझ की तरह देखते हैं ।  चुनाव और जनगणना के कार्य में किसी किस्म की लापरवाही और हेराफेरी करने पर कर्मचारी की नौकरी पर खतरा आ सकता है । चुनाव कार्य के दौरान कर्मचारी पूरी तरह से चुनाव आयोग के अधीन हो जाता है और उसके द्वारा प्रदत्त कार्यो को उसे हर हाल में ईमानदारी से पूरा करना होता है। यह कहना गलत नहीं है कि चुनाव और जनगणना जैसे कामों के दौरान कर्मचारी दबाव तो महसूस करते हैं। सबसे बड़ी समस्या भी यही है कि सरकारी कर्मचारियों को दबाव में काम करने की आदत नहीं होती है। वास्तव में सरकारी नौकरी का मतलब ही मजे करना है और ज्यादातर विभागों में ऐसा ही होता है। वैसे कई सरकारी विभागों में भी कर्मचारियों और अधिकारियों पर काम का दबाव होता है ।

 बिहार में एसआईआर की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है जिसमें किसी भी कर्मचारी द्वारा आत्महत्या करने की खबर नहीं आयी और न ही किसी कर्मचारी के दिल के दौरे से मरने का समाचार प्राप्त हुआ । बिहार में एसआईआर के दौरान किसी भी कर्मचारी ने काम के दबाव का आरोप नहीं लगाया । चुनाव आयोग का कहना है कि इस प्रक्रिया के दौरान कर्मचारी को लगभग एक हजार मतदाताओं के फार्म बांटने और जमा करने हैं । यह काम कर्मचारियों के लिए नया नहीं है और इसके लिए उनको पूरा प्रशिक्षण दिया गया है। आयोग का कहना है कि अगर इन घटनाओं में सच्चाई है तो बिहार में ऐसी घटनाएं सामने क्यों नहीं आईं । उसका यह भी कहना है कि बिहार में तो कम समय में इस प्रक्रिया को पूरा किया गया है। इसके अलावा आयोग का कहना है कि दूसरे चरण की प्रक्रिया में बीएलओ को कोई दस्तावेज भी नहीं लेने हैं । आयोग ने कहा है कि ये घटनाएं तब सामने आ रही हैं, जब एसआईआर का अधिकांश काम पूरा हो गया है। उसका कहना है कि ये घटनाएं जिन राज्यों में सामने आई हैं, उनसे इस संबंध में रिपोर्ट मांगी गई है, लेकिन अभी तक किसी भी राज्य से रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई है। चुनाव आयोग का बयान ठीक हो सकता है लेकिन इस सच्चाई की अनदेखी नहीं की जा सकती कि दो दर्जन से ज्यादा कर्मचारियों की मौत गंभीर मामला है। इसकी जांच तो होनी ही चाहिए कि इन कर्मचारियों की मौत कैसे हुई हैं । आत्महत्या करने की कुछ और वजह भी हो सकती है लेकिन ये घटनाएं एसआईआर की प्रक्रिया के दौरान हुई हैं । इन सवालों का जवाब ढूंढने की जरूरत है। 

                मीडिया इन मौतों की बात कर रहा है, लेकिन इस समस्या का दूसरा पहलू भी है। बीएलओ पर सिर्फ काम का ही दबाव हो, ऐसा नहीं हो सकता है। उनकी आत्महत्याओं के कुछ और भी कारण हो सकते हैं। जिन बीएलओ की दिल के दौरे से मौत हुई हैं, उनका स्वास्थ्य पहले से खराब हो सकता है। इस प्रक्रिया में हज़ारो कर्मचारी शामिल हैं, जो एक महीने से ज्यादा समय से इसमें भाग ले रहे हैं। कुछ लोगों की मौत सिर्फ इत्तफाक भी हो सकती हैं। विपक्षी दल बीएलओ की मौत को मुद्दा इसलिए बना रहे हैं क्योंकि वो इन मौतों की आड़ में एसआईआर को रोकना चाहते हैं। विपक्ष इस प्रक्रिया को वोट चोरी का नाम दे रहा है जबकि यह सारा काम बीएलओ द्वारा किया जा रहा है। एक तरफ विपक्ष बीएलओ की मौत को मुद्दा बना रहा है तो दूसरी तरफ वो बीएलओ की ईमानदारी पर शक कर रहा है। इस काम में बीएलओ का सहयोग देने के लिए बीएलए की तैनाती भी की गई हैं। बीएलए राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हैं, जिन्हें संबंधित राजनीतिक दलों द्वारा नामांकित किया गया है।

 हो सकता है कि कुछ जगहों पर बीएलओ पर गलत काम करने का दबाव बनाया जा रहा हो । बीएलओ स्थानीय निवासी होते हैं, वो अपने इलाके के लोगों को जानते हैं। हो सकता है कि कुछ जगहों पर उन पर अयोग्य लोगों को मतदाता सूची में शामिल करने का दबाव बनाया जा रहा हो। यह भी हो सकता है कि कुछ जगहों पर उन पर योग्य लोगों को मतदाता सूची से बाहर निकालने का दबाव बनाया जा रहा हो। कुछ भी हो लेकिन सच्चाई जनता के सामने आनी चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति की जान की कीमत होती  है । बीएलओ की मौत देश का जरूरी काम करते हुए हुई हैं, इसलिए भी यह एक गंभीर मामला है । इस पर राजनीति से हटकर काम करने की जरूरत है और इस पर माननीय अदालत को भी संज्ञान लेना चाहिए।

राजेश कुमार पासी