विवेकानंद की प्रासंगिकताः सार्धशती के समापन पर विशेष

0
163

विवेकानंद सार्धशती के समापन (12.1.2014) पर खासः vivekanand
व्यक्ति का इस धरा धाम पर आना और जाना सृष्टि का सनातन नियम है। जब से जगत नियन्ता ने इस सृष्टि का निर्माण किया, न जाने कितने लोग आये और अपना निर्धारित समय पूरा कर काल के गाल में समा गये; पर इतिहास उनमें से कुछ को ही याद करता है। स्वामी विवेकानंद उनमें से ही एक हैं।
ऐसा कहते हैं कि कुछ लोग जन्म से ही महान होते हैं। कुछ लोग अपने परिश्रम से महानता अर्जित करते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है। पर इतिहास की चक्की बहुत महीन पीसती है जिन पर महानता थोप दी जाती है, वे तभी तक सुर्खियों में रहते हैं, जब तक उनके परिजन या उनसे वैध-अवैध रूप से लाभान्वित हुए लोग सत्ता में रहते हैं। जैसे ही उनके हाथ से सत्ता छूटती है, वे तथाकथित महान लोग भी काल के प्रवाह में तिरोहित हो जाते हैं।
पर जो लोग जन्म से महान होते हैं या जिन्होंने परिश्रम से महानता अर्जित की होती है, उन्हें याद रखना इतिहास की भी मजबूरी होती है। या यूं कहें कि उन्हें याद किये बिना इतिहास की गाथा भी अधूरी रहती है। यहां एक श्रेष्ठ विचारक व राजनेता डॉ. राममनोहर लोहिया की बात याद आती है। उन्होंने कहा था कि किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के 300 साल बाद तक उसके नाम पर कोई सरकारी आयोजन नहीं होना चाहिए। यदि उसके नाम और काम में तेजस्विता है तो इतने वर्ष बाद भी वह जनता के मन-मस्तिष्क से ओझल नहीं होगा। इतिहास उसके व्यक्तित्व को अपनी बाहों में समेटकर स्वयं गौरव का अनुभव करेगा; पर यदि व्यक्ति के नाम और काम में दम नहीं है तो लोग उसे भूल जाएंगे।
इतिहास पर दृष्टि डालें तो श्रीराम और श्रीकृष्ण के नाम पर भारत ही नहीं, विश्व भर में लाखों नगर, गांव, मोहल्ले और कालोनियां हैं। हर दस में से एक व्यक्ति के नाम में भी राम और कृष्ण या उनका कोई पर्यायवाची शब्द मिल जाएगा। इसके लिए कभी किसी सरकार ने दबाव नहीं डाला; पर श्रीराम, श्रीकृष्ण, महावीर, गौतम, नानक… आदि महामानवों के नाम दुनिया भर के मानस पटल पर स्थायी रूप से अंकित है।

इसका एक दूसरा पक्ष भी है। यह कि भारत में कुछ नाम केवल सरकारी योजनाओं में ही जीवित हैं। नागरिकों के धन से चल रही योजनाओं में से अधिकांश एक विशेष परिवार को ही समर्पित कर दी गयी हैं। जैसे रावण, हिरण्यकशिपु या कंस.. आदि राक्षस किसी और का नाम सुनना पसंद नहीं करते थे, कुछ ऐसा ही हाल इस राजनीतिक परिवार का भी है। इतिहास गवाह है कि हजारों लोगों ने स्वाधीनता के लिए हंसते हुए फांसी का फंदा चूमा। इससे कई गुना लोग अंग्रेज शासन की लाठी और गोली से मारे गये। इससे भी कई गुना लोगों ने जेल की यातनाएं सहीं; पर इनके नाम पर कोई शासकीय योजना नहीं चलाई जाती। ऐसा क्यों है, इसका उत्तर ऊपर दिया जा चुका है।
कहते हैं कि बड़े लोगों की तुलना नहीं करनी चाहिए; पर निम्न उदाहरण से संदर्भित बात स्पष्ट हो सकेगी। 1989 में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की जन्मशती मनायी गयी। नेहरू जी के शताब्दी कार्यक्रमों में केन्द्र और राज्य सरकारों ने करोड़ों रुपया खर्च किया। उसके बल पर हर राज्य में सभाएं, विचार गोष्ठियां, विद्यालयों में खेलकूद और वाद-विवाद प्रतियोगिताएं तथा अन्य अनेक प्रकार के आयोजन हुए। देश की सभी पत्र-पत्रिकाओं में बड़े-बड़े विज्ञापन भी दिये गये; लेकिन सरकारी प्रयासों के बावजूद जनता इन कार्यक्रमों से दूर ही रही।
दूसरी ओर डॉ. हेडगेवार की जन्मशती संघ के स्वयंसेवकों ने जनता के सहयोग से मनायी। केन्द्र और प्रांत से लेकर जिला, नगर और विकास खंड तक इसके लिए समितियां बनायी गयीं। इस प्रकार एक लाख समितियों में लगभग 10 लाख लोग प्रत्यक्ष रूप से जुड़े। इनके आधार पर हुए कार्यक्रमों में लगभग एक करोड़ लोगों की सहभागिता हुई। दीवार लेखन, भित्तिपत्र (पोस्टर), छोटे पत्रकों आदि से देश भर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और डॉ. हेडगेवार का नाम गूंजने लगा। इससे सरकार के भी कान खड़े हो गये। स्वयंसेवकों ने समाज से जो ‘सेवा निधि’ एकत्र की, उससे निर्धन बस्तियों में सेवा के छोटे-छोटे हजारों काम प्रारम्भ किये, जिनकी संख्या अब लगभग एक लाख तक पहुंच गयी है।
विवेकानंद सार्धशती आयोजनों में भी कुछ ऐसा ही दिखाई देता है। इसका आयोजन जहां एक ओर संघ ने अपने नाम का मोह न करते हुए समाज के सभी वर्गों के सहयोग से किया है, वहीं दूसरी ओर अनेक संस्थाओं ने अपने बैनर पर इसके कार्यक्रम किये हैं। शासन ने भी इसके लिए एक समिति बनाकर कुछ प्रयास किये हैं। ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ विवेकानंद का प्रिय वाक्य था; पर सोनिया मैडम के नेतृत्व वाली केन्द्र की घोर हिन्दू विरोधी सरकार को भी विवेकानंद को मान्यता देनी पड़ी है। यह हिन्दुत्व के बढ़ते हुए ज्वार का ही प्रतिफल है। मैडम जी इन आयोजनों के माध्यम से उस ज्वार का कुछ हिस्सा अपनी झोली में समेटना चाहती हैं। यद्यपि उनका यह प्रयास सफल तो नहीं होगा; पर इससे स्वामी विवेकानंद और उनके विचारों की प्रासंगिकता जरूर स्पष्ट हो जाती है।
स्वामी विवेकानंद का व्यक्तित्व स्वयं में महान है। उन पर राजाओं या वंशवादी राजनेताओं की तरह महानता थोपी नहीं गयी। यह प्रश्न निरर्थक है कि यदि श्री रामकृष्ण परमहंस से उनकी भेंट न होती, तो क्या होता ? तब भी वे किसी न किसी क्षेत्र में अपनी महानता अवश्य सिद्ध करते; पर हिन्दुओं और हिन्दुस्तान के भाग्य से उनके जीवन में श्री रामकृष्ण आये जिन्होंने उनकी सुप्त शक्तियों को पहचान कर उन्हें जाग्रत किया और उनके जीवन की दिशा को अध्यात्म और सेवा के मार्ग से विश्व कल्याण की ओर परिवर्तित कर दिया।
विवेकानंद सार्धशती के दौरान शायद ही कोई पत्र-पत्रिका हो, जिसने उन पर विशेष सामग्री प्रकाशित न की हो। हर भाषा में हजारों लेख, कहानियां, नाटक, चित्र कथाएं, प्रेरक प्रसंग आदि लिखे गये हैं। सैकड़ों पुस्तकें भी इस अवसर पर प्रकाशित हुई हैं। भाषण और गोष्ठियों आदि की तो गणना ही नहीं है। रेडियो और दूरदर्शन ने भी विशेष कार्यक्रम प्रसारित किये हैं।
उन सबके द्वारा जिन्होंने स्वामी विवेकानंद के विचार सागर में गोते लगाये हैं, उन्होंने स्वयं को ही धन्य किया है। उनमें से यदि कोई यह दावा करे कि उसने विवेकानंद को पूरी तरह समझ लिया है, तो यह उसकी भूल ही होगी। ‘पूर्णमदः पूर्णमिदम्’ की तरह रत्नाकर से चाहे जितने रत्न निकाल लें; पर फिर भी वह पूर्ण ही रहता है। ऐसा ही विवेकांनद का व्यक्तित्व है।
