बेक़द्रों के हाथ अगर चाँद भी लग जाए,
वो उसको भी ग्रहण लगाने का हुनर रखते हैं।
दीये जलें तो हवा को दोषी ठहराते हैं,
ख़ुद अँधेरे पालने की पूरी क़सम रखते हैं।
फूलों को रौंदकर कहते हैं—मौसम ख़राब है,
आईने तोड़कर चेहरे से नज़र चुराते हैं।
जहाँ उजाला सच बोलने लगता है ज़रा सा,
वहीं ये लोग साज़िशों के बादल बरसाते हैं।
सूरज को भी तौलते हैं अपनी छाया से,
सच की ऊँचाई उन्हें अक्सर चुभती है।
जो स्वयं भीतर से खोखले हों साहब,
उन्हें हर चमकती चीज़ ही झूठी लगती है।
इतिहास गवाह है—रात ज़्यादा टिकती नहीं,
ग्रहण भी स्थायी नहीं होते ज़माने में।
चाँद फिर निकल आता है पूरी आभा संग,
और बेक़द्र रह जाते हैं अपने बहाने में।
– डॉ. प्रियंका सौरभ