हांगकांग में हारा चीन

दुलीचंद कालीरमन

साम्यवादी सोवियत संघ के 1991 में विभाजित होने के बाद विश्व में नए शक्ति समीकरण बनने लगे थे. कुछ वर्षों तक तो लगा मानो अमेरिका का विश्व में एकछत्र वर्चस्व  स्थापित हो गया था. चीन साम्यवादी विचारधारा केंद्रित कम्युनिस्ट देश था जिसके बारे में विश्व में केवल कुछ ही जानकारियां छन-छन कर बाहर आती थी. लेकिन उसने आने वाले वक्त को पहचान कर अपनी अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश के लिए खोल दिया था. परिणाम स्वरूप वहां सस्ती मजदूरी, विशाल जनसंख्या के बाजार से प्रेरित होकर यूरोपीय उद्योगपतियों ने जमकर निवेश किया, जिसके परिणाम स्वरूप लगभग एक दशक तक तीन की विकास दर 10% से अधिक बनी रही. चीन आर्थिक रूप से मजबूत होता चला गया तथा साथ ही साथ वहां की जनता की लोकतंत्र की मांग को कम्युनिस्ट शासन द्वारा कुचला जाता रहा. चीनअपने आप को  आर्थिक व सामरिक रूप से मजबूत करता रहा.

पिछले लगभग एक दशक से  चीन ने विश्व के शक्ति संतुलन में वह जगह भरने का प्रयास किया जो कभी शीत युद्ध को दिनों में सोवियत संघ का स्थान था.  सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस वह स्थान लेना चाहता था.  राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन  में  यह  इच्छाशक्ति भी थी.  लेकिन उनकी आर्थिक मजबूरियों ने  उन्हें वह पद नहीं मिल सका. जिस पर बाद में  चीन विराजमान हो गया.  जो “वन बेल्ट- वन रोड” के माध्यम से विश्व व्यापार में अपनी जगह बनाने को अग्रसर था.

डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद अमेरिकी सरंक्षणवादी नीतियों से चीन को चुनौती मिलनी शुरू हुई.  विश्व व्यापार युद्ध की आंच अमेरिका और चीन के साथ-साथ विश्व के अन्य देशों को भी लगने लगी.  क्योंकि दोनों आर्थिक महाशक्ति अपने यहां एक दूसरे के आयतों पर भारी भरकम ड्यूटी लगा रहे थे.

पिछले दिनों  चीन  को अपने ही घर में चुनौती मिलनी शुरू हो गई.  हांगकांग जो कभी चीन का हिस्सा होता था तथा बाद के दिनों में लगभग 99 वर्षों तक ब्रिटेन का उस पर अधिकार रहा.  हांगकांग को 1987 में कुछ शर्तों के साथ चीन को सौंप दिया गया.  ब्रिटिश शासन के दौरान हांगकांग में प्रशासनिक व्यवस्था एक अलग प्रकार की थी और चीन में कम्युनिस्ट्स प्रशासन की व्यवस्था अलग प्रकार की थी.  हांगकांग के प्रशासनिक हस्तांतरण के दौरान चीन और ब्रिटेन में संधि में यह शर्त भी रखी गई थी  कि  चीन अगले 50 सालों तक हांगकांग के प्रशासन में कोई परिवर्तन नहीं करेगा तथा चीन ने भी “एक देश-दो  व्यवस्था”  के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था.  हांगकांग एक व्यापारिक महानगर है.  वहां पर विश्व के अनेक देशों के नागरिकों नेअपना व्यापार स्थापित किया है इसलिए उन्हें डर लगा रहता है कि कहीं चीन द्वारा ऐसी नीतियां उनके ऊपर में थोप दी जाए जिस प्रकार की अमानवीयऔर  अलोकतांत्रिक   कानून  चीन की मुख्य भूमि पर लागू है.

पिछले 3 महीनों से हांगकांग अशांत है. जिसका कारण यह है कि हांगकांग प्रशासन द्वारा एक प्रत्यर्पण बिल पेश किया गया है. जिसमें यह प्रावधान है कि कुछ अपराधों में अपराधियों को चीन की मुख्य भूमि पर प्रत्यर्पण  कर दिया जाएगा तथा उस पर मुकदमे की कार्रवाई और सजा का प्रावधान भी चीन में ही होगा.  हांगकांग का आम नागरिक इस प्रत्यर्पण कानून की मंशा को समझ चुका था इसलिए वह आक्रोशित होकर हांगकांग की सड़कों पर चीन के खिलाफ प्रदर्शनों में शामिल हो गया.

इन प्रदर्शनों को चीन ने अपनी सैन्य ताकत का डर दिखाकर शांत करने का प्रयास किया.  हांगकांग की सीमा से सटे चीनी शहर में सैन्य बलों द्वारा एक “दंगा नियंत्रण युद्ध अभ्यास”  किया गया जो मात्र हांगकांग के प्रदर्शनकारियों में डर पैदा करने के लिए था.  चीन के सरकारी अखबार में इस प्रकार की लेख भी छपे कि चीन की सरकार हांगकांग में दंगों से निपटने के लिए   शियानमेन चौक जैसी घटना को दोहरा सकती है यह जगजाहिर है कि 1989 में चीनी सेना ने लोकतंत्र की मांग कर रहे छात्रों  को मिलिट्री टैंकों से रौंद दिया था.  हांगकांग के दंगों को देखते हुए हांगकांग के प्रशासन ने इस बिल को संसद में पास करवाने का निर्णय वापस ले लिया. परिणाम स्वरूप चीन की सरकार को भी झुकना पड़ा.  प्रत्यर्पण संबंधी बिल के विरोध के प्रदर्शनों को चीन की सरकार अमेरिका और यूरोपीय देशों का हाथ होने का आरोप लगा रही है.

चीन भारत के विरोध में अनुच्छेद 370 के मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ खड़ा हो गया था और संयुक्त राष्ट्र संघ में मामले को ले जाने का प्रयास किया था. लेकिन अब चीन के तीन को उसके ही घर हांगकांग से चुनौती मिल रही है.  इसी के साथ साथ ताइवान जैसे देशों से भी हांगकांग की जनता को समर्थन मिला क्योंकि चीन  उन पर भी  अपनी कु दृष्टि रखता है.

दक्षिण चीन सागर  के साथ लगते अन्य देश भी जिनको चीन आंखें दिखाता रहता है.  इस घटना से उन्हें भी नैतिक बल मिलेगा.  क्योंकि इस बात का आभास उन्हें भी हो गया है कि चीन को चुनौती घर में ही मिल सकती है.  सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वहां की जनता  की आवाज अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचे. चीन  मैं वैश्विक मंदी, गिरती विकास दर, बढ़ते कर्ज और दुनिया भर में  फैली चीनी परियोजना के वांछित परिणाम न मिलने के कारण चीन दबाव में आना शुरू हो गया है.

हांगकांग में प्रदर्शनकारियों का चेहरा बन चुके 22 वर्षीय  जोशुआ वांग को हांगकांग के प्रशासन ने गिरफ्तार कर लिया था.  जिसे बाद में दबाव में आकर रिहा करना पड़ा. रिहा होने के बाद जोशुआ वांग ने  जर्मनी की यात्रा के दौरान वहां के विदेश मंत्री से मुलाकात की जिससे चीनी प्रशासन खफा हो गया. जोशुआ वांग के अनुसार हांगकांग में अब प्रदर्शन प्रत्यर्पण कानून से भी आगे अधिक स्वतंत्रता की मांग को लेकर चल रहे हैं.  ऐसे में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग में कश्मीर का मुद्दा उठाने की पाकिस्तानी चाल का चीन द्वारा समर्थन किया जाना समझ से परे है. क्योंकि खुद मानव अधिकार को लेकर चीन का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है.

   चीन भारत और पाकिस्तान के बीच के संबंधों में फंस चुका है. वह पाकिस्तान का साथ इस मजबूरी में दे रहा है क्योंकि “चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा” पाक अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरता है जिस पर चीन के अरबों डालर खर्च हो चुके हैं.  वहीं दूसरी तरफ भारत के साथ चीनी व्यापार भी 70 अरब डॉलर के आस पास पहुंच चुका है. भारत सरकार प्रतिक्रिया स्वरूप चीन से आयातो को हतोत्साहित करने के लिए कस्टम ड्यूटी बढ़ा सकती है. जिससे विश्व व्यापार युद्ध की मार झेल रहे और मंदी की चपेट में आ चुके चीन के लिए आगे की राह मुश्किल होगी. यह बात चीन को जितनी जल्दी समझ में आ जाए उतना ही बेहतर होगा. 1962 के भारत और नरेंद्र मोदी के आज के भारत में जमीन आसमान का अंतर है. भारतीय विदेश नीति जिस गति से सफलता के पायदान चढ़ रही है लगता है कि चीन को उसकी औकात में रखा जा सकता है. 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,026 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress