डॉ अंकित कुमार सूर्यवंशी
हाल के वर्षों में, भारत में उच्च शिक्षा में शैक्षिक प्रगति के प्रमुख संकेतक के रूप में सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) बढ़ाने पर बहुत जोर दिया गया है। उच्च शिक्षा स्तर पर सकल नामांकन अनुपात या जीईआर को 18-23 आयु वर्ग की जनसंख्या से उच्च शिक्षा में नामांकित लोगों का अनुपात के रूप में परिभाषित किया जाता है| जो कि वास्तव में भारत में बढ़ रहा है। शिक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित ऑल इंडिया सर्वे ऑफ़ हायर एजुकेशन 2021-22 की रिपोर्ट अनुसार, उच्च शिक्षा में भारत के जीईआर में लगातार वृद्धि देखी गई है, जो 28.4 प्रतिशत के स्तर तक पहुंच गया है। इस सर्वे के प्रारम्भ वर्ष 2010-11 में यह आंकड़ा मात्र 19.4 प्रतिशत की दर पर था, यानि उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात की वृद्धि को अभूतपूर्व कहा जा सकता है| हालाँकि वर्तमान में भारत चीन, अमेरिका, या जापान जैसे देशों से बहुत पीछे जहाँ यह संकेतक क्रमश: 60.2, 84.8 एवं 62.1 प्रतिशत के स्तर पर है|
सतही तौर पर, यह देश भर में उच्च शिक्षा के अवसरों तक पहुंच के विस्तार का एक सकारात्मक संकेत प्रतीत होता है। इस संकेतक की अपनी खूबियाँ हैं, किन्तु केवल सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) पर निर्भर रहने से उच्च शिक्षा प्रणाली के भीतर गहरी समस्याओं और सीमाओं को स्पष्ट रूप से नहीं देखा जा सकता। भारत जैसे देश में यह समझाना आवश्यक है कि क्यों केवल जीईआर पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना उच्च शिक्षा के सामने आने वाली चुनौतियों और बारीकियों की व्यापक समझ प्रदान नहीं कर सकता।
इसे इस तरह समझा जा सकता है कि पढने वालों की संख्या तो बढ़ रही है, किन्तु शिक्षा की गुणवत्ता एक महत्वपूर्ण चिंता बनी हुई है। भारत में कई उच्च शिक्षा संस्थान पुराने पाठ्यक्रम, अपर्याप्त बुनियादी ढांचे, योग्य शिक्षकों की कमी, सीमित संसाधन और अनुसंधान अवसरों से संबंधित चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। इन गुणवत्ता संबंधी मुद्दों को संबोधित किए बिना केवल नामांकन संख्या बढ़ाना उच्च शिक्षा के मूल्य और प्रभाव को कमजोर करता है।
उच्च शिक्षा तक पहुंच में सुधार के बावजूद, विभिन्न जनसांख्यिकीय समूहों और क्षेत्रों में उच्च शिक्षा भागीदारी दरों में असमानताएं बनी हुई हैं। महिलाओं, ग्रामीण आबादी और आर्थिक रूप से वंचित समूहों सहित हाशिए पर रहने वाले समुदायों को उच्च शिक्षा तक पहुंचने और उसे पूरा करने में बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
उच्च शिक्षा और व्यवसाय और समाज की मांगों के बीच तालमेल एक और महत्वपूर्ण कारक है जिसे जीईआर अक्सर नजरअंदाज कर देता है। तमाम चर्चाओं के बावजूद भी भारतीय विद्यार्थीं में रोज़गार परक कौशल का विकास एक दृढ चुनौती बना हुआ है| भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली को व्यावहारिक कौशल पर सैद्धांतिक ज्ञान पर जोर देने के लिए आलोचना का सामना करना पड़ता है, जिससे स्नातक रोजगार योग्यता और नौकरी बाजार में प्रासंगिकता के बारे में चिंताएं पैदा होती हैं। जीईआर पर अत्यधिक केन्द्रीयकरण छात्रों को कार्यबल के लिए तैयार करने और नवाचार और उद्यमिता को बढ़ावा देने में उच्च शिक्षा की प्रभावशीलता को ध्यान में रखने में विफल रहता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की ओर एक सकारात्मक कदम है किन्तु अधिकतर ध्यान केवल उच्च शिक्षा के प्रशासनिक बदलावों पर है| यह कौशल विकास एवं शिक्षा के डिजीटाईजेशन पर ध्यान केन्द्रित करने के प्रावधानों की बात करती है| किन्तु इसे व्यवहार में लाने हेतु पर्याप्त आधारभूत संरचना का विकास, योग्य शिक्षकों नियुक्ति एवं उनकी ट्रेनिंग की एक बड़ी चनौती है|
जीईआर नामांकन दर को मापता है, किन्तु ड्रॉपआउट दर या छात्रों की उच्च शिक्षा की डिग्री पूरी करने की दृढ़ता को शामिल नहीं करता है। यदि राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन संस्थान की रिपोर्ट देखी जाए तो भारत में उच्च शिक्षा की ड्रॉपआउट दर 25 प्रतिशत के पास है, यानि कॉलेजों में दाखिला लेने वाले हर 4 विद्यार्थियों में से 1 अपनी डिग्री पूर्ण नहीं कर पाते| उच्च शिक्षा संस्थानों में पढाई छोड़ने की दर एक बड़ी चुनौती बनी हुई है, जिसमें वित्तीय बाधाएँ, शैक्षणिक कठिनाइयाँ और सहायता सेवाओं की कमी जैसे विभिन्न कारक छात्रों की पढ़ाई छोड़ने का कारण बन रहे हैं। इन मुद्दों को समझने और संबोधित करने के लिए जीईआर से परे एक अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
निष्कर्षत: जबकि सकल नामांकन अनुपात उच्च शिक्षा पहुंच के एक महत्वपूर्ण संकेतक के रूप में कार्य करता है, इसे अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। भारत में उच्च शिक्षा की प्रभावशीलता और प्रभाव को सही मायने में मापने के लिए, नीति निर्माताओं, शिक्षकों और हितधारकों को संकेतकों के व्यापक सेट पर विचार करना चाहिए जिसमें गुणवत्ता, समानता, प्रासंगिकता और छात्र परिणाम शामिल हों। उच्च शिक्षा के मूल्यांकन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाकर, भारत एक अधिक समावेशी, न्यायसंगत और उत्तरदायी उच्च शिक्षा प्रणाली के निर्माण की दिशा में प्रयास कर सकता है जो इसकी आबादी की विविध आवश्यकताओं को पूरा करती है।