हास्य-व्यंग्य/दोस्त है तो दुश्मन की जरूरत क्या है

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-पंडित सुरेश नीरव

कल सुबह-सुबह विद्रोहीजी आ धमके। बहुत गुस्से में थे। वह किसी व्यक्ति विशेष से गुस्सा नहीं थे। पूरे देश से वे गुस्सा थे। इतना अखिल भारतीय गुस्सा देखना तो दूर मैंने कभी सुना तक नहीं था। ये तो गनीमत है कि मेरे शाक-एब्जोर्बर्स इतने हाईक्वालिटी के हैं कि मैं उनके इस हाईवोल्टेज गुस्से के झटकों को भी झेल गया। कोई और होता तो विद्रोहीजी उसे ठोंक-पीटकर ही दम लेते। चूंकि उनका गुस्सा पूरे देश से था और मैं इस महान देश का मूल निवासी हूं, इसलिए देश की गुस्सा को देशवासियों पर उतारने का उनका जन्म सिद्ध संवैधानिक अधिकार है। उनके हाथ में एक निर्दोष अखबार था,उसे सामने रखी टेबल पर, नृशंसतापूर्वक पछीटते हुए,नथुने फुलाकर एक करारे डायलाग का झन्नाटेदार प्रहार उन्होंने मुझ पर किया और बोले- भाईसाहब,जब तक इस देश से भाई- भतीजावाद खत्म नहीं होगा,इस देश का कुछ नहीं हो सकता। यहां योग्यता से ज्यादा रिश्तों को तरजीह दी जाती है। ऐसा दुनिया के किसी देश में नहीं होता। मैंने कहा- रिश्ते बनाने की कला भारतीय डीएनए की खासियत है। रिश्तों के रुजर्वेशन फार्म तो उसकी सांसों से लिपटे ही रहते हैं। हर भारतीय काल-समय और परिवेश के मुताबिक सबसे पहले रिश्ता बनाता है। अब देखिए ना आपने भी तो सबसे पहले मुझे भाईसाहब के रिश्ते में बुक किया फिर बात आगे बढ़ाई। ये तो आपकी विनम्रता है कि जो आपने मुझे सिर्फ भाईसाहब ही बनाया,ज्यादा उत्साही लोग तो मौका पड़ने पर गधे से भी बाप का रिश्ता बना लेते हैं। है किसी और देश के नागरिक में है इतनी कुव्वत जो गधे को अपना बाप बना सके। गधे से फादर का रिश्ता हरेक माई का लाल थोड़े ही बना सकता है। यह हुनर सिर्फ इंडियन के ही पास है। क्योंकि बहुमूल्य ग्रंथों में लिखा है कि रिश्तम किम दरिद्रम अर्थात रिश्ते बनाने में में काहे की दरिद्रता। रिश्तेबनाऊ क्षमता में हमीं संसार की सुपर पावर हैं। अरे गधे से रिश्तेदारी बनाने का नसीब कितनों को नसीब होता है। यह सिफत तो सिर्फ हमारे इंडिया को ही नसीब है। रिश्तों की इतनी उर्वरा शस्यश्यामला भूमि सिर्फ अपनी भारत माता के ही पास है। देश हमारी मां है। नदियां हमारी मां हैं। भाषा हमारी मां है, गौ भी हमारी माता है। मां कसम एक अदद आदमी की इत्ती सारी माताएं सारी दुनिया में इंपासिबल. मगर इंडिया में पासिबल। कई देश तो इसी कारण हमारे दुश्मन हैं। अब देखिए ना देता है रब सड़ते हैं सब। दिलजले सोचते हैं कि भारत को रिश्ते बनाने में महारत हासिल है तो चलो दोस्ती का नहीं तो कम-से-कम उससे दुश्मनी का ही रिश्ता बना लिया जाए। सम थिंग इज़ बैटर देन नथिंग। वैसे दुश्मनी करने के लिए भी रिश्ता बहुत जरूरी होता है। क्योंकि रिश्ता अगर हो तो दुश्मनी आसान हो जाती है। और दुश्मनी करने में मज़ा भी आता है। जितना गहरा रिश्ता उतनी गहरी दुश्मनी। वे खुशनसीब होते हैं,जिन्हें ये जरूरी रिश्ता पैदाइशी मिल जाता है। इससे एक फायदा तो यह होता है कि रिश्ते बनाने के अनुत्पादक श्रम से वह आदमी बच जाता है। और फिर वो पूरे मन से शत्रुता की साधना को सिद्ध करने में लग जाता है। हमारे कृष्णजी कितने लकी थे। पैदा होते ही दुश्मनी की जमीन खानदानी जायदाद की तरह मिल गई। पैदा हुए भी तो दुश्मन की जमीन पर। और सबसे बढ़िया बात ये कि दुश्मनी हुई भी तो अपने खासम खास मामाजी से। इसे कहते हैं