अस्‍सी वाले स्‍वतंत्र बाबा कहीन “लोकतंत्र की फ्रीस्‍टाईल नूराकुश्‍ती”

– सिद्धार्थ मिश्र “स्‍वतंत्र”-   up-politics

राजनीति एक बार दोबारा अपने चिर-परिचित स्‍वरूप की ओर बढ़ चली है। वही स्‍वरूप जिसमें पद पिपासा और अवसरवाद सर्वाधिक लोकप्रिय सिद्धांत है। इस बात को देखकर मेरे बाबा का एक पुराना शेर याद आ गया जो वे अक्‍सर ही कहा करते थे,

सियासत नाम है जिसका वो कोठे की तवायफ है,

इशारा किसको करती नजारा किसको होता है…

सच में सियासत के हैरतअंगेज कारनामे समझ से परे हैं । वैसे इन दिनों सियासत में दो तीन प्रकृति के गंगाजल अस्तित्‍ववान हैं जो सुविधानुसार किसी पर भी छिड़ककर उसके समस्‍त पापों का प्रक्षालन किया जा सकता है । यथा तथाकथित राष्‍ट्रवादियों के पास राष्‍ट्रवादी गंगाजल तो सेक्लर श्रृंगारों के सेकुलर गंगाजल और ऐसा ही गंगाजल वामपंथियों के पास भी है । जिसे किसी पर छिड़का नहीं कि उसके समस्‍त पापों का प्रक्षालन हो गया । ऐसा ही कुछ बिहार में हुआ जब आशा का कमल खिलाने के लिये एक सेकुलर नाशवान पर तथाकथित राष्‍ट्रवादी गंगाजल का छिड़काव किया गया । इस छिड़काव के साथ ही नाशवान जी की समस्‍त विकृतियों का परिमार्जन हो गया ।  अब वे भी तथाकथित राष्‍ट्रवादी हैं… क्‍या बात है छा गये गुरू ? इसकी बानगी तमाम नेताओं के राजीव सदृश खिले चेहरों से लग जाती है कि–

हमने क्‍या खोया, हमने क्‍या पाया

बहरहाल क्‍या करना है, जनता तो है ही बेवकूफ, उसे तो बस लॉलीपाप चाहीये । रोजाना ही नये फ्‍लेवर का। सुना है आज कल चाय का फ्‍लेवर बेवकूफ बनाने के लिये बेहद लोकप्रिय है। अब एक पक्ष इतना बड़ा मुजरा आयोजित करे दूसरा कैसे चुप बैठेगा, लिहाजा आउल भी रिक्‍शा वालों के साथ काशी में कत्‍थक का रिहर्सल करने आ जुटे हैं। सुना है इस नंगई महासम्‍मेलन में कुत्सितता की रस मे पगी वादों के रागों पर आधारित ठुमरी का गायन भी होना है। जनता तो है ही रईस मुजरा देखा और झूम उठी। हमारे यहां एक ठो कहावत भी है,

नाचो गाओ तोड़ो तान…

बहरहाल जनता की सुविधा के लिये ये आयोजन तो खूब होंगे। भाई चुनावी वर्ष मे भी ये सौगात न मिली तो कब मिलेगी। इसलिये तो गालिब कहते थे–

खुश रहने को ये ख्‍याल अच्‍छा है।

जनता तो खुश रहने के ख्‍याल की मुरीद है, ऐसे में सियासतदान भला क्‍यों पीछे रहें। कहते भी हैं वचनं कीं दरिद्रता। तो महराज खूब लहालोट होइये, क्‍योंकि द शो मस्‍ट गो आन। वेदर विद प्रिंसिपल्‍स ऑर विद आउट प्रिंसिपल्‍स, क्‍योंकि सेंसर तो नेता की जेब में बैठा अपने हिस्‍से की चमकती चवन्नियां गिनने में मशगूल है। गिने भी क्‍यों न, इसी के चक्कर में उसने सब कुछ गंवाया अब च‍वन्नियां भी न मिलें तो हालात यही होंगे कि-

जातो गंवइली भातो न खइली।

एहीसे सबकर ध्‍यान भात पे लगल हौ । भाग्‍योदय का ये चुनावी वर्ष बीता उधर सारा रंडी नाच बंद और उसके घर बैठ कर अगले पांच वर्षों का इंतजार करो । इसलिये भईया रामनाम की लूट है लूट सके तो लूट । रामनाम का असर तो देख ही चुके हैं कि अति विशिष्‍ट महान सिद्धांतवादियों कैसे इसके प्रताप से अरबों खरबों छाप लिये थे । इस बार कोई और नाम सत्‍ता के बाजार में बिकने को तैयार बैठा है ।  जिसे बेचने के लिये सियासी सेल्‍समैनों की पूरी श्रृंखला गिद्धों की तरह मंडरा रही है । न केवल मंडरा रही है बल्कि साथ में सुरा और सुंदरी का ऑफर भी है बिल्‍कुल मुफ्‍त। अब करना क्‍या है जनता जाने … भाई मत तो उसी का है जिसे चाहे उसे दे। जहां तक नेता की प्रतिबद्धता का प्रश्‍न है तो वो स्‍पष्‍ट ही है कि

द शो मस्‍ट गो ऑन। वेदर विद प्रिंसिपल्‍स ऑर विदाउट प्रिंसिपल। प्रिंसिपल की दशा देखना तो स्‍कूलों में ही देख लें। अब तो वे गुजरे जमाने का गीत हैं-

क्‍या से क्‍या हो गया… बेवफा तुझसे रार में

रही बात जनता की तो उसे आजकल फ्रीस्‍टाईल में ज्‍यादा रूचि है । तो दिल थाम कर देखीये लोकलंत्र की फ्रीस्‍टाईल नूराकुश्‍ती ।

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