बरेदी

एक हैं जरिया, दिन दुपहरिया
समंदर की भांति उर हैं दरिया
पशुओं को लेकर चल दिया बरेदी
एक बेरा खेवत खलियान,
पहने कपड़े आध
दूजी बेरा चल दिया चराने
भैंस के पगही बांध
ओ! बरेदी क्या हयात में यही तुम्हारे
कभी खुद को भी मुकुर में संवारे
तुम्हारी चाल है गोपियों भांति
लगता , मर्दाना काम न आती
खफा न हो ये चाल भी
समाज को दीमक की तरह खाती
ओ ! बरेदी
तुम एक वीर पुरुष
तुममें हैं एक नई उमंग, हर वक्त
चलते पशुओं के संग
मगर हयात में तनिक भी नही तरंग
चरवाही कर करता गुजारा
नही ज़ीस्त में कोई और सहारा
यातना भी दब गई , उम्मीदों के किरण में
कही भी सराय नही
यातना के सिवा हैं नही कुछ ,
मगर सप्राण हैं ए’तिबार कही
हयात में सिर्फ तम , इश्तियाक़,
तकल्लुफ़ , तड़प ही
ओ! बरेदी
तुम कोई और नहीं ,
तुम्हारा वजूद है कई
मत समझना खुद को सिर्फ एक बरेदी
तुम एक वीर पुरुष ,हैं तुममें पुरुषत्व

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