सोने पे सोहागा। दुश्मनी और रिश्तेदारी दोनों प्रगाढ़। ऐसा सौभाग्य मिले तो तो कोई भी भगवान हो जाता है वरना दुश्मन की कृपा से भगवान को प्यारा हो जाता है। दोनों हाथों में लड्डू होते हैं,उसके। सारा खेल रिश्तों का ही है। इसलिए समाज सुधारक दीवारों पर लिख देते हैं-रिश्ते-ही-रिश्ते। दीवारों पर रिश्ते,रिश्तों में दीवारें यही तो हमारी विशेषता है। बस एक बार मिल तो लें। ये सारे रिश्ते दुश्मनी करने के रहस्यवादी आमंत्रण हैं। आओ मिल-जुलकर दुश्मनी की भूमिका रचें। रिश्तों की जमीन पर। जमीन की बात चली है तो जमीन भी काफी उपयोगी और लाभदायक चीज होती है,दुश्मनी करने के लिए। कोई आपकी जमीन दबा ले तो पांव तले आपकी जमीन खिसक जाएगी। जमीन भले ही खिसक जाए मगर दुश्मनी नहीं खिसकती। हजारों लोग हर साल जमीन के लिए जूझते हुए शहीद हो जाते हैं। क्योंकि धरती से भी हमारा एक रिश्ता होता है. हम इसे अपनी मां कहते हैं। तो ये तय हुआ कि दुश्मनी के पाठ्यक्रम में सगे-संबधी खास और कंपलसरी सबजेक्ट होते है। घरती,गाय, भैंस, और कुत्ते ऐच्छिक विषय होते हैं। अगर मेन फेकल्टी में प्रवेश मिलनें में कायाबी न मिले तो कतई निराश न हों। ऐच्छिक विषयों में भी आप अपनी प्रतिभा दिखा सकते हैं। जैसे जो आईएएस या आईपीएस नहीं हो पाते वे पीसीएस होकर भी खेल खेल जाते हैं। दुश्मनी प्रतिभा को और तराश देती है। कई लोग कुत्ते के लिए इतनी निष्ठा से दुश्मनी निभा लेते हैं जितनी कि तमाम लोग अपने मम्मी-डैडी के लिए भी नहीं निभाते। ये सब अभ्यास की बाते हैं। इसलिए जरूरी है कि काम पूरी मेहनत से किया जाए। ईश्वर भी उसी की मदद करता है, जो स्वयं कोशिश करता है। एक बात और कि अगर आप प्रयोगवादी हैं तो दुश्मनी में भी आप अपने परंपरावादी या प्रगतिशील होने की मिसाल पेश कर सकते हैं। हमारे एक प्रगतिशील मित्र ने-मेरी भैंस को डंडा क्यों मारा-जैसा अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा उछालते हुए,पूरे पराक्रम से लबलबायमान होकर सामनेवाले की कपाल क्रिया कर दी। ये है परंपरा के विरूद्ध, एक प्रगतिशील दृष्टि। यहां व्यक्ति की कपाल क्रिया पहली हुई और,वो मरा बाद में। जबकि औसत लोगों पहले मरते हैं और उनकी कपालक्रिया बाद में उनके रिश्तेदारों के सौजन्य से होती है। खास लड़का हो तो बात ही क्या है। ऐसे पिता भाग्यशाली होते हैं जिनकी कपाल क्रिया करने के लिए किसी गैर को मेहनत नहीं करनी पड़ती। ऐसा करने से पिता को मोक्ष और पुत्र को हार्दिक संतोष मिलता है। लेकिन हमें ये सड़ी-गली परंपराएं ऐसे ही तोड़नी होंगी,जैसे कि हमारे तरक्कीपसंद भाई ने तोड़ीं। तभी दुश्मनी के साहित्य में उत्तरआधुनिकतावाद पनप सकता है। आखिर कब तक हम लकीर के फकीर बने रहेंगे। वक्त बदल रहा है। अब हमें लकीर और फकीर दोंनो को ही मिटाना होगा।

समझे विद्रोहीजी। खाली भुनभुनाने से कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं होगा। वैसे देश में परिवर्तन होगा जरूर क्योंकि लोग भले ही मर रहे हों मगर उनकी संवेदनाएं फिर भी नहीं मर रही हैं। लोग पूरी भावुकता के साथ अपने-अपने रिश्तेदारों से जान हथेली पर लेकर जूझ रहे हैं। चैरिटी बिगिंस फ्राम होम। हमें परिवर्तन की बयार घर से ही लानी होगी। दुश्मनी की चैरिटी घर से शुरू कर के। पांडवों ने भी दुश्मनी का उत्सव अपने भाईयों के साथ मिलकर ही तो सेलीब्रेट किया था। महाराणा प्रताप और भगवान गौतम बुद्ध का भी दुश्मनी का सांस्कृतिक कार्यक्रम अपने खास और निजी भाइयों के बीच ही पला-पुसा। जितना गहरा रिश्ता,उतनी बड़ी दुश्मनी। भाइयों की कृपा से दोनों महान बन गए.। जब भाइयों ने भाइयों को महान बनाने के लिए पूरी मेहनत से दुश्मनी की तो ममताभरी मां कैसे पीछे रह जातीं। मां का दर्जा तो भाइयों से भी बड़ा होता है। कैकई-जैसी करुणामयी माता ने अपने प्यारे श्रीराम को वनवास का फरमान जारी करके राम को महान बनाने का प्रोजेक्ट अपने हाथ में लिया था। और पुत्र से स्वेच्छा से दुश्मनी करके दुश्मनी के इतिहास में मां को गौरवशाली स्थान दिलाकर खुद महान हो गईं। सोचिए तो अगर राम वनवास नहीं जाते तो क्या वो भगवान बन पाते। एक दुश्मनी ने मां-बेटे दोंनों को महान बना दिया। वन-गमन की दुश्मनी की आग और मां के वातसल्य के घी में तपकर ही श्रीराम कुंदन की तरह निखरे। मां-बेटे के इन भावुक रिश्तों के साइड इफेक्ट स्वाइन फ्ल्यू की तरह लंका तक जा पहुंचे और वहां भी इस दिव्य प्रेऱणा से रावण और विभीषण ने भी दुश्मनी-दुश्मनी के रिश्ते का खेल खेलना शुरू कर दिया। तो जनाब रिश्ते और दुश्मनी सिर्फ लोकल स्तर पर ही रंग नहीं जमाते हैं बल्कि इंटरनेशनल लेबल पर भी प्रभाव दिखाते हैं। खूब बजेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो। दुश्मनी में भाई की महत्वपूर्ण भूमिका का सम्मान करते हुए लोग अब अपने दुश्मनों को ही भाई कहने लगे हैं-दाउद भाई, हिंदी-चीनी भाई-भाई और हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई से लेकर दाउद भाई तक सभी इसी गौरवमयी परंपरा को निभा रहे हैं। जो भाई तक से दुश्मनी नहीं निभा पाए ,वे बाहर वालों से क्या खाकर दुश्मनी निभाते। रखे रह गए अपने घर में ही। कुछ लोग इन विषम स्थितियों में भी निराश नहीं होते। वे रास्ता निकाल लेते हैं। चलो, भाई नहीं सही। बीवी से ही झगड़ा करें। तलाकबाजी शुरू कर देते हैं। आखिर पत्नी का रिश्ता भी तो खास होता है। दुश्मनी की जा सकती है। वहीं जुट जाते हैं,बेचारे। जिनकी बीवी इस झगड़े में सहयोग नहीं करती तो ऐसे दबंग लोग अकबर बनकर अपने बेटे को ही शाहजादा सलीम समझकर, उससे पंगा लेने लगते हैं। रिश्ते रहते हैं तो लड़ाई में भी मूल्य बने रहते हैं। कौरव-पांडव दिल खोलकर लड़ते थे। मगर शाम को शिविर में चक्कर लगाकर भाइयों के घाव पर मरहम भी लगा आते थे। दुश्मनी और प्रेम का ऐसा टू-इन-वन प्रोग्राम भाइयों में ही संभव होता है। लड़ रहे हैं तो क्या रिश्ते भूल जाएंगे। और रिश्ते नहीं होंगे तो दुश्मनी कैसे निभाएंगे। रिश्ते बहुत जरूरी हैं,दुश्मनी के लिए। वैसे हम भारतीय किसी अजनबी से भी लड़ते हैं तो उससे भी मां-बहन से घनिष्ठ रिश्ते बनाने का वीररसी मुद्रा में प्रस्ताव पेश करते हैं,जिसे लोकभाषा में लोग गाली कहते हैं। ये गाली दो अजनबियों के बीच दुश्मनी के सेतु का काम करती हैं। इन गालियों के हाई-वे पर दुश्मनी की गड़्डी फौरन दौड़ने लगती है। जरा सोचिए तो कि अगर गालियां नहीं होती तो कितने सारे लोग दुश्मनी का आनंद लेने से वंचित रह जाते। दुश्मनी का रिश्ता कैसे बनाते और कैसे निभाते। गालियों के अनकहे रिश्तों में ही दुश्मनी के प्राण बसते हैं। कितने प्राण इन अमूल्य गालियों के लिए न जाने कहां-कहां तरसते हैं। मैं भी एक दुश्मन ढूंढ़ रहा हूं जो दोस्तों से भी प्यारा हो। क्योंकि एक अच्छा दोस्त मिल जाए तो सेंकड़ों दुश्मनों की जरूरत अपने आप खत्म हो जाती है। ठीक कह रहा हूं ना दोस्त। मेरा

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