धर्म-अध्यात्म

महिषासुर उत्सव : मूर्खताओं से भरे लोगों की पहल

व्यालोक पाठक  

downloadफायलिन नाम का चक्रवात अपनी तबाही और बर्बादी के असर छोड़कर जा चुका है। इसी बीच आंधी और पानी के दरम्यान ही दुर्गापूजा का शोर भी धीमा पड़ चुका है, मूर्तियों का विसर्जन हो गया है और ओडीशा-आंध्र-बिहार में तबाही का अंदाजा लगाया जाने लगा है। मन अजीब सा ‘मेलन्कॉलिक’ हो गया है और लगता है कि इस दुनिया में लिखे और उत्पादित किए जा रहे टनों कूड़े में एक सौ ग्राम का कूड़ा मुझे भी डाल देना चाहिए….एक युग (12वर्ष) से अधिक का समय बीत चुका है, आखिर जेएनयू को अलविदा कहे….तो फिर एक आखिरी बार माज़ी को पूरी तरह शिद्दत से याद कर उसे दफ्न कर देने का हौसला क्यों न कर लिया जाए?

देश में दुर्गापूजा के साथ ही अब जेएनयू में महिषासुर-उत्सव भी मनाया जाता है। वहीं, गोमांस खाने का आंदोलन भी हुआ था-ओस्मानिया विश्वविद्यालय की तर्ज पर (अगर मुझे सही याद है, तो)….मुझे पता नहीं, भाई लोग सफल हो पाए या नहीं, अब भी वैसा कोई आंदोलन चलता है या नहीं। लेकिन इतना शोर क्यों बरपा, यह मेरी समझ के बाहर है? इतना बस याद है कि मुझ खांटी दक्षिणपंथी के कई वामपंथी मित्र (आइसा वाले, एसएफआइ के नहीं) थे, जो भैंसे और सूअर का मांस भी खाते-खिलाते थे औऱ वह कोई मसला ही नहीं था, हमारे बीच। हां, मांस पकाने की कला आपको जरूर आनी चाहिए थी। हमारे बीच एक कहावत भी चलती थी कि ब्राह्मण का मांस पकाना वैसा ही है, जैसे कोई मियांजी तरकारी बनाने पर आमादा हो जाए। हां, अगर आपका शोर राजनीतिक तौर पर प्रेरित है, तो फिर कुछ नहीं कहना।

ऐसा ही कुछ महिषासुर- प्रेमियों के साथ भी है। तमाम प्रगतिशीलों, अनार्यो-असुरों, दस्युओं-किरातों, मूलनिवासी-आदिवासी, पिछड़ों आदि-इत्यादियों का झंडा उठाए, तमाम विद्वानों से मेरा केवल एक प्रश्न है? भाई लोग, ये बताओ कि दुर्गा-सप्तशती मिथक है या इतिहास? और, यदि वह इतिहास है, तो महिषासुर के साथ ही दुर्गा भी सत्य हैं औऱ यदि दुर्गा सत्य हैं तो राम-रावण, लक्ष्मण-सीता और रामसेतु भी सत्य हैं। सारे पुराण भी इतिहास हैं और सारा इतिहास यदि सत्य है, तो फिर राम-मंदिर में आपको क्या आपत्ति है? उसी तरह, इस पर बवाल काटनेवाले दूसरे पक्ष (बजरंगी, संघी आदि-अनादि) से भी यही प्रश्न है कि आप अपनी सुविधा के हिसाब से इतिहास का पाठ कब तक करते रहेंगे? फिर भी राजनीति के लिए अगर यह सब हो रहा है, तो कोई बात नहीं, लेकिन राजनीति ढंग से तो कीजिए महाराज! ठीक उसी तरह, जैसा परिषद (एबीवीपी) ने 96-2000 तक किया था, उसकी फसल काटी थी और उसी का परिणाम आपको आज जेएनयू में हो रही दुर्गापूजा में दिखता है।

जेएनयू की दुर्गापूजा एक सुविचारित राजनीतिक योजना थी, कोई धार्मिक उफान या तांडव नहीं था, अगर आप ऐसा समझते या करते हैं। आप जरा सोचिए, दरभंगा से आया एक सत्रह वर्षीय किशोर जब जेएनयू के खुले आकाश तले विचरता होगा, तो उसके मन में कितनी तरह की उथल-पुथल होती होगी? जब वह दिल्ली स्टेशन पर श्रमजीवी एक्सप्रेस से उतरा होगा और 615 नंबर की बस पकड़ कर जेएनयू के पेरियार हॉस्टल उतरा होगा, तो महानगर की विशालता, जेएनयू की विराटता और खुलेपन ने उस पर क्या असल डाला होगा? बारहवीं तक खांटी हिंदी और सेंट बोरिस (जहां बोरा-चट्टी लेकर पढ़ने जाते हैं) स्कूल के प्रोडक्ट उस बालक पर डेढ़ घंटे अंग्रेजी में मूसलाधार लेक्चर की बारिश हुई होगी, तो उसका क्या हुआ होगा? गहन-घोर सामंती समाज से निकल कर आया वह किशोर जब अपने ‘भैया’ की बिस्तर में उनकी मित्र को देखता होगा, और भैया उसे ‘भाभी’ से मिलवाएंगे, तो उसका क्या हाल होगा? इसी तरह, जब उसने देखा होगा कि ईद और इफ्तार के लिए उसके मेस-बिल में 10 या 20 रुपए तो जोड़े जा रहे हैं, लेकिन दुर्गापूजा के लिए सोचना भी अपराध माना जा रहा है, तो उसने क्या योजना बनायी होगी? जब इफ्तार के बाद नमाज के लिए पूरे मेस को मस्जिद और ईदगाह बना दिया जाना तो ठीक माना जाता होगा, लेकिन नवमी की ‘हवन’ को लेकर वितंडा होगा, तो उस किशोर ने क्या खिचड़ी पकायी होगी?

वह बालक सत्रह का था, लेकिन बहुत ही शातिर था। वह अधार्मिक था, लेकिन धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल को लेकर बेहद सजग। आखिर, उसने देखा था कि 1990 के आखिरी दशक में किस तरह ईंटों की पूजा हुई थी औऱ औरतों ने उन्हें ढोनेवाले रथों पर अपने गहने-जेवर निछावर कर दिए थे। वह ‘मौलाना मुलायम’ और ‘लालू प्रसाद’ की राजनीति का भी गवाह था। वह 1990-91 के उन्माद का भी चश्मदीद था और संघी-बजरंगी शहीद ‘कोठारी बंधुओं’ (जिनकी हत्या पुलिस की गोली से रामंदिर आंदोलन के दौरान हुई और जिनका इस्तेमाल भाजपाई हाल-फिलहाल तक करते रहे हैं) को भी जानता था। सभी पक्षों को जानते-बूझते उसने दुर्गापूजा के समय ‘उपवास’ शुरू किया। वह परिषद में तब ऑफिस-सेक्रेटरी का ‘दायित्व’ संभाल चुका था। पेरियार का उसका कमरा छोटा मंदिर बन गया और रोज शाम को होनेवाली ‘आरती’ में प्रथमा को जहां पांच लोग शामिल थे, अष्टमी तक 100-125 लोग शामिल होने लगे। आरती की ही थाल में इतना पैसा आने लगा कि प्रसाद की भी व्यवस्था होने लगी और हर-हर महादेव के बुलंद नारे से उसके कमरे के ऊपर रहनेवाले गैर-हिंदुओं को दिक्कत भी होने लगी। ध्रुवीकरण की शुरुआत हो चुकी थी। सप्तमी-अष्टमी तक उसे समझ में आ चुका था कि इस प्रहसन को एक लॉजिकल-एंड देना जरूरी है, वरना लोगों की ऊर्जा व्यर्थ चली जाएगी। आखिर, बिना हवन के उपवास भी तो नहