समाज

देहदान या अंगदान : मोक्ष और सम्मान साथ-साथ

प्रो. मनोज कुमार

दो दिन पहले हमारे परिवार के एक बुर्जुग की मृत्यु हो गई. मृत्यु प्रकृति की नियति है, यह होना ही था लेकिन वे मर कर भी अमर हो गए. जीते जी उन्होंने देहदान या अंगदान का निर्णय ले लिया था. इस बारे में परिजनों को चेता दिया था कि उनकी देह को आग में भस्म करने के बजाय अस्पताल को दान कर दिया जाए ताकि उनका शरीर किसी जरूरतमंद के काम आ सके. वे अकेले नहीं हैं. समय-समय पर अनेक लोग इस प्रकार देहदान या अंगदान कर स्वयं को जीवित कर लेते हैं. हमारे समक्ष महर्षि दधीची का उदाहरण है. पौराणिक कथा हम सबने सुना है कि महर्षि दधीची किस तरह अपनी अस्थियों का दान कर असुर वृत्रासुर को मारकर शांति का मार्ग प्रशस्त किया था.  महर्षि दधीची पृथ्वीलोक के निवासी थे. असुर को मारने का समय नहीं रहा लेकिन देहदान या अंगदान कर ऐसे व्यक्तियों को जीवित रखने का प्रयास कर सकते हैं जिससे समाज एवं परिवार का हित जुड़ा होता है. वर्तमान समय में इसी पृथ्वीलोक के निवासियों को देह की जरूरत है. एक ऐसे देह की जो निर्जीव हो चुका है लेकिन इसके बाद भी वह अनेक प्राणियों को जीवनदान दे सकता है. महर्षि दधीची से प्रेरणा लेकर हम देहदान या अंगदान की ओर प्रवृत्त होते हैं तो मरकर भी जिंदा रह सकते हैं. देहदान या अंगदान के लिए समाज को जागरूक करने का प्रयास किया जा रहा है. अब शिक्षित समाज यह समझने लगा है कि मृृत्यु के पश्चात भी मनुष्य के आर्गन दूसरे बीमार या मौत की दहलीज पर खड़े लोगों को जीवनदान दे सकते हैं. देहदान या अंगदान को लेकर समाज में वह खुलापन नहीं आया है. 

भारतीय समाज में मोक्ष की अवधारणा बहुत पुरानी है. मिथक है कि मृत्यु के बाद सभी संस्कार किए जाने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है. अब यहां पर दर्शन के एक विद्यार्थी की तरह आपको सोचना होगा कि आखिर मोक्ष है क्या? एक मोटामोटी मान लेते हैं कि एक व्यक्ति औसतन 70 वर्ष की आयु पूर्ण करता है. अपनी योग्यता और व्यवहार से वह जीवन जीता है लेकिन जब उसे आवश्यकता होती है तो उसके पास दो व्यक्ति भी नहीं होते हैं. इसे क्या माना जाए? सीधी सी बात है कि जब आप पर आपका परिवार, मित्र और समाज भरोसा नहीं करते हैं तो मृत्यु उपरांत देह को अग्रि के हवाले करने से कौन सा मोक्ष मिल जाएगा? साधारण शब्दों में समझें कि मोक्ष का सीधा अर्थ है जीवित रहते हुए आपका परिवार, मित्रगण एवं समाज आप पर भरोसा करे और यही भरोसा मोक्ष कहलाता है. मैं अल्पज्ञानी हूँ और मुझे नहीं मालूम कि मृत्यु के उपरांत किसे मोक्ष की प्राप्ति हुई और किसने इसे बताया. तेरह दिनों के संस्कार के पश्चात आमतौर पर दिवगंत व्यक्ति विस्मृत कर दिया जाता है. मोक्ष की चाह है तो इसे आप देहदान या अंगदान के रूप में प्राप्त कर सकते हैं. यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि आज से दस वर्ष पहलेे जब मैं पचास की आयु पूर्ण कर चुका था, तब देहदान का घोषणा पत्र भरकर स्वयं को उऋण कर लिया था.  

