राजनीति

बिहार चुनाव में कास्ट बैरियर टूटने से एनडीए की बम्पर जीत

डा.नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी

पिछले महीने  बिहार चुनाव के संदर्भ में लेख लिखा था जिसमें मैंने एनडीए की जीत की भविष्यवाणी की थी लेकिन  इतने बम्पर जीत की मुझे भी उम्मीद नहीं थी क्योंकि मुझे एनडीए के गठबंधन में नीतीश कुमार कमजोर कड़ी साबित होते हुए दिखाई पड़ रहे थे। बीजेपी का पलड़ा भारी था, ये मुझे पता था लेकिन जेडीयू  का प्रदर्शन इतना शानदार रहेगा, इसकी कल्पना कोई नही कर सकता था। इस प्रचंड जीत को हमें डिकोड करना जरूरी है, तभी बंगाल में जीत के रास्ते तैयार होंगे। बिहार के जीत में महिलाओं ने जबरदस्त भूमिका निभाई है। चुनाव के पहले बिहार के महिलाओं के खाते में जो दस हजार रुपये ट्रांसफर किये गए, वह एक मास्टर स्ट्रोक था। वैसे इस तरह का प्रलोभन चुनाव के ठीक पहले देना  सर्वथा अनुचित है लेकिन आज हरेक दल ये काम कर रहा है।

मुफ्त बिजली और पानी देने की शुरुआत केजरीवाल ने दिल्ली में की थी जिसका फायदा उनको दिल्ली के विधानसभा चुनाव जीतने में हुआ था। आज उसी नक्शे कदम पर बाकी पार्टियां भी चल रही है और इसका फायदा भी होते साफ दिख रहा है। झारखंड, मध्यप्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट में इसका फायदा जाहिर तौर पर हुआ है। अगर इस पर लगाम कोर्ट और चुनाव आयोग द्वारा नहीं लगाया गया तो इसका दुष्परिणाम भी आने वाले समय में अवश्य होगा। सत्ता में रहने वाले दल को इसका फायदा मिलता रहेगा। दरअसल इस तरह की घोषणाएं एक तरह से मतदाता को दिया गया एक प्रकार का रिश्वत या प्रलोभन ही है। इस पर संविधान में संशोधन करके एक बिल पास करना चाहिए ताकि कोई भी दल इस तरह की घोषणा चुनाव के ठीक पहले ना कर सके।

 बिहार के चुनाव में दस हजार रुपये महिलाओं के खाते में डाले  गए. उससे नीतीश कुमार को जबरदस्त फायदा हुआ। वैसे नीतीश कुमार के खिलाफ जनता में कोई वैसा आक्रोश जनता के बीच नही देखा गया जिससे ये कहा जा सके कि जनता नीतीश कुमार के शासन से कोई नाराज थी । नीतीश कुमार की सुशासन बाबू की छवि जनता में कायम थी। ये बात अलग थी कि उनके स्वास्थ्य को लेकर जनता के बीच असमंजस की स्थिति जरूर बनी हुई थी लेकिन इसके अलावा नीतीश कुमार के ऊपर कोई भी दाग नही लगा पिछले बीस वर्षों में। नीतीश कुमार के विकास के कामों से जनता बेहद संतुष्ट थी। वैसे पिछले पाँच वर्षों में थोड़ी विकास के रफ़्तार में कमी जरूर आई थी और कानून व्यवस्था भी थोड़ी लचर हुई थी लेकिन राजद के शासन काल की तुलना में फिर भी बेहतर थी। तेजस्वी यादव अपने पिता के शासन काल के दाग हटाने में विफल साबित हुए। बिहार की जनता लालू प्रसाद के 1990 से 2000  का  दौर फिर से नहीं देखना चाहती थी। तेजस्वी यादव ने जिस तरह की घोषणाएं की, उसको जनता संदेह की दृष्टि से देख रही थी। जनता को विश्वास दिलाना मुश्किल था कि हर घर में एक सरकारी नौकरी कैसे दी जा सकती है।

और तेजस्वी यादव का कांग्रेस के साथ गठबंधन करना सबसे बड़ा आत्मघाती कदम था। अगर राजद अपने बलबूते पे चुनाव लड़ती तो इससे बेहतर प्रदर्शन करती। कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के कारण भी एनडीए को फायदा हुआ है। कांग्रेस को 60 से ज्यादा सीटों पर लड़ने की क्या जरूरत थी। बिहार में कांग्रेस को 20 से 25 सीटों पर लड़ना चाहिये था। दरअसल कांग्रेस का कोर वोटर मुस्लिम और दलित वर्ग से आते हैं लेकिन बिहार में दलित वर्ग का वोट नीतीश कुमार को मिलता है। मुसलमानों का वोट भी कांग्रेस को एकमुश्त मिलना नामुमकिन था क्योंकि ओबैसी की ऐ आई एम आई एम भी मुसलमानों का वोट काटने के लिए तैयार बैठी थी। ओवैसी की पार्टी ने पांच सीटों पर सफलता दर्ज की वह काबिले तारीफ है। इतना तो तय है कि अगर जहाँ भी मुसलमानों का वोट साठ प्रतिशत से ज्यादा है, वहाँ मुसलमानों की ही जीत होगी। इस बार बिहार में पहली बार जाति से उठकर लोगों ने वोट दिया है। बिहार चुनाव के इतिहास में पहली बार लोगों ने केवल जाति देखकर वोट नही किया है बल्कि उससे अलग हटकर वोट किया है वरना जनसुराज पार्टी के उम्मीदवार रितेश पांडे अवश्य जीत जाते।

इस बार कास्ट बैरियर बिहार चुनाव में टूटा है और इसे स्वीकार किया जाना चाहिए। जनसुराज के बारे में मेरा आकलन सही साबित हुआ। जिस दिन प्रशांत किशोर ने चुनाव नही लड़ने का फैसला किया था उसी रोज ये लग गया था कि जनसुराज का यही हश्र होने वाला है। अगर किसी सेना का सेनापति ही मुकाबला करने से पीछे हट जाए तो बाकी सेना क्या खाक लड़ेगी। जनसुराज ने केवल माहौल बनाने का काम किया। प्रशांत किशोर ने पदयात्रा करके क्या हासिल किया, ये समझ से परे है। बिहार के सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करना आत्मघाती कदम था। पहला चुनाव था, इसलिये 30 से 40 अच्छे उम्मीदवारों का चयन करके केवल उनपर फोकस करना चाहिए था। प्रशांत किशोर दरअसल अरविंद केजरीवाल बनना चाहते थे। ध्यान रहे अरविंद केजरीवाल ने भी केवल दिल्ली जैसे छोटे विधानसभा में चुनाव लड़ा था, इसलिए उनको सफलता मिल पाई थी. अगर वे गुजरात या बिहार में लड़ते तो यही हाल होता। जब तक आपके पास संगठन नही होगा, आप चुनाव नही जीत सकते। और संगठन खड़ा करने के लिए अकूत धन चाहिए होता है। चुनाव सिर्फ पैसे की बदौलत ही लड़ा जाता है। आज के दौर में कोई आम आदमी ये सोचे कि वह मुखिया का चुनाव लड़ ले तो ये उसके लिए असंभव है क्योंकि बगैर धन के कुछ भी मुमकिन नही है।

 सबसे पहले तो प्रशांत किशोर को खुद चुनाव लड़ना चाहिए था। अगर दो- चार सीटें भी मिलती तो आगे के लिए कुछ जमीन तैयार होती। अभी की स्थिति में अगले चुनाव के लिए कैंडिडेट्स मिलना मुश्किल हो जाएगा। इस बार ओवैसी के चलते मुसलमानों का वोट राजद को नहीं मिला है और मिला भी है तो उसकी संख्या कम है। ओवैसी  मुसलमानों को ये समझाने में सफल रहा कि राजद मुसलमानों को केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करता है। मुकेश साहनी को उपमुख्यमंत्री घोषित किया गया तो ओवैसी ने इस मामले को भुनाने में देर नहीं की। उसका साफ कहना था कि दो प्रतिशत की  जनसंख्या  वाला मल्लाह ( निषाद ) उपमुख्यमंत्री बन सकता है तो 17 प्रतिशत वाला रहमान क्यूँ नहीं। इस बात से मुसलमानों में राजद के प्रति नाराजगी उत्पन्न हुई और इसका फायदा ओबैसी और जेडीयू को मिला।

दरअसल मुसलमानों का महिला वोट बीजेपी को भी मिला है। बहुत सी मुस्लिम महिलाओं ने चुपके से बीजेपी को वोट किया है भले उनकी संख्या थोड़ी बहुत ही क्यूँ ना हो। अंतिम दौर में जेडीयू को भी मुसलमानों का वोट मिला है। शुरूआती दौर में मुसलमान जेडीयू से इसलिए नाराज था क्योंकि जेडीयू ने वक्फ बिल के मामले में बीजेपी का  साथ दिया था लेकिन नीतीश कुमार के मुसलमानों के लिए किये गए काम ने  मुसलमानों को सोचने पर मजबूर कर दिया। और जंगल राज को कोई भी फिर से बिहार में नहीं आने देना चाहता था। एनडीए में सीटों का तालमेल बहुत सुंदर तरीके से हुआ. वहीं महागठबंधन में अंत तक असमंजस की स्थिति बनी रही जो महागठबंधन के लिए भारी पड़ा।

टीवी चैनलों पर डिबेट में भाग लेने वाले कांग्रेस और राजद के प्रवक्ताओं ने भी दोनों पार्टियों का बेड़ा गर्क कर दिया । इन प्रवक्ताओं का भी आजकल बहुत योगदान रहता है। इनका भी प्रभाव वोटरों पर पड़ता है। बीजेपी और जेडीयू और चिराग पासवान के दलों के प्रवक्ता बहुत सभ्य तरीके से अपनी बात रखते हैं। टिकटों का बंटवारा भी एनडीए ने बहुत बेहतर तरीके से किया था। जिनके हारने की संभावना  थी, उनका टिकट काट दिया था।

कुल मिलाकर बिहार में एक अच्छी सरकार की स्थापना हो रही है लेकिन नीतीश कुमार के लिए अगले  पाँच वर्ष चुनौती पूर्ण होने जा रहे हैं । उनको अपने पहले कार्यकाल की तरह काम करना होगा। लॉ एंड ऑर्डर सुधारना होगा और विकास की गति को तेज करना होगा।युवाओं के लिए रोजगार के अवसर प्रदान करना होगा । केंद्र के साथ मिलकर बड़े उद्योगों को बिहार लाना होगा। महिलाओं को दस हजार रुपये दिए गए हैं लेकिन उससे काम नही चलेगा. उनको दो लाख तक और मदद करनी होगी ताकि कुछ महिलाएं उनमें से अपने पैर पर खड़ी हो सकेंगी। ज्यादातर तो कुछ नही कर पाएंगी लेकिन उनको आर्थिक मदद मिल जाएगी। ये भी उनके लिए संजीवनी का काम करेगा। अब इस सरकार से जनता बिहार में तेजी से विकास देखने की उम्मीद कर रही है ।

नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी