डॉ घनश्याम बादल

डॉ घनश्याम बादल

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लेखक वरिष्ठ हिंदी कवि एवं समीक्षक हैं

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खेल जगत

भारत कब बनेगा विश्व की खेल शक्ति?

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    डॉ० घनश्याम बादल     आज हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की जयंती को देश खेल दिवस के रूप में मना रहा है तो मौका है कि हम खेलों के हालात पर आत्म मंथन करें  । यदि पिछले एक वर्ष में खेलों में भारत की उपलब्धियों पर एक नजर डाली जाए तो यें काफी संतोषजनक लगती हैं । वैसे यह बात भी सही है कि भी अभी आसमान छूना बहुत दूर है।      पैरालंपिक्स 2024 में  भारतीय खिलाड़ियों ने रिकॉर्ड तोड़ प्रदर्शन किया और अभूतपूर्व सफलता हासिल की उन्होंने कुल 29 पदक: 7 स्वर्ण, 9 रजत और 13 कांस्य, जीते जो भारत का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। इन खेलों में प्रमुख पदक विजेता थे: अवनी लेखारा, नीतेश कुमार, सुमित अंतिल, धरमबीर, हरविंदर सिंह और नवदीप सिंह। पैरिस ओलंपिक 2024 में भी धमाकेदार प्रदर्शन जारी रहा वहां हमने कुल 6 पदक — 1 रजत (नीरज चोपड़ा, जेवलिन थ्रो) और 5 कांस्य जीते।  शूटर मणि भाकर: 10 मीटर एयर पिस्टल  में दो कांस्य पदक, एक ही ओलंपिक में दो पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनी तो स्वप्निल कुशाल भी पीछे नहीं रही और उन्होंने 50 मीटर राइफल थ्री–पोजीशन में कांस्य जीता। अमन सेहरावत  पुरुषों की फ्रीस्टाइल (57 किलो) में कांस्य लेकर  भारत के सबसे युवा ओलंपिक पदक विजेता होने का श्रेय पाया।  पुरुष हॉकी टीम ने स्पेन को हराकर लगातार दूसरा ओलंपिक पदक जीता यह सफलता 1972 के बाद हुई पहली बार मिली है । कप्तान हरमनप्रीत सिंह ने सर्वाधिक गोल किए (10) किए और टॉप स्कोरर रहे। क्रिकेट में भी Iआई सी सी चैंपियंस ट्रॉफी 2025  का खिताब जीता, फाइनल में न्यूजीलैंड को 4 विकेट से हराया। टीम ने बिना कोई मैच हारें ट्रॉफी जीती।  यह पहली बार हुआ कि कोई टीम बिना हार के इस ट्रॉफी को जीती है।  बाद में संन्यास ले लेने वाले हिटमैन रोहित शर्मा को ‘प्लेयर ऑफ द मैच’ चुना गया। शतरंज में व डी गुकेश ने 18 वर्ष की उम्र में सबसे कम उम्र में वर्ल्ड चेस चैंपियन बनने का गौरव प्राप्त किया। भारतीय पुरुष और महिला शतरंज टीमों ने 45वीं फीडे चेस ओलंपियाड, बुडापेस्ट में स्वर्ण पदक जीते तो  एथलेटिक्स में नीरज चोपड़ा का ने मई 2025 में दोहा डायमंड लीग में 90.23 मीटर की थ्रो दर्ज कर 90 मीटर क्लब में शामिल होते हुए ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की।      पर लाख टके का सवाल यह है कि140 करोड़ लोगों के दुनिया के सबसे बड़े देश के लिए क्या इतनी सीमित सफलता से संतुष्ट हुआ जा सकता है?  आज हम दुनिया की चौथी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बन गए हैं और हमारा लक्ष्य 2047 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बनने का है परन्तु खेलों में हमारी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती । एक तरफ दुनिया में क्यूबा , कोरिया, जापान , बुल्गारिया, रोमानिया, इटली ही नहीं वरन् कई छोटे – छोटे व गरीब देश हैं जो भारत से कहीं बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं । वहीं ओलंपिक व विश्व खेलों में अमेरिका, चीन, रूस व ब्राजील जैसे देश खेल जगत की विश्वशक्ति बने हुए हैं पर हम कहां हैं ?   हम पिछले तीन ओलंपिक व  शुरु के कुछ ओलंपिक खेलों में ज़रुर गिनती के पदक जीत सके हैं अन्यथा तो हम खेलों में हम फिसड्डी देश के रूप  ही जाने जाते हैं । पर ,एक मज़ेदार बात यह भी है कि हम भले ही फिसड्डी रहे हों पर हमारे पास हॉकी के जादूगर , क्रिकेट के भगवान , बैडमिंटन के विश्व चैंपियन , युगल टेनिस के विंबलडन विजेता, स्नूकर व बिलियर्ड के वर्ल्ड चैंपियन भी रहे हैं यानि व्यक्तिगत स्तर पर हमने काफी उपलब्धियां पाई भी हैं पर, एक देश के रूप में खेलों में हम बेहद पीछे खड़े दिखते हैं । खेलों के प्रति हमारा नज़रिया ही इस क्षेत्र में दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण रहा है । हमारे यहां तो ‘पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब ,खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब’ की कहावत रही है , रोजी रोटी कमाने में खेल यहां यूजलेस माने जाते रहे हैं , जिसके चलते खिलाड़ी होने का मतलब नालायक होना बन गया , ऊपर से खर्चे की मार ने खेलों कों उपेक्षित कर दिया ।     पर, अब ऐसा नहीं है । पढ़-लिखकर भले ही नवाब न बन पाएं पर अगर आप खेलों  में चमक गए तो फिर तो आपकी बल्ले बल्ले है। आज खेलों में शौहरत पैसा, इज्जत तो हैं ही एक सोशल स्टेटस तथा सेलिब्रेटी का रुतबा भी है । अभी कुछ दशकों पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि कोई खिलाड़ी करोड़ों या अरबों का मालिक हो सकता है मगर आज देश के एक नहीं कई खिलाड़ी इस हैसियत को रखते हैं।     अब मां बाप की सोच में भी परिवर्तन आ रहा है वें भी बच्चों के अब केवल पढ़ाई के पीछे भागने पर जोर नहीं देते बल्कि अपने होनहार बच्चे में नीरज चोपड़ा, डी गुकेश, शुभ्मन गिल, विराट, वाइचुंग भुटिया, मैरीकोम, मिताली या जसपाल अथवा अभिनव बिंद्रा, सायना,, राजवर्धन सिंह राठौर विनेश फोगाट नीरज चोपड़ा और सानिया जैसा भविष्य देख रहे हैैं । यकीनन इससे खेलों की दुनिया का स्कोप बढ़ा है । पर , अब भी हमें खेलों को प्रोत्साहन देने के लिए बहुत कुछ करना होगा ।     क्रिकेट में  भारतीय खिलाड़ी आज सुपर स्टार हैं, एक समय राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद बर्बाद हो चुकी हॉकी भी पिछले दो ओलंपिक खेलों में पदक जीत कर आस जगा रही है । लेकिन जिस तरह से हमारे परंपरागत खेल यूरोपीय देशों की कूटनीति के शिकार हो कर अंतर्राष्ट्रीय , ओलंपिक या राष्ट्रमंडल खेलो सें से गायब हो रहे हैं उससे जूझने के लिए हमें जागना और अड़ना लड़ना होगा ।  स्कूल बनें खेल हब:    अभी भी स्कूल स्तर पर हमें अच्छे खिलाड़ी तराशने का लक्ष्य हासिल करना बाकी है । आज भी अधिकांश स्कूलों का लक्ष्य अच्छी किताबी शिक्षा देना ही है जिसका मतलब छात्रों के लिए केवल अच्छे अंक, प्रतिशत या ग्रेड़ तक सीमित है वें उसी में अपना भविष्य तलाशते हैं, यहां योग्यता का अर्थ केवल एकेडेमिक एक्सीलेंस बन गया है क्योंकि उसी से कैरियर बनता या बिगड़ता है । उच्च पदों से पैसा कमाने का सीधा संबंध है । जबकि खेल केवल मनांरजन  के सबब समझे जाते हैं। खेलों के बल पर रोजगार पाने वाले बिरले ही भाग्यशाली निकलते हैं अन्यथा आज भीे खेलों में खिलाड़ी युवावस्था गुजरते ही गरीबी , बेरोजगारी , अभावों के अंधेरे में खोने को विवश हैं । उस सोच व हालातों का बदलना होगा अगर खेल में भारत को महाशक्ति बनना है तो ।     डॉ घनश्याम बादल 

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राजनीति

जनगणना में जाति के निहितार्थ

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डॉ घनश्याम बादल जनसंख्या दिवस पर चारों तरफ से एक जैसी ही आवाज़ें भारत में चारों तरफ़ से उठती हैं कि जैसे भी हो, सुरसा के मुख सी बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगे । बेशक, भारत में जनविस्फोट एक बड़ी समस्या है और बावजूद सारे उपाय के जनवृद्धि दर पर नियंत्रण दुष्कर सिद्ध हो रहा है ।    आज़ादी के बाद से ही जनसंख्या हैरतअंगेज तेजी से बढ़ी है। ‌बेतहाशा बढ़ती हुई जनसंख्या ने अच्छी खासी विकास दर को भी बेमानी सिद्ध कर दिया है।    अशिक्षा, गरीबी, रूढ़िवादिता, धार्मिक कट्टरता और अपने संप्रदाय विशेष को हावी करने की कुटिल इच्छा जैसे कितने ही कारण हैं जनसंख्या के निरंतर बढ़ते जाने के । 1947 में 36 करोड़ लोगों का देश महज 78 साल में ही 143 करोड़ जनसंख्या वाले राष्ट्र में बदल गया यानि आज़ादी के बाद भारत की जनसंख्या 3 गुना से भी ज़्यादा बढ़ी ।      प्रतिवर्ष न्यूजीलैंड व ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की कुल जनसंख्या से भी ज़्यादा लोग हमारे देश की जनसंख्या में जुड़ रहे हैं । स्वाभाविक रूप से इससे खाने, पहनने और रहने की समस्याएं विकराल रूप लेती गईं। राष्ट्रीय सरकारों ने जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न समस्याओं पर ध्यान तो दिया मगर जो प्रतिबद्धता चाहिए थी वह नज़र नहीं आई। इसके पीछे  सबसे बड़ी वजह रही देश के एक खास वर्ग का वोट पैकेज में तब्दील हो जाना।  1911 के बाद 1921 में होने वाली जनगणना चार साल पिछड़ चुकी है लेकिन जल्दी ही भारत में एक बार फिर से जनगणना शुरू होने वाली है । विपक्ष और बिहार में नीतीश कुमार द्वारा बार-बार की जाने वाली मांग के बाद केंद्र सरकार ने भी स्वीकार कर लिया है कि इस बार इस जनगणना में लोगों का जातिगत ब्यौरा भी दर्ज किया जाएगा ।      जातिगत ब्यौरे का इस्तेमाल कैसे किया जाएगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन फिलहाल आशंकाएं हैं कि यदि इस आंकड़े का उपयोग राजनीतिक लक्ष्य साधना के लिए किया गया तो फिर ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसा मुद्दा पीछे छूट जाएगा एवं जातिगत जनगणना एक राजनीतिक औजार बनकर रह जाएगी।     राजनीति के एक खास वर्ग द्वारा लंबे समय से आरोप लगते रहे हैं कि कभी धर्मग्रंथों का हवाला देकर तो कभी इस्लामिक स्टेट के सपने दिखाकर वर्ग विशेष के कट्टर धार्मिक नेता बरगलाते हैं और जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि जारी रहती है । हालांकि शिक्षा एवं जागरूकता बढ़ने के साथ जहां उच्च वर्गों में ‘हम दो हमारे दो’ के नारे से जन जागृति आई ,वहीं अब तो ‘बच्चा एक ही अच्छा’ के सिद्धांत पर एक बहुत बड़ा वर्ग चल रहा है. साफ सी बात है इस वर्ग ने जनसंख्या की वृद्धि पर काफी हद तक नियंत्रण कर लिया है हालांकि समाज के भी निचले तबकों में अभी वह जागृति देखने को नजर नहीं आती जो होनी चाहिए । जहां भारत क्षेत्रफल के हिसाब से दुनिया में सातवें नंबर पर है, वहीं जनसंख्या की दृष्टि से शिखर पर है। अब यह समय की मांग है कि सरकारों को निष्पक्ष तरीके से बिना डरे पूरी प्रतिबद्धता के साथ पूरे देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू कर ही देना चाहिए ।     बढ़ती हुई जनसंख्या के दृष्टिगत जनसंख्या नियंत्रण कानून के अंतर्गत इस प्रकार के प्रावधानों का होना आवश्यक हो कि एक सीमित संख्या तक परिवार बढ़ने पर ही लोगों को सब्सिडी, लोन या राशन आदि की सुविधा मिले। निर्धारित संख्या से ऊपर संतान उत्पत्ति पर प्रतिबंधात्मक प्रावधान हों ।    यह सच है कि ऐसी नीति एकदम लागू नहीं की जा सकती और  इसमें धार्मिक एवं सामाजिक प्रतिरोध भी आड़े आएगा । तब जनसंख्या नियंत्रण कानून को चरण दर चरण लागू करने की नीति अपनाई जा सकती है । जिस प्रकार से कई दूसरे देशों में संतान उत्पत्ति के नियम हैं उसी प्रकार से देश की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हमारी सरकारों को भी ऐसे प्रावधान अस्तित्व में लाने ही चाहिएं।   तार्किक तो यह होगा कि जबरदस्ती कानून थोपने के बजाय प्रेरक तरीके से जन जागरण अभियान चलाए जाएं खास तौर पर कम शिक्षित या अशिक्षित एवं धार्मिक अंधविश्वास से अधिक प्रभावित लोगों के लिए ऐसे धार्मिक संस्थानों की सहायता ली जा सकती है जो उन्हें बताएं कि संतान केवल ईश्वर की देन नहीं है अपितु यह एक शारीरिक प्रजनन क्षमता का परिणाम है। उन्हें यह समझाया जाए कि जितने अधिक बच्चे होंगे उसी अनुपात में उन्हें उतना ही कम खाना-पीना,  पहनना एवं रहने का स्थान उपलब्ध हो पाएगा जिसके परिणाम स्वरूप उनका जीवन स्तर भी निम्न श्रेणी का ही रहेगा।       स्कूलों एवं कॉलेजों तथा दूसरे प्रशिक्षण संस्थानों में भी विभिन्न पाठ्यक्रमों के माध्यम से जन वृद्धि के दुष्परिणाम एवं उन्हें रोकने की व्यवहारिक उपायों की जानकारी दी जानी जरूरी है ।  यह कार्य केवल सरकारी स्कूलों वह कॉलेजों में ही नहीं अपितु धार्मिक स्कूलों व महाविद्यालय में भी लागू किया जाए । साथ ही साथ कम बच्चे पैदा करने वाले लोगों के लिए मुफ्त शिक्षा एवं अन्य सुविधाएं बढ़ाई जानी चाहिए इससे भी एक सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यदि सरकारों में प्रतिबद्धता हो तो बिजली, पानी जैसी आवश्यक आपूर्ति वाली वस्तुओं की दरें भी एकल परिवारों के सदस्यों की संख्या के आधार पर तय  करने में भी कोई बुराई नहीं है ।     यदि जनसंख्या नियंत्रण पर ढुलमुल नीति जारी रही और प्रतिबंधात्मक व नकारात्मक प्रेरणा देते उपाय नहीं किए गए तो देश में प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति उपलब्ध संसाधन, रोटी, कपड़ा, मकान और क्रय क्षमता जैसी चीजों में हम नीचे की ओर खिसकते चले जाएंगे । यदि हमें गर्त में जाने से बचना है तो जनसंख्या पर नियंत्रण करना ही होगा, कैसे भी और किसी भी तकनीक से, उसके लिए चाहे जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाना पड़े या लोगों में जन जागरण करके एक चेतना लानी पड़े अथवा कुछ और करना पड़े ।    आज हम उस स्थिति में खड़े हैं जहां एक ओर देश को जहां जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण करना पड़ेगा, वहीं ऐसी नीतियां भी बनानी पड़ेगी जिसमें जनसंख्या एक बोझ नहीं बल्कि ताकत बनकर सामने आए. चीन का उदाहरण हमारे सामने है. हम इस प्रकार की योजनाएं चलाएं जिसमें देश का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी तरह से दक्षता पूर्वक देश के विकास एवं उन्नयन में निरंतर सहयोग दे सके तो जनसंख्या एक बोझ नहीं, ताकत बन जाएगी।    बुद्धिमता इसी में है कि जो अभी दुनिया में हैं, उन्हें संभाला जाए, उनके जीवन स्तर को उच्च किया जाए, लोगों में नव चेतना एवं जागृति पैदा की जाए और जिन्हें दुनिया में आना है उनके आने को नियंत्रित करके उनके लिए एक बेहतर संसार और बेहतर देश बनाने की ओर कदम बढ़ाया जाए। ‌ साथ ही साथ सह भी तय करना होगा कि जहां जनगणना के आंकड़े यथार्थपरक हों, वहीं उसमें जाति का ब्यौरा जोड़ने के बाद इस बात की भी पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए कि इन आंकड़ों का उपयोग राजनीतिक स्वार्थसिद्धि के लिए नहीं किया जाएगा अन्यथा राजनीतिक दलों के हाथ में यह एक ऐसा हथियार लग जाएगा जो देश में विभेदीकरण को और अधिक बल देगा तथा इससे जाति संप्रदाय एवं धर्म तथा क्षेत्र के नाम पर जनसंघर्ष बढ़ने की संभावनाएं भी बलवती होंगी। डॉ घनश्याम बादल 

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