देहदान या अंगदान को थोड़ा व्यापक संदर्भ में समझना होगा. आज से पाँच दशक पहले मृत्यु उपरांत संस्कार उस समय की जरूरत होता था. अग्रि संस्कार के लिए चंदन की लकड़ी के उपयोग की जानकारी मिलती थी. फिर समय बदला और चंदन की लकड़ी मिलना बंद हुआ, मंहगाई बढ़ी और साधारण लकड़ी से दाह संस्कार किया जाने लगा. आज के दौर में पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से लकड़ी मिलना दिन-ब-दिन दुर्लभ होता जा रहा है और दाह संस्कार अब इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से हो रहा है. पाँच-सात पहले अपने एक करीबी मित्र के भाई के देहांत के बाद दाह संस्कार में पहुँचा तो ज्ञात हुआ कि उनका दाह संस्कार इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से किया जाएगा. महानगरों की बात छोड़ दें तो भोपाल और मेरे लिए निपट पहला अनुभव था. मन में उठते-गिरते विचारों के साथ दाहसंस्कार स्थल पर पहुँचा. आवाक रह गया. देह को लगभग जला देने वाली इलेक्ट्रिक उष्मा से पास खड़े लोग झुलस जाने का अनुभव कर रहे थे. एक लम्बा ट्रेनुमा फ्रेम में उन्हें रखा गया और चंद सेकंड में एक तेज आवाज़ के साथ उनके दाह संस्कार की क्रिया पूर्ण हुई. एकाध घंटे में बिजली उष्मा शांत होने पर फूल चुनने की विधि भी उसी समय पूरी कर ली गई. यह दृश्य दिल दहलाने वाला था. 

पारम्परिक दाह संस्कार के उलट यह आधुनिक दाह संस्कार केवल औपचारिक लग रहा था. मन में दाह संस्कार का अर्थ वही रचा-बसा था जो दशकों से देखता चला आ रहा था. तब मन मेंं खयाल आया कि आज हम महर्षि दधीची नहीं हो सकते हैं लेकिन उनके बताये रास्ते पर चलकर देहदान या अंगदान कर समाज का कल्याण तो किया ही जा सकता है. यह एक प्रैक्टिल कदम भी होगा. सोचिए कि आज 2025 में हम जिस स्थिति में हैं, वही स्थिति दस या बीस साल बाद क्या होगी? क्या हम सब एक वस्तु की तरह बिजली के हवाले कर दिए जाएंगे? तब हमारी मोक्ष की अवधारणा क्या फलीभूत होगी? शायद नहीं इसलिए आवश्यक है कि सभी आयु वर्ग (नाबालिब बच्चों को छोड़ दें) तो देह दान का संकल्प ले लेना चाहिए. यह बात भी समझना चाहिए कि जो देहदान या अंगदान कर रहे हैं, वह समाज का काम तो आएगा ही, आपके परिजनों के लिए भी काम आ सकता है. एक अनुभव शेयर करना चाहूँगा. एक साल पहले मैं लीवर सिरोसीस का पेशेंट हो गया था. लीवर ट्राँसप्लांट करना जरूरी था. ऐसे में लीवर डोनेट करने वाले की जरूरत थी. तब मेरी बिटिया ने पूरे हौसले के साथ खड़ी होकर अपना लीवर मुझे डोनेट किया. आज मैं उसकी वजह से जिंदा हँू. यह भी तो एक किस्म का देहदान या अंगदान ही है. समय की जरूरत के अनुरूप हम सबको देहदान या अंगदान का संकल्प लेना चाहिए और यह भी मान लेना चाहिए कि जिंदा रहते घर-परिवार, मित्र और समाज आप पर भरोसा करे, यही मोक्ष है.

देहदान या अंगदान की दिशा में प्रेरित और प्रोत्साहित करने के लिए मध्यप्रदेश में अभिनव प्रयास किया गया है. मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की परिकल्पना के अनुरूप  देहदान या अंगदान करने वाले व्यक्ति की मृत्यु के बाद पार्थिव शरीर को ‘गार्ड ऑफ़ ऑनर’ देकर अंतिम विदाई दी जाएगी साथ ही दान करने वाले व्यक्ति के परिवार के सदस्यों को 26 जनवरी और 15 अगस्त को सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जाएगा. इसके अतिरिक्त प्रदेश के सभी मेडिकल कॉलेजों में अंगदान व अंग प्रत्यारोपण की सुविधाओं की व्यवस्था की जाएगी. मध्यप्रदेश में इस अनुकरणीय प्रयास से समाज में देहदान या अंगदान के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ेगी. मध्यप्रदेश के इन प्रयासों को देश के अन्य राज्यों में भी बढ़ाये जाने की उम्मीद की जा सकती है क्योंकि इससे सरकार नहीं, समाज के लाभ का ध्येय है. मोक्ष के साथ सम्मान देने का यह भाव मध्यप्रदेश में ही हो सकता है क्योंकि मध्यप्रदेश यूं ही देश का ह्दय प्रदेश नहीं कहलाता है.