बचपन की कैद  

childhoodनन्हें नन्हें कांधों पर वजन उठाये

कौन सी जंग लड़ रहे हैं ये

ज़िन्दगी के मासूम सिपाही।

क्या यही है इनके लिये

ज़िन्दगी की अनमोल सौगात?

कब तक यूँ ही बोझा ढोयेंगे

ये नन्हें-नन्हें कोमल हाथ?

क्या यही है इनके लिये

ज़िन्दगी के असली मायने?

या देख पाएंगे ये भी कभी

बचपन के सपने सुहाने?

गुड्डे-गुड़ियों का घर सजाने

की नन्हीं सी उम्र में ये

आशियाना किसी और का

सजाते हैं।

बस्ते का बोझ उठाने वाले हाथ

ईंट-पत्थरों के बोझ के नीचे

दबते जाते हैं।

मासूम सी उम्र मे जाने कैसे

गंभीर सितम भी हंसकर

सह जाते हैं।

खुद स्कूल जाने की उम्र में

किसी और के बच्चों को स्कूल

छोड़कर आते हैं।

खिलौनों से खेलने के दौर में

खुद किसी और के हाथ का

खिलौना बन जाते हैं।

सुहाने बचपन के सपने तो

इनके लिए बेगाने हैं।

सुख के दिन तो इनके लिये

जैसे अनजाने हैं।

छोटी सी उम्मीद पाली है मैने मन में

कभी तो बहार आये इनके भी जीवन में

खुशियों का आसमां न सही

मुट्ठी भर जमीन ही मिल जाये

इनको अपनी दुनिया सजाने को।

बचपन के वो नटखट पल

वो शरारतों भरी हलचल

इन बाल मजदूरों को भी

कभी अपना बना जाएं।

आखिर कभी बचपन की खुशियां

इनके हिस्से भी आएं।

बचपन की गिरफ्त से आज़ाद ये पंछी

फिर से बचपन की कैद में आ जाएं।

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