राजनीति तीखा राइट ऑफ रिप्लाई September 29, 2025 / September 29, 2025 | Leave a Comment सचिन त्रिपाठी पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र महासभा के मंच पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के भाषण के जवाब में भारत की ओर से पेटल गहलोत ने जो तीखा उत्तर दिया, वह केवल एक कूटनीतिक पलटवार नहीं था बल्कि एक सावधानीपूर्वक तैयार किया गया सार्वजनिक-कूटनीतिक संदेश और राष्ट्रीय नैरेटिव को अंतरराष्ट्रीय मंच पर दृढ़ता से […] Read more » The sharp reply given by Patel Gehlot from India's side आधुनिक भारत की कूटनीति की शैली पेटल गहलोत का यूएन में दिया गया जवाब
राजनीति सौ वर्ष बाद भी संघ आत्ममुग्ध नहीं July 25, 2025 / July 25, 2025 | Leave a Comment सचिन त्रिपाठी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष की दहलीज पर खड़ा है। यह केवल किसी संस्था के 100 वर्ष पूरे होने की औपचारिकता नहीं है बल्कि भारत के आधुनिक इतिहास, समाज और विचारधारा की उस यात्रा की समीक्षा का अवसर है जिसमें संघ की भूमिका निर्णायक, विवादास्पद, किंतु निर्विवाद रूप से प्रभावशाली रही है। सौ वर्षों की यात्रा में संघ चाहे जितना बड़ा, शक्तिशाली और विस्तृत हुआ हो, वह आत्ममुग्ध नहीं हुआ है। यह वाक्य एक प्रशंसा नहीं, बल्कि एक वैचारिक अवलोकन है। संघ की मूल प्रवृत्ति आत्मप्रशंसा या आत्ममुग्धता नहीं, आत्मसाधना है। आज की दुनिया में जहां संस्थाएं कुछ दशकों के भीतर ही ‘इमेज ब्रांडिंग’, ‘स्मार्ट मैसेजिंग’ और ‘गौरवोत्सव’ के चक्कर में अपना आत्मावलोकन खो बैठती हैं, वहीं संघ अपने आलोचकों की भी उतनी ही सावधानी से सुनता है जितनी श्रद्धा से स्वयंसेवकों की बात करता है। यह गुण उसे ‘संगठन’ से ‘संघ’ बनाता है। 1930 के दशक में जब यह ‘आंदोलन’ ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के समय में पनपा, तब इसके सामने राष्ट्रवाद को व्यावहारिक सामाजिक जीवन में उतारने की चुनौती थी। आज, जब वह राष्ट्र के नीति-निर्धारकों, शैक्षणिक परिसरों, मीडिया विमर्शों और वैश्विक मंचों पर प्रभावी भूमिका में है, तब भी वह सतत आत्मसमीक्षा करता रहा है। संघ ने कभी अपने सौ साल के संघर्ष को ‘विजय यात्रा’ की तरह प्रस्तुत नहीं किया। उसका कार्यकर्ता आज भी स्वयं को ‘स्वयंसेवक’ ही मानता है, नायक नहीं। यह आत्ममुग्ध न होने का भाव उसकी कार्यपद्धति में स्पष्ट झलकता है। संघ कार्यालय आज भी उतने ही साधारण हैं जैसे 1925 में नागपुर में थे। किसी भव्यता, बैनर या नारेबाजी की ज़रूरत उसे नहीं लगती। संघ शिक्षा वर्गों, शाखाओं और प्रकल्पों के ज़रिये समाज निर्माण में रमा रहता है। वह जानता है कि दिखावे से नहीं, चरित्र से परिवर्तन आता है। संघ के आलोचकों ने अक्सर उसे ‘पुरुषप्रधान’, ‘हिंदू केंद्रित’, ‘गुप्तवादी’ या ‘राजनीतिक आकांक्षाओं से प्रेरित’ संस्था कहा है किंतु आत्ममुग्धता कभी उसकी आलोचना नहीं रही। आत्ममुग्धता वह होती है जब कोई संस्था अपनी ही छाया से अभिभूत हो जाए। संघ इसके ठीक उलट, अपनी सीमाओं का निरंतर आंकलन करता रहा है। चाहे वह सामाजिक समरसता के क्षेत्र में दलितों के लिए कार्य हो, महिलाओं की भूमिका पर विचार हो या मुस्लिम समाज से संवाद की नई पहल, संघ हमेशा इन विषयों पर आत्मसंवाद करता रहा है। सौ वर्षों की इस यात्रा में संघ को बहुत कुछ प्राप्त हुआ है। लाखों स्वयंसेवक, हजारों संगठन, राजनीतिक शीर्ष, शैक्षणिक नेटवर्क और सांस्कृतिक प्रभाव। फिर भी, संघ अपने आपको ‘समाप्त यात्रा’ नहीं मानता। उसकी दृष्टि में यह सब ‘कार्य विस्तार का माध्यम है, लक्ष्य नहीं।’ यह विचार ही उसे आत्ममुग्ध होने से रोकता है। संघ का सबसे बड़ा सामाजिक योगदान यह रहा है कि उसने राष्ट्रीय चेतना को केवल भाषणों में नहीं, जीवन में उतारा। उसने स्वयंसेवक को मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर या किसी भी पूजा पद्धति से ऊपर एक भारतीय के रूप में गढ़ा। संघ की आत्मा उसके शाखा जीवन में बसती है जहां न कोई टीवी कैमरा होता है, न कोई उत्सव। वहां केवल साधना होती है तन, मन और राष्ट्र की। आज जब वह शताब्दी की दहलीज़ पर खड़ा है, तो आत्ममुग्ध होने का अवसर उसके पास भरपूर है लेकिन वह नहीं है। न तो संघ ने अपनी 100 साल की यात्रा को कोई भव्य उत्सव बनाया, न ही मीडिया कैम्पेन। वह जानता है कि ‘कार्य की पूजा’ ही उसका मूल है, न कि प्रचार की आरती। यह उस गहराई का संकेत है, जो भारत के पारंपरिक ज्ञान और तपस्या की विरासत से जुड़ी है। संघ का यह आत्मसंयम ही उसे दीर्घकालिक बनाता है। वह जानता है कि भारत के पुनर्जागरण की यात्रा केवल राजनीतिक सत्ता या सामाजिक संगठन से नहीं चलेगी, यह एक आत्मिक संघर्ष भी है और यह आत्मिकता, आत्ममुग्धता की दुश्मन होती है। शायद इसीलिए, जब संघ अपने 100वें वर्ष में प्रवेश करता है तो वह कोई घोषणा नहीं करता, बल्कि एक मौन साधक की तरह समाज के साथ चल पड़ता है “बिना थके, बिना रुके, बिना डिगे।” संघ आत्ममुग्ध नहीं है क्योंकि वह जानता है कि सच्चा राष्ट्रनिर्माण आरंभिक होता है, समाप्त नहीं। वह जानता है कि समाज को हर दिन एक नई शाखा, एक नई चेतना और एक नया संकल्प चाहिए। इसलिए सौ वर्षों बाद भी वह रास्ते में है, मंच पर नहीं। इसी में उसकी मौलिकता है। इसी में उसका तप है। इसी में उसकी भारतीयता है। सचिन त्रिपाठी Read more » Even after 100 years the Sangh is not complacent सौ वर्ष बाद भी संघ आत्ममुग्ध नहीं
खान-पान खेत-खलिहान हाइड्रोपोनिक खेती: भविष्य की दिशा या सीमित समाधान? July 24, 2025 / July 24, 2025 | Leave a Comment सचिन त्रिपाठी भारत कृषि प्रधान देश है परंतु कृषि आज भी एक असुरक्षित, अनिश्चित और घाटे का सौदा बनी हुई है। भूमि क्षरण, जल संकट, मौसम की मार, लागत में वृद्धि और बाजार की अस्थिरता ने किसानों को वैकल्पिक तकनीकों की ओर देखने के लिए मजबूर कर दिया है। ऐसे में ‘हाइड्रोपोनिक’ खेती अर्थात मिट्टी रहित, नियंत्रित वातावरण में पौधों की खेती को कृषि क्षेत्र के भविष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह तकनीक भारत के किसानों के लिए व्यावहारिक और टिकाऊ समाधान बन सकती है? हाइड्रोपोनिक खेती की शुरुआत नीदरलैंड, इजरायल और अमेरिका जैसे देशों में हुई जहां भूमि और जल की सीमित उपलब्धता ने वैज्ञानिकों को नियंत्रित खेती की दिशा में प्रयोग के लिए प्रेरित किया। आज इजरायल इस तकनीक में वैश्विक अगुवा है जहाँ रेगिस्तानी क्षेत्रों में अत्याधुनिक हाइड्रोपोनिक फार्म फसल उत्पादन कर रहे हैं। अमेरिका और कनाडा में यह तकनीक शहरी कृषि, सुपरमार्केट और ग्रीन रेस्टोरेंट्स के लिए ताज़ी सब्जियों की आपूर्ति का मुख्य आधार बन चुकी है। जापान और सिंगापुर जैसे देश जहां कृषि भूमि सीमित है, वहां हाइड्रोपोनिक्स वर्टिकल फार्मिंग के साथ जोड़ा गया है। भारत में इस तकनीक को अब धीरे-धीरे अपनाया जा रहा है, विशेष रूप से बड़े शहरों और कुछ विकसित राज्यों में। बेंगलुरु, पुणे, हैदराबाद, गुरुग्राम, अहमदाबाद जैसे शहरों में कई निजी स्टार्टअप शहरी हाइड्रोपोनिक फार्मिंग को बढ़ावा दे रहे हैं। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, हरियाणा और तेलंगाना की सरकारों ने इस तकनीक के लिए कुछ प्रोत्साहन योजनाएं भी चलाई हैं। हालांकि भारत में अब तक यह तकनीक प्रायोगिक और व्यावसायिक सीमित क्षेत्रों तक ही केंद्रित है। गांवों या छोटे किसानों में इसका प्रसार नगण्य है। भारत सरकार की ‘स्मार्ट एग्रीकल्चर’ और ‘डिजिटल इंडिया’ पहल के तहत नवीन कृषि तकनीकों को बढ़ावा देने की दिशा में कुछ प्रयास हो रहे हैं। कृषि मंत्रालय ने ‘प्रिसिजन फार्मिंग’ और ‘कंट्रोल्ड एनवायरनमेंट एग्रीकल्चर’ को प्राथमिकता क्षेत्र बताया है और विभिन्न राज्य सरकारें स्टार्टअप्स को सहायता दे रही हैं परंतु, जमीनी स्तर पर इसे अपनाने में अभी भी कई बाधाएं हैं ,खासकर पूंजी, प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे की सीमाओं के कारण। हाइड्रोपोनिक सिस्टम की स्थापना में प्रति एकड़ ₹25 लाख से अधिक का खर्च आता है। 86% भारतीय किसान सीमांत और छोटे हैं जिनकी वार्षिक कृषि आय ₹1 लाख से भी कम है। यह तकनीक उनके लिए सुलभ नहीं है। यह खेती ‘लो टेक’ नहीं है। पीएच बैलेंस, इलेक्ट्रिकल कंडक्टिविटी, नमी नियंत्रण, पोषक घोल का ज्ञान ये सब आवश्यक हैं। ग्रामीण किसानों के पास इसके लिए प्रशिक्षण और संसाधन नहीं हैं। सतत और गुणवत्ता युक्त जल तथा बिजली की उपलब्धता इस तकनीक की रीढ़ है। भारत के अनेक गांवों में अभी भी ये आधारभूत सुविधाएं बाधित रहती हैं। हाइड्रोपोनिक उत्पादों की मांग फिलहाल शहरी उच्च वर्ग तक सीमित है। बाजार की सीमाएं और मूल्य अस्थिरता इसे जोखिम भरा बना देती हैं। भारत में एक समान नीति लागू नहीं की जा सकती। जल संकट से जूझते राज्यों (जैसे राजस्थान, तमिलनाडु) और शहरी क्षेत्रों के पास स्थित बेल्ट्स को प्राथमिकता दी जाए। एफपीओ, एसएचजी या कृषि स्टार्टअप्स के माध्यम से साझा हाइड्रोपोनिक यूनिट्स को प्रोत्साहित किया जाए ताकि लागत और जोखिम का बंटवारा हो। केवीके और कृषि विश्वविद्यालयों के माध्यम से व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाए। अनुसंधान संस्थानों को भारतीय जलवायु के अनुकूल प्रणाली विकसित करने की दिशा में कार्य करना चाहिए। नाबार्ड और अन्य वित्तीय संस्थानों को हाई रिस्क कृषि निवेश के लिए विशेष स्कीम लानी चाहिए। बीमा सुरक्षा और मूल्य गारंटी योजना तकनीक को अपनाने में सहायक होगी। हाइड्रोपोनिक खेती कोई ‘मैजिक बुलेट’ नहीं है जो सभी समस्याओं का समाधान कर दे। परंतु यह तकनीक भारत के बदलते कृषि संदर्भ में एक महत्वपूर्ण उपकरण बन सकती है यदि इसे व्यवस्थित, नीति-सहायक और क्षेत्रीय जरूरतों के अनुसार लागू किया जाए। यह तकनीक उन किसानों के लिए व्यवहारिक है जो शहरी मांगों से जुड़े हैं, पूंजी और तकनीकी पहुंच रखते हैं, या जो संगठित समूहों के तहत काम करते हैं। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, एक तकनीक सभी के लिए नहीं हो सकती, लेकिन सही क्षेत्र, सही समूह और सही नीति के तहत हाइड्रोपोनिक खेती भविष्य की दिशा तय कर सकती है। सचिन त्रिपाठी Read more » Hydroponic Farming हाइड्रोपोनिक खेती
राजनीति भारत और त्रिनिदाद — दो तट, एक आत्मा। July 10, 2025 / July 10, 2025 | Leave a Comment सचिन त्रिपाठी जब भारत की पवित्र गंगा के घाटों से कुछ गरीब और मजबूर हाथ नावों में सवार हुए थे, तब उन्हें नहीं पता था कि उनके भाग्य की पतवार किसी और ही तट पर लगने वाली है। त्रिनिदाद और टोबैगो कैरेबियन सागर का यह छोटा सा द्वीपीय देश भारत से हजारों मील दूर होते हुए भी, भारतीय हृदय और इतिहास से गहराई से जुड़ा है। यह रिश्ता केवल कूटनीति या व्यापार का नहीं, बल्कि एक सामूहिक स्मृति और साझा संस्कृति का है। इस रिश्ते की शुरुआत 30 मई 1845 को हुई, जब ‘फाटेल रोज़ैक’ नामक जहाज भारत से 225 श्रमिकों को लेकर त्रिनिदाद पहुंचा। ब्रिटिश साम्राज्य ने दास प्रथा समाप्त होने के बाद भारत से मजदूरों को गिरमिटिया व्यवस्था के तहत भेजना शुरू किया। 1917 तक लगभग 1.5 लाख भारतीयों को त्रिनिदाद लाया गया। वे खेतों में गन्ना काटते थे पर अपने साथ अपने रामचरितमानस, भोजपुरी लोकगीत, त्योहारों की परंपराएं और देवताओं की मूर्तियां भी लाए। वो परदेश को देश बनाने की यात्रा थी। मंदिर बने, मस्जिदें खड़ी हुईं, दीवाली और होली मनाई जाने लगी। त्रिनिदाद की माटी में तुलसी और नीम के पौधे पनपने लगे। आज त्रिनिदाद में 500 से अधिक मंदिर, रामलीला मंडलियां, और भोजपुरिया संस्कृति की झलक हर कोने में देखी जा सकती है। भारत और त्रिनिदाद का यह रिश्ता केवल सांस्कृतिक नहीं, राजनीतिक भी बना। बासदेव पांडे, एक गिरमिटिया वंशज, त्रिनिदाद के प्रधानमंत्री बने (1995–2001)। बाद में कमला प्रसाद बिसेसर भी प्रधानमंत्री बनीं। आज वहां की कुल जनसंख्या लगभग 14 लाख है, जिसमें से 37% लोग भारतीय मूल के हैं। वे राजनीति, शिक्षा, चिकित्सा, और मीडिया में प्रभावशाली भूमिका निभा रहे हैं। कूटनीतिक दृष्टि से भारत और त्रिनिदाद के संबंध 1962 में त्रिनिदाद की स्वतंत्रता के साथ ही औपचारिक रूप से स्थापित हुए। पोर्ट ऑफ स्पेन में भारतीय उच्चायोग न केवल राजनयिक काम करता है बल्कि हिंदी, योग, भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य को भी बढ़ावा देता है। 2025 में इस संबंध ने एक नई ऊंचाई तब छुई, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हाल ही में त्रिनिदाद की ऐतिहासिक यात्रा पर गए। उन्होंने वहां की संसद को संबोधित किया और देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान “ऑर्डर ऑफ द रिपब्लिक ऑफ त्रिनिदाद और टोबैगो” प्राप्त किया। यह सम्मान केवल भारत के प्रधानमंत्री को ही नहीं बल्कि उस पूरी ‘गिरमिटिया’ विरासत को समर्पित था जो शोषण से संस्कृति तक का सफर तय कर चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा केवल औपचारिकता नहीं थी, वह भारत की सॉफ्ट पावर, डायस्पोरा नीति और ग्लोबल साउथ लीडरशिप की स्पष्ट घोषणा थी। इस दौरान भारत और त्रिनिदाद के बीच 6 अहम समझौतों पर हस्ताक्षर हुए जिनमें डिजिटल गवर्नेंस, स्वास्थ्य, कृषि, संस्कृति, खेल और शिक्षा शामिल हैं। भारत ने त्रिनिदाद को 2000 लैपटॉप, आधुनिक स्वास्थ्य उपकरण, और डिजिटल एजुकेशन प्लेटफार्म प्रदान किए। साथ ही, भारतीय मूल के नागरिकों के लिए ओवरसीज सिटीजनशिप ऑफ इंडिया सुविधा अब छठवीं पीढ़ी तक लागू कर दी गई है जिससे त्रिनिदाद में बसे भारतीय मूल के लोग अपने पुरखों की धरती से और मजबूती से जुड़ सकें। इस यात्रा के दौरान त्रिनिदाद ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता की पूरी तरह से समर्थन की भी घोषणा की। यह भारत के लिए एक बड़ी रणनीतिक कूटनीतिक विजय है हालांकि, विरोध के स्वर भी उठे। कुछ स्थानीय संगठनों ने भारत में मानवाधिकार स्थिति को लेकर आपत्ति जताई पर ये स्वर सीमित रहे। बहुसंख्य भारतीय समुदाय और सरकार ने इस दौरे को एक सांस्कृतिक उत्सव की तरह अपनाया। भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ यहां खुलकर चमकी. योग दिवस, हिंदी सप्ताह, भारतीय फिल्म महोत्सव और रामायण मंचन जैसे कार्यक्रमों ने त्रिनिदाद की नई पीढ़ी को फिर से भारत की ओर मोड़ा है। हिंदी भाषा अब वहाँ के स्कूलों में एक वैकल्पिक विषय बन चुकी है। भारत और त्रिनिदाद का संबंध आज केवल इतिहास की विरासत नहीं रहा, वह एक जीवंत, क्रियाशील और गहराता हुआ संवाद है। कभी जो रिश्ता ‘आंसुओं’ और ‘अनुबंधों’ से शुरू हुआ था, वह आज पुरस्कारों, समझौतों और विश्वास के पुल से जुड़ा है। यह संबंध बताता है कि भारत की आत्मा कहीं भी हो, वह मिटती नहीं, वह पनपती है। त्रिनिदाद की मिट्टी में गंगा की गूंज, तुलसी की खुशबू और रामायण की चौपाइयां आज भी जीवित हैं। प्रधानमंत्री मोदी की हालिया यात्रा ने इस पुल को नया रंग दिया है। अब यह सिर्फ संस्कृति की नहीं, तकनीकी, शिक्षा, वैश्विक नेतृत्व और विकास की साझेदारी बन चुकी है और यह साझेदारी आने वाले दशकों में भारत की वैश्विक भूमिका को और सशक्त बनाएगी। सचिन त्रिपाठी Read more » India and Trinidad भारत और त्रिनिदाद
आलोचना साहित्य कहीं महंगा न पड़ जाये आस्था से मजाक July 7, 2025 / July 7, 2025 | Leave a Comment सचिन त्रिपाठी भारत की सांस्कृतिक परंपरा पर्वों की उस रंग-बिरंगी माला के समान है जिसका प्रत्येक मनका किसी ऋतु, किसी फसल, किसी प्राकृतिक तत्व या किसी लौकिक सत्य से बंधा हुआ है। यहां उत्सव केवल उल्लास नहीं, ऋतुओं का स्वागत है, आकाश-पवन-नदी का वंदन है, और भूमि माता के चरणों में अर्पित श्रद्धा है। मकर संक्रांति के साथ जब सूर्य उत्तरायण होता है तो वह मात्र खगोल घटना नहीं होती, वह अन्नदाता के हृदय में नई आशा की किरण भी जगाता है। छठ पूजा में सूर्य को अर्घ्य देते समय केवल एक देवता नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्रकाश व्यवस्था के प्रति आभार प्रकट किया जाता है किंतु दुःख की बात यह है कि आज इन्हीं पर्वों को उपहास का विषय बना दिया गया है, कभी सोशल मीडिया की मीम संस्कृति के माध्यम से तो कभी तथाकथित बुद्धिजीविता के नाम पर। आश्चर्य होता है जब छठ पूजा जैसे विराट और श्रमसाध्य पर्व को ‘रिवर्स योगा’ कहा जाता है या होली जैसे रंगों के उत्सव को जल अपव्यय की उपमा देकर बदनाम किया जाता है। हास्य की यह धारा जब आस्था का उपहास बनने लगे, तब वह केवल मनोरंजन नहीं, सांस्कृतिक विघटन का औजार बन जाती है। कुछ वर्ष पूर्व एक वेब सीरीज में छठ व्रत करने वाली स्त्रियों को ‘गंवार और अंधविश्वासी’ कहकर चित्रित किया गया। यह कोई अलग घटना नहीं बल्कि एक बढ़ती हुई प्रवृत्ति का उदाहरण था जहां पर्वों को ‘साइंटिफिक टेंपर’ की कसौटी पर कसा जाने लगा किंतु बिना यह समझे कि ये पर्व ही तो भारतीय मानस का विज्ञान हैं, हमारे शरीर, पर्यावरण और समाज के सामूहिक संतुलन का जीवंत उदाहरण हैं। दीपावली के आते ही शोर उठता है ‘पटाखे मत जलाओ, प्रदूषण होता है!’ मानो पूरे वर्ष का पर्यावरणीय संतुलन केवल एक रात के दीपोत्सव से डगमगाने लगे। क्या किसी ने होली के पूर्व गांवों में की जाने वाली तालाब सफाई देखी है? क्या किसी एनजीओ ने छठ पूजा से पूर्व गंगा घाटों की सामूहिक सफाई की सराहना की है? नहीं, क्योंकि अब आलोचना का उद्देश्य सुधार नहीं, अपमान है। भारतीयता को ‘पर्यावरण विरोधी’ दिखाकर, पश्चिमी मानकों की श्रेष्ठता स्थापित करना है। क्या आपने कभी देखा है कि ‘थैंक्स गिविंग’ पर टर्की की बलि का मज़ाक उड़ाया गया हो? क्या ‘ईस्टर’ पर अंडों और चॉकलेट्स की बर्बादी के खिलाफ कोई अभियान चला? लेकिन भारत में तो हर त्योहार के साथ एक झूठा अपराधबोध जोड़ दिया जाता है। गणेश चतुर्थी को ‘नदी प्रदूषण का पर्व’, होली को ‘जल बर्बादी का उत्सव’, और दीपावली को ‘ध्वनि और वायु प्रदूषण का महापर्व’ कहकर प्रस्तुत किया जाता है। पर्व केवल पूजा नहीं होते. वे समाज की चेतना होते हैं। होली, जहां रंगों में जाति-वर्ग-भेद मिट जाता है; छठ, जहां स्त्री प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करती है; गणेश चतुर्थी, जहां बुद्धि और बाधाओं के बीच संवाद होता है, इन सभी को ‘जोक्स’ के जरिए तुच्छ बना देना किसी सभ्यता की जड़ों को काटने जैसा है। वर्तमान में सोशल मीडिया ने ‘मीम’ को संवाद का माध्यम बना दिया है लेकिन यह मीम, जहां किसी विदेशी प्रधानमंत्री की टोपी का मजाक हल्के हास्य में लिया जाता है, वहीं जब किसी भारतीय स्त्री की ‘करवा चौथ’ की तस्वीर आती है तो उसके साथ ‘पितृसत्ता की गुलामी’ जैसे कटाक्ष जोड़े जाते हैं। यह केवल मज़ाक नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक मानस को चुपचाप नष्ट करने की चेष्टा है। पर्वों के पीछे की वैज्ञानिकता को समझे बिना उन्हें ‘अंधविश्वास’ कहना उस दृष्टिहीन व्यक्ति जैसा है जो सूर्य की गर्मी से डरकर उसे नकारता है। छठ पूजा में जब स्त्रियां व्रत के माध्यम से सूर्य की सीधी किरणों को स्वयं पर लेती हैं तो वह केवल भक्ति नहीं, शरीर और प्रकाश विज्ञान का अनुप्रयोग भी है। दीपावली में जब घरों की सफाई होती है तो वह कीट नियंत्रण का पारंपरिक उपाय है। होलिका दहन कृषि अवशेषों के निपटान का स्थानीय तंत्र है जिसे अब ‘पर्यावरण खतरा’ कहा जाता है। यह आवश्यक है कि हम अपनी नई पीढ़ी को इन पर्वों के मूल तत्व से परिचित कराएं। उन्हें यह सिखाया जाए कि गणेश केवल मूर्ति नहीं, विघ्न-विनाशक ऊर्जा के प्रतीक हैं; कि दीपक केवल तेल और बाती नहीं, चेतना की लौ हैं; और कि छठ केवल सूर्य पूजन नहीं, जल-प्रकाश-व्रत और स्त्री चेतना का महायोग है। यदि हमने इन पर्वों को केवल ‘हास्य’ और ‘फॉरवर्ड्स’ की वस्तु बनने दिया, तो आने वाले समय में हमारी संतति इन्हें ‘संस्कृति’ नहीं, ‘कॉमेडी’ मानेगी। तब हम अपनी पहचान नहीं, अपनी जड़ों से दूर हो चुके होंगे। इसलिए, समय है कि हम अपने पर्वों का पुनर्पाठ करें, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, सांस्कृतिक श्रद्धा से, और सामाजिक चेतना से। उपहास का उत्तर उपदेश नहीं, ज्ञान है और यह ज्ञान हमें बताता है कि ये पर्व मात्र परंपरा नहीं, प्रकृति से एक सतत संवाद हैं। हंसी उचित है जब वह आदर के साथ हो लेकिन जब वह आस्था पर वज्र की तरह गिरे तो वह केवल व्यंग्य नहीं, आत्म-अपमान बन जाती है। स्मरण रखिए, पर्वों का उपहास प्रकृति के प्रति हमारी निष्ठा को भी खंडित करता है और जो समाज अपनी ऋतुओं, नदियों, और सूर्य की उपेक्षा करता है, वह धीरे-धीरे अपनी ही चेतना से कट जाता है। Read more » Let the joke with faith not prove costly आस्था से मजाक
लेख क्यों न हम बूंदों की खेती करें … July 3, 2025 / July 3, 2025 | Leave a Comment सचिन त्रिपाठी क्यों न हम बूंदों की खेती करें? यह प्रश्न अब एक सुझाव नहीं बल्कि एक निर्णायक आग्रह है। भारत, जो अपनी पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में करता है, आज उस बिंदु पर खड़ा है जहां उसके खेतों में पानी की कमी, अनियमित वर्षा और सूखते जल स्रोत एक चुपचाप आती हुई आपदा का संकेत दे रहे हैं। देश की 60 प्रतिशत से अधिक खेती अब भी वर्षा पर आधारित है और जब मानसून कभी समय से न आए या कम वर्षा हो जाए तो किसान की पूरी आजीविका डगमगा जाती है। ऐसे में ‘बूंदों की खेती’ यानी माइक्रो इरिगेशन, विशेषतः ड्रिप और स्प्रिंकलर पद्धति केवल विकल्प नहीं बल्कि समय की सख्त मांग बन चुकी है। बूंदों की खेती एक ऐसी तकनीक है जिसमें पानी को सीधे पौधों की जड़ों तक बहुत धीमी गति से पहुंचाया जाता है जिससे प्रत्येक बूंद का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित होता है। यह पारंपरिक नहर या बाढ़ सिंचाई की तुलना में कई गुना अधिक कुशल पद्धति है। यह तकनीक भारत जैसे जल-अभाव वाले देश के लिए वरदान साबित हो सकती है। औसतन भारत में 1170 मिमी वार्षिक वर्षा होती है लेकिन उसका 80 प्रतिशत हिस्सा मात्र तीन-चार महीनों में गिरता है। बाकी समय खेत सूखे रहते हैं और भूजल पर निर्भर रहते हैं, जो दिन-ब-दिन नीचे खिसक रहा है। नीति आयोग की रिपोर्ट 2023 बताती है कि 2030 तक देश की 40 प्रतिशत आबादी को पीने के पानी तक सीमित पहुंच रह जाएगी। ऐसे में कृषि को पानी का विवेकपूर्ण उपयोग सिखाना होगा। माइक्रो इरिगेशन से पानी की 30 से 70 प्रतिशत तक बचत होती है। भारत सरकार के अनुसार यदि देश की 50 प्रतिशत खेती इस पद्धति को अपनाएं तो लगभग 65 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की सालाना बचत संभव है। केवल जल ही नहीं, इससे उर्वरकों और बिजली की भी बचत होती है। जब पानी सीधा जड़ तक जाता है, तो खाद भी उसी माध्यम से जड़ों में मिलाई जा सकती है जिससे ‘फर्टीगेशन’ के माध्यम से 30 से 40 प्रतिशत तक