धर्म-अध्यात्म

हिंदू नेताओं पर हमलों का सबक

– विजय कुमार

डॉ. प्रवीण तोगड़िया और श्री श्री रविशंकर की तुलना करें, तो कई समानताएं और कई असमानताएं मिलेंगी। दोनों हिंदू हित के लिए काम कर रहे हैं। सदा मुस्कुराते रहने वाले, श्वेत वस्त्रधारी रविशंकर जी संन्यासी हैं और बंगलौर के पास अपने आश्रम को केंद्र बनाकर काम करते हैं। पूरे विश्व में उनके करोड़ों अनुयायी हैं जो उनकी प्रेरणा से जाति, पंथ, धर्म, मजहब और क्षेत्र की सीमाओं से ऊपर उठकर निर्धनों और निर्बलों की सेवा करते हैं। कई बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए भी उनके नाम की चर्चा हुई है। वे किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े हैं। इसलिए हर दल में उनके समर्थक हैं। उनकी वाणी और व्यवहार सदा विनम्रता और सौम्यता से परिपूर्ण रहता है। दूसरी ओर कैंसर के प्रख्यात शल्य चिकित्सक डा. तोगड़िया विश्व हिंदू परिषद के महासचिव हैं। चिकित्सा कार्य से अवकाश लेकर वे अपना पूरा समय हिंदू संगठन और जागृति में लगा रहे हैं। कर्णावती (अमदाबाद) में उनका परिवार रहता है। वे भी किसी राजनीतिक दल से संबध्द नहीं हैं; पर वे ऐसे हिंसावादी दलों के प्रखर विरोधी हैं, जिनकी निष्ठा भारत से बाहर है, जो मुस्लिम और ईसाई तुष्टीकरण को ही अपना ध्येय समझते हैं। अतः उनके कई प्रशंसक, तो कई विरोधी भी हैं। अपनी स्पष्टवादिता के लिए प्रसिध्द डॉ. तोगड़िया हिंदू, मुसलमान, ईसाई, वामपंथी और सेक्यूलरों के बीच समान तेवर से बोलते हैं। हां, एक ताजी समानता इन दोनों में और भी है। गत 28 मई को भाग्यनगर (हैदराबाद) में डॉ. प्रवीण तोगड़िया पर हमला हुआ और 30 मई को बंगलौर में श्री रविशंकर पर। विश्व हिंदू परिषद सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र में काम करने वाला संगठन है। उसके कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण शिविर देश और विदेश में समय-समय पर होते रहते हैं। ऐसे ही एक शिविर में भाग लेकर डा0 तोगड़िया हैदराबाद में एक कार्यकर्ता के घर रात में भोजन करने के लिए गये थे। उनका वहां कोई सार्वजनिक कार्यक्रम नहीं था। डा0 तोगड़िया एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। उन्हें फोन और ई.मेल से प्रायः धमकियां मिलती रहती हैं। इस नाते उन्हें पुलिस की सुरक्षा प्राप्त है। उनके आवागमन तथा कार्यक्रमों की सूचना पुलिस-प्रशासन को पहले से रहती है। उस कार्यकर्ता के घर पहुंचते ही कुख्यात गुंडे सलीम जावेद के नेतृत्व में डंडे, पत्थर और तलवारें लिये लगभग 200 मुसलमानों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया। वे अपना प्रिय जेहादी नारा ‘अल्ला हो अकबर’ लगा रहे थे। उनका इरादा क्या है, यह एकदम साफ दिखाई दे रहा था। वे डॉ. तोगड़िया की हत्या करना चाहते थे। पुलिस बार-बार सूचना देने पर भी 45 मिनट बाद पहुंची और तब डॉ. तोगड़िया बाहर निकल सके। 30 मई की शाम को बंगलौर में अपने दैनिक सत्संग से लौटते समय श्री रविशंकर पर एक व्यक्ति ने गोली चलाई। वे तो बच गये; पर उनका एक शिष्य घायल हो गया। श्री रविशंकर जी ने अपराधी को क्षमा कर उसे सत्संग में आने का निमंत्रण दिया है। पुलिस यहां भी लीपापोती कर रही है। गृहमंत्री ने तो इसे उनके शिष्यों की ही लड़ाई बता दिया। सही बात तो पूरी जांच से ही पता लगेगी; पर तब तक उनकी सुरक्षा बढ़ा दी गयी है। इन दोनों घटनाओं में भी कुछ समानता तथा असमानता हो सकती है; पर यहां एक अन्य विषय की चर्चा करना उचित रहेगा, जिसका ऐसी घटनाओं से गहरा संबंध है। भारत संवैधानिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष देश है। इसका अर्थ यह है कि शासन किसी धर्म के प्रति कोई विशेष मोह या विरोध नहीं दिखाएगा; पर आजादी के बाद से सभी सरकारों का व्यवहार देखें, तो साफ होता है कि हिंदू संन्यासी, धर्माचार्य, तीर्थ, यात्रा, धाम, मंदिर और सामाजिक कार्यों के प्रति शासन का व्यवहार सदा उपेक्षा और विरोध का रहा है। जबकि मुसलमान और ईसाई संस्था, पादरी, मुल्ला, मजार, मस्जिद, मदरसे, कब्रिस्तान और चर्च आदि के प्रति शासन सदा उदारता दिखाता रहा है। इसके एक नहीं, हजारों उदाहरण दिये जा सकते हैं। हर नगर और गांव में ऐसे प्रकरण मिलेंगे, जिनसे यह बात पुष्ट होती है। शासन का व्यवहार चाहे जो हो; पर इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि इस बारे में हिंदू धर्माचार्यों का व्यवहार कैसा है; वे इस बारे में कैसी प्रतिक्रिया करते हैं; इस परिस्थिति को बदलने के लिए उनकी ओर से कितना और कैसा प्रयास होता है ? इसका उत्तर बहुत कटु है; पर उसे जानना ही होगा। जब भारत पर विदेशी आक्रमण हुए, तब भी साधु, संन्यासी, मंदिर और समाजसेवियों की कमी नहीं थी। अपवादों को यदि छोड़ दें, तो प्रायः ये लोग इन आक्रमणों के प्रति उदासीन रहे। ‘कोउ नृप होय, हमें का हानि’ की रट लगाकर समाज के ये प्रबुध्द लोग अपने अध्ययन और अध्यात्म में डूबे रहे। अतः देश तो पराधीन हुआ ही, इनके मठ-मंदिर भी नहीं बचे। आद्य शंकराचार्य ने दशनाम सन्यासी परंपरा इन आक्रमणों के प्रतिकार के लिए ही स्थापित की थी, जो समय के अनुसार स्वयं को न बदल पाने के कारण अब अपनी तेजस्विता खो चुकी है। क्या इन साधु, संन्यासियों, कथावाचकों, प्रवचनकर्ताओं, महंतों आदि की दशा आज भी ऐसी नहीं है; समाज के प्रति सरोकार का अर्थ क्या केवल गौशाला, पत्रिका, आश्रम, मंदिर, छोटा या बड़ा अस्पताल चलाना मात्र है; जब देश और धर्म की अस्मिता पर ही संकट हो, तब इनका मौन क्या उचित है?

पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं पर ध्यान दें। दीपावली की रात में कांची के पूज्य शंकराचार्य जी गिरफ्तारी, जन्माष्टमी पर स्वामी लक्ष्मणानंद की निर्मम हत्या, आसाराम बापू और मां अमृतानंदमयी पर निराधार आरोप, और अब डा0 तोगड़िया और श्री रविशंकर पर हमला। इन घटनाओं पर धर्मक्षेत्र में बड़े माने जाने वाले नामों की प्रतिक्रिया क्या है ? देश में ऐसे सैकड़ों प्रवचनकार और कथावाचक हैं जिन्हें सुनने देश-विदेश में हजारों लोग आते हैं। दूरदर्शन पर लगातार उनके प्रवचन चलते रहते हैं। वायुयान हो या जलयान, वे हर जगह योग और धर्म बेचते हैं। कई चैनल तो इनके बल पर करोड़ों रुपये कमा रहे हैं; पर इन घटनाओं पर उनकी प्रतिक्रिया क्या रही ? यहां जानबूझ कर गोरक्षा, श्री रामजन्मभूमि, रामसेतु और अमरनाथ आंदोलन की चर्चा नहीं की गयी है। क्योंकि इनके पीछे स्पष्टतः संघ और विश्व हिंदू परिषद का नेतृत्व था; पर अन्य समय पर इन धर्माचार्यों की चुप्पी क्या संकेत करती है ? क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि ये धर्माचार्य भी उन हिन्दू राजाओं जैसे ही हैं, जो पड़ोसी पर हमले को उसकी निजी समस्या मान कर चुप रहते थे। क्या ये उन हिंदू सेठों की तरह नहीं हैं, जो माल बेचते समय यह नहीं सोचते थे कि यह भारतीय सेना के लिए जा रहा है या विदेशी सेना के लिए ? क्या अधिकांश धर्माचार्य अपने आश्रम, मठ, मंदिर, कथा और भक्तों तक सीमित होकर नहीं रह गये हैं ? क्या उनकी उदासीनता ‘कोउ नृप होय हमें का हानि’ जैसी नहीं है ? लोकसभा चुनाव वाले दिन मुंबई से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘हिंदू वॉयस’ ने देश के 100 बड़े धर्माचार्यों को फोन कर पूछा कि क्या आपने वोट दिया ? केवल स्वामी रामदेव का उत्तर ‘हां’ में था। बाकी सबने इस छोटे काम के लिए कष्ट करना उचित नहीं समझा। यह आंकड़ा प्रकाशित कर पत्रिका के संपादक ने कहा कि यदि ये धर्माचार्य देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति इतने उदासीन हैं, तो इन्हें अपनी समस्याओं के लिए चिल्ल-पौं करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि इनके या इनके अनुयायियों के वोट से सरकार बनती और बिगड़ती नहीं है, तो शासन इनकी चिन्ता क्यों करे ?

प्रश्न केवल डॉ. तोगड़िया या श्री रविशंकर का नहीं है। यदि अपना अस्तित्व बचाना है, तो आक्रमण चाहे किसी भी प्रकार का और किसी पर भी हो, धर्माचार्यों को उदासीनता त्यागनी होगी। इनका वैभव हिंदू भक्तों के बल पर ही है। अतः उन्हें हर उस समस्या पर मुखर होना होगा, जिससे हिंदू का अहित होता है। उन्हें अपने भक्तों को भी इस हेतु प्रेरित करना होगा। तटस्थता और सेक्यूलरवाद छोड़कर लाठी, गोली और जेल के लिए तैयार रहना होगा। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के शब्दों में – समर शेष है नहीं पाप का पापी केवल व्याध जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध॥ स्वामी विवेकानंद ने कहा था – तभी और केवल तभी तुम हिंदू कहलाने के अधिकारी हो, जब हर निर्धन और निर्बल हिंदू की पीड़ा तुम्हें अपनी निजी पीड़ा लगे। पैर में कांटा लगने पर जैसे हाथ उसे निकालने को तत्पर होता है, जब तक वैसी ही संवेदना तुम्हारे मन में हर हिंदू के प्रति नहीं होगी, तब तक तुम्हें स्%