डॉ .सुधाकर कुमार मिश्रा 

डॉ .सुधाकर कुमार मिश्रा 

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प्रचार प्रमुख और शैक्षणिक आयाम प्रमुख,गंगा समग्र आरएसएस।

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कला-संस्कृति

राष्ट्रीय नदी प्राधिकरण का गठन हो।

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रामाशीष   प्रकृति के पंचभूतों में से एक जल, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक परम आवश्यक अवयव है।  विज्ञान,प्रौद्योगिकी और औद्योगिक क्षेत्र के विकास और उन्नयन  हेतु जल एक अत्यावश्यक संसाधन है। समकालीन मानवीय प्रवृत्ति में जल की हर बूंद से धन बनाने का लोभ बढ़ता जा रहा है।  आज हमारी नदियों के सामने दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं: १. एक निर्मलता की, और २. अविरलता की।                                   ये दोनों एक दूसरे से संबद्ध हैं। अविरलता के अभाव में नदियों की निर्मलता संभव नहीं है । नदियां हमें पानी ही  नहीं देतीं अपितु वे हमारी समग्र जीवन प्रणाली की रीढ़  हैं।  जैव विविधता, मिट्टी-रेत , जल और अविरल प्रवाह ये सब मिल कर ही किसी नदी की गुणवत्ता निर्धारित करते हैं। नदी को स्वयं को साफ कर लेने का सामर्थ्य भी यही देते हैं। जितना महत्व प्राणियों के शरीर में ऑक्सीजन  का है, उतना ही नदी के लिए इन सूक्ष्म से लेकर विशाल धाराओं के जाल का है। जैव- विविधता नदियों के लिए प्राणवायु के समान है,जो इनके जल को शुद्ध करके ऑक्सीजन से भरते हैं इसलिए नदी में कम से कम इतना पानी हो कि हम कह सकें नदी में जीवटता  है, परंतु बिजली, सिंचाई, पेयजल और आबादियों को बाढ़ से बचाने के नाम पर नदियों के रास्तों और किनारों पर अनेक अवरोध खड़े कर दिए गए हैं जिससे  नदी में उचित न्यूनतम प्रवाह, जिसे पर्यावरणीय प्रवाह या ई-फ्लो कहते हैं, नहीं बचा है।  पर्यावरणीय प्रवाह के अभाव में नदी के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक जलीय जीवों जैसे मछलियां, घड़ियाल, डॉलफिन आदि के साथ ही जलीय वनस्पति के जीवन पर खतरा  पैदा हो रहा है। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) ने 12 वर्षों के शोध के बाद अभी हाल में गंगाजल को विशिष्ट बनाने वाले तीन तत्व खोजे हैं जो अविरल बहती गंगा को स्वच्छ करते रहते हैं। पहला है गंगा के पानी में घुली प्रचुर ऑक्सीजन। यह प्रति लीटर 20 मिमी तक होती है। दूसरा  तत्व है गोमुख से हरिद्वार तक गंगा के मार्ग में पड़ने वाली वनस्पतियों से उत्पन्न रसायन टरपीन एवं तीसरा तत्व है दूषित जीवाणुओं को नष्ट करने वाला बैक्टीरियोफाज। ये तीनों तत्व गंगा की तलहटी में भारी मात्रा में मिले हैं। इन तत्त्वों के संपर्क में आकर पानी अपने आप निर्मल हो जाता है। प्रवाह धीमा होने और मार्ग में अवरोध होने से यह क्षमता कम होती जाती है।                               वर्तमान सरकार और राज्य सरकार ने इस दिशा में थोड़ी पहल की है । वर्ष 2018 में पर्यावरणीय प्रवाह (ई-फ्लो) के लिए देवप्रयाग से हरिद्वार तक अलग-अलग महीनों में 20 से 30 फीसदी तक पानी छोड़ने का प्रावधान हुआ था  लेकिन यह मात्रा न तो पर्याप्त है और न ही तार्किक। नदी की निर्मलता के लिए पहली शर्त अविरलता है। 2015 में विभिन्न विभागों, आईआईटी और विशेषज्ञों ने मंथन के बाद गंगा के लिए हिमालय स्थित प्रवाह के लिए दिसंबर-मार्च के बीच 42 से 83 फीसदी, अप्रैल और मई के बीच 37 से 71 फीसदी और जून से अक्टूबर के बीच 35 से 59 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह की आवश्यकता बताई थी लेकिन यह रिपोर्ट सरकारी तंत्र में ही फंसी रह गई जबकि तत्कालीन जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री ने भी इस पर सहमति जताई थी। प्रवाह बनाने में सबसे बड़ी रुकावट जल विद्युत परियोजनाएं हैं, क्योंकि इनका पक्ष है कि अगर हम इतना  जल छोड़ेंगे तो  विद्युत संयंत्र बंद हो जाएंगे।  हमें यह समझना होगा कि नदियां हमारी बिजली, सिंचाई और पेयजल की आपूर्ति भर के लिए ही नहीं हैं अपितु इस पर अन्य  जीव-जंतुओं का भी अधिकार है। विशेषज्ञों के कई दलों ने अपनी रिपोर्ट में सूखा, सामान्य एवं बारिश के लिए पानी की गहराई क्रमश:  0.5-0.8-3.41 मीटर बताई है लेकिन इतने पानी में डॉल्फिन समेत कई जलचरों का पर्यावास सम्भव नहीं है। इसे भी ध्यान में रखना होगा। इसी को ध्यान में रखकर एनजीटी ने 2017 में गंगा की ऊपरी धाराओं पर बनी बिजली परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय प्रवाह का मानक तैयार करते समय हरिद्वार से कानपुर के बीच बने सिंचाई बैराजों के लिए भी नियम बनाने का निर्देश दिया है। पर्यावरणविद 50 फीसदी से अधिक ई- फ्लो का समर्थन करते हैं। इंटरनेशनल वॉटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट 67%प्रवाह की सिफारिश करता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट भी अपने एक आदेश में उत्तर प्रदेश के सिंचाई बैराजों के लिए 50 % पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने का निर्देश दे चुका है। अविरल गंगा और निर्मल गंगा के ध्येय वाक्य को सिद्ध करने के लिए तीन शर्तें आवश्यक हैं। पानी की प्रचुरता बनी रहे और प्रदूषण व अतिक्रमण पर रोक लगे। ई-फ्लो के लिए भूमिगत जल दोहन को भी नियन्त्रित करना पड़ेगा और वर्षा जल संभरण के लिए कड़े नियम बनाने होंगे, क्योंकि अद्यतन परिस्थितियों में सिर्फ ग्लेशियर के पानी से ई-फ्लो को बनाए रखना सम्भव नहीं है। नदी को ढांचे नहीं, ढांचों से मुक्ति चाहिए। नदी को शासन के बजाय अनुशासन चाहिए।                       इस तरह नदी का पर्यावरणीय प्रवाह या ई-फ्लो तय करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है- 1. नदी में रहने वाले जीव-जंतुओं (मछलियां और कछुए आदि) के लिए पर्याप्त जलस्तर और प्रवाह बना रहे। ऑक्सीजन का स्तर समेत पानी की गुणवत्ता संतुलित रहे; […]

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