उर्वरक की बचत होती है। बिजली की खपत भी घटती है क्योंकि पंपों को लंबे समय तक चलाने की आवश्यकता नहीं होती। इसके अतिरिक्त खरपतवार और फंगल रोगों की आशंका कम होती है क्योंकि खेत के सभी हिस्सों में नमी नहीं फैलती। इस तकनीक का एक और महत्वपूर्ण पहलू है उत्पादन में बढ़ोतरी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के शोध बताते हैं कि ड्रिप इरिगेशन से टमाटर, मिर्च, अंगूर, केला, कपास जैसी फसलों की उपज में 20 से 90 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की गई है। इसका सीधा लाभ किसान की आय पर पड़ता है, जो प्रधानमंत्री की आय दोगुनी करने की परिकल्पना के अनुरूप है। बावजूद इसके, भारत में केवल 12 प्रतिशत कृषि भूमि ही माइक्रो इरिगेशन के अंतर्गत आती है। यह आंकड़ा खुद ही स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है। बाधाएं भी अनेक हैं। सबसे बड़ी चुनौती है इसकी प्रारंभिक लागत। एक हेक्टेयर भूमि पर ड्रिप प्रणाली लगाने में 30,000 से 70,000 रूपए तक खर्च आता है जो सीमांत और लघु किसानों के लिए संभव नहीं। सरकार ‘प्रति बूंद अधिक फसल’ योजना के तहत अनुदान देती है, लेकिन यह प्रक्रिया जटिल, कागजी और भेदभावपूर्ण मानी जाती है। वहीं, बहुत से किसानों को इस तकनीक की सही जानकारी नहीं है। उन्हें न मरम्मत आती है, न फिल्टरिंग की समझ। स्थानीय स्तर पर तकनीकी सहयोग की भारी कमी है। इसके अलावा कई ऐसे क्षेत्र भी हैं जहां पानी का स्रोत ही नहीं है, वहां माइक्रो इरिगेशन की उपयोगिता सीमित रह जाती है। इसलिए यह आवश्यक है कि वर्षा जल संग्रहण, तालाब निर्माण, बंधा प्रणाली और चेक डैम जैसी संरचनाओं को गांवों में प्राथमिकता दी जाए ताकि माइक्रो इरिगेशन को स्थायी आधार मिल सके। अगर भारत को जल संकट से उबारना है और कृषि को सतत बनाना है तो नीति, प्रोत्साहन और व्यवहार में एक ठोस परिवर्तन की आवश्यकता है। किसानों को सूचनाएं मोबाइल ऐप्स, रेडियो और पंचायतों के माध्यम से सरल भाषा में दी जानी चाहिए। कृषि विज्ञान केंद्रों को माइक्रो इरिगेशन पर मासिक प्रशिक्षण शिविर अनिवार्य रूप से चलाने चाहिए। इसके साथ ही फसलों के चयन में बदलाव आवश्यक है। अत्यधिक जल खपत करने वाली फसलें जैसे धान और गन्ना की जगह कम पानी में उगने वाली फसलें जैसे बाजरा, ज्वार, दालें और सब्जियों को प्रोत्साहित किया जाए। किसानों को फसल विविधीकरण की तरफ प्रेरित करना ही दीर्घकालिक समाधान है। बूंदों की खेती कोई नवीन विचार नहीं है बल्कि एक परख चुकी तकनीक है जिसे इजराइल जैसे रेगिस्तानी देशों ने अपनाकर खेती को लाभकारी और जल-संरक्षण युक्त बना दिया है। भारत के लिए यह कोई विकल्प नहीं बल्कि आवश्यक विकल्प है। हमें हर खेत तक सिंचाई पहुँचाने के पुराने संकल्प को अब ‘हर बूंद से हर खेत तक’ की नई सोच में बदलना होगा। जब पानी की हर बूंद को बचाया जाएगा, तभी धरती की हर नस में हरियाली बहेगी। इसलिए अब समय आ गया है कि हम केवल नारे न दें, बल्कि ठोस निर्णय लें। क्यों न हम हर खेत में बूंदों से हरियाली बो दें, ताकि भविष्य की पीढ़ियों को पानी और अन्न दोनों की कमी न हो। यही कृषि की सतत यात्रा की शुरुआत होगी – एक बूंद से। सचिन त्रिपाठी Read more » Why don’t we cultivate drops…