एक साहित्यिक विभूति को सम्मानित किया बंगलौर ने

लालकृष्ण आडवाणी

सन् 1927 में कराची (सिंध) में जन्म लेने के कारण जीवन के आरम्भिक बीस वर्ष ब्रिटिश शासन में गुजरे। अनेकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैंने हिन्दी पढ़ना और लिखना 1947 में तब सीखा जब भारत स्वतंत्र हुआ और साथ-साथ विभाजन की त्रासदी झेलनी पड़ी।

उस वर्ष तक मैं सिर्फ दो भाषाओं को जानता था – मेरी मातृभाषा सिंधी और अंग्रेजी, जिसके माध्यम से मेरी शिक्षा हुई।

मैंने रामायण और महाभारत सबसे पहले सिंधी में पढ़ी, और बाद में सी. राजगोपालाचारी द्वारा लिखित अंग्रेजी संस्करण तथा उसके बाद में गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित विस्तृत संस्करण। विभाजन के पश्चात् मैं कराची से राजस्थान पहुंचा, जहां मैंने देवनागरी पढ़ना और लिखना सीखा। आयु के बीसवें वर्ष की शुरूआत में जिन दो लेखकों की हिन्दी पुस्तकें मैंने पढ़ी उनमें डा0 कन्हैयालाल मुंशी (गुजराती से अनुदित) और महात्मा गांधी के निकट सहयोगी आचार्य विनोबा भावे की थीं।

गत् सप्ताह मुझे बंगलौर में एक महान साहित्यिक विभूति डा0 जी. वेंकटसुब्बैया, जो इस वर्ष शतायु हुए हैं के अभिनन्दन समारोह में भाग लेने का अवसर मिला। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर्नाटक के मुख्यमंत्री श्री जगदीश शेट्टर ने की। इस कार्यक्रम में मुझे विनोबा भावे द्वारा लिखित निबन्ध को स्मरण करने का मौका मिला जिसका शीर्षक था ”किस आयु में व्यक्ति बूढ़ा होता है?”।

विनोबाजी ने अपने निबन्ध की शुरूआत इस संस्मरण से की कि उन्होंने कुरान, मराठी और अंग्रेजी में पढ़ी है, परन्तु वह मूल पाठ को अरबी भाषा में पढ़ने को उत्सुक हैं। इसलिए उन्होंने अरबी सीखनी शुरू की। एक मिलनेवाले ने टिप्पणी की कि ”अरबी सीख रहे हो? और वो भी इस उम्र में?” विनोबाजी ने जवाब दिया: ”मेरी उम्र से क्या दिक्कत है? मैं सिर्फ 65 का हूं।”

वह अपना निबन्ध पूरा करने गए जिसकी मुख्य कथा यह थी कि एक व्यक्ति तब बूढ़ा हाने लगता है जब वह मान ले कि जीवन के इस मुकाम पर वह कुछ भी नया सीख नहीं सकता।

अभिनन्दन समारोह में मैंने टिप्पणी की कि ”जी.वी. जिस नाम से उनके असंख्य प्रशंसक जानते हैं, ने न केवल शानदार शतक लगाया अपितु इसमें छक्के और चौके भी शामिल हैं। उनको सम्बोधित ‘शब्द ब्रह्मा‘ विभूषण के वे पूर्णतया पात्र हैं। और आचार्य विनोबा द्वारा बताई गई कसौटी पर, मैं यह कहना चाहूंगा कि जो नब्बे के अंत तक पुस्तकें लिखते रहे हैं, को सदाबहार युवा मानना चाहिए। जीवी कभी भी वृध्द नहीं होंगे!

टेलपीस (पश्च्यलेख) 

सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश रूमा पाल ने नवम्बर, 2011 में पांचवें वी.एम. ताराकुण्डे स्मृति व्याख्यान में ‘एक स्वतंत्र न्यायपालिका‘ विषय पर बोलते हुए कहा था कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और न्यायिक व्यवस्था अंतत: न्यायाधीशों की निजी ईमानदारी पर निर्भर करती है। उन्होंने न्यायपालिका और इसकी स्वतंत्रता पर खतरे के ‘सात पाप‘ गिनाए।

”पहला पाप, एक सहयोगी के अविवेकपूर्ण आचरण के प्रति ‘आखें मूंद लेना‘ और मामले को दबाना। उन्होंने कहा विरोधाभास है कि ये (लोग) न्यायपालिका की स्वतंत्रता को आलोचकों के विरूध्द अवमानना की कार्रवाई करने में उग्र रहते हैं जबकि इसी को अपनी ढाल के रूप में उपयोग करते हैं, वह भी अनेकविध पापों को, जिनमें से कुछ धन के लाभ से जुड़े होते हैं और कुछ इतने ज्यादा नहीं।

दूसरा पाप है पाखण्ड।

तीसरा है गुप्तता। उदाहरण के लिए, जिस प्रक्रिया से उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त किए जाते हैं या सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नत किए जाते हैं – ‘को देश में सर्वाधिक गुप्त रखा जाता है।‘

चौथा पाप है दूसरे के शब्दों की चोरी और उबाऊ शब्द बहुलता।

अहंकार पांचवां पाप है। न्यायाधीश अक्सर स्वतंत्रता को न्यायिक और प्रशासनिक अनुशासनहीनता के रूप में परिभाषित कर लेते हैं

बौध्दिक बेईमानी छठा पाप है।

सातवां और अंतिम पाप भाई-भतीजावाद है।

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