प्रसंगवश एक और बात का उल्लेख यहां उचित होगा। विवेकानंद का बचपन का नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। कौन जानता था कि यह नरेन्द्र एक दिन हिन्दू और हिन्दुस्तान की विजय पताका विश्वाकाश में फहराएगा ? ऐसे ही एक और नरेन्द्र (मोदी) के निनाद से इन दिनों भारत की धरती और गगन गूंज रहा है। पिछले दिनों सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव के परिणामों ने भी इसकी पुष्टि कर दी है।
यदि एक और दृष्टि से देखें तो वह नरेन्द्र भारत के पूर्वी समुद्र को छूती बंगाल की धरती पर जन्मा था और वर्तमान नरेन्द्र का जन्म पश्चिमी समुद्र का आलिंगन करने वाले गुजरात राज्य में हुआ है। स्वामी जी ने पहले सात समुद्र पार किये और वहां से उनकी प्रसिद्धि लौटकर भारत आयी; पर वर्तमान नरेन्द्र की प्रसिद्धि और धमक उनके समुद्र पार करने से पहले ही वहां पहुंच गयी है।
विवेकानंद ने अपने अनुभव के आधार पर एक बार कहा था कि किसी भी व्यक्ति या विचार को उपेक्षा, विरोध और समर्थन की प्रक्रिया से निकलना पड़ता है। उनका विरोध केवल विदेशियों ने ही नहीं, तो उनके अपने लोगों ने भी किया था। यही स्थिति वर्तमान नरेन्द्र की भी है; पर जैसे उन नरेन्द्र ने सभी बाधाओं को पार किया, ऐसे ही यह नरेन्द्र भी सब अंतर्बाह्य चुनौतियों को पार कर लेंगे, यह विश्वास भारत भर के देशभक्तों में जग रहा है। अब तक लोग उनकी उपेक्षा करते थे; पर अब विरोध करने लगे हैं। आशा है यह विरोध शीघ्र ही समर्थन से होता हुआ समर्पण तक पहुंच जाएगा।
स्वामी जी के विचार कालजयी हैं। युगद्रष्टा होने के नाते उनमें अपने समय से बहुत आगे देखने की क्षमता थी। उन्होंने 1897 में विदेश से लौटकर अगले 50 वर्ष तक केवल और केवल भारत माता को ही अपना आराध्य बनाने का आह्नान किया था। उन्होंने अपनी आंखों से भारतमाता को जगन्माता के रूप में स्वर्ण सिंहासन पर बैठे हुए भी देखा था। उनके पहले स्वप्न की पूर्ति, अर्थात 1947 में प्राप्त स्वाधीनता हमारे पूर्वजों की पुण्यायी का सुफल है; पर अगले स्वप्न को पूरा करने की जिम्मेदारी हमारी पीढ़ी पर है।
स्वामी जी के सार्धशती वर्ष (2014) में यह सुपरिणाम सब देख सकें, तो इससे अच्छा और क्या होगा ? उनके संदेश ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ (उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको) को यदि सबने समझा और उसे पूर्ण करने में अपनी शक्ति लगायी, तो फिर सर्वत्र ‘विजय ही विजय’ में कोई संदेह नहीं है। क्योंकि इसका आश्वासन भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रीमद् भगवत्गीता में दिया है –
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्धूवा नीतिर्मतिर्मम।।18/78।।
(जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण और गांडीवधारी अर्जुन हैं, वहां पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति का होना भी निश्चित है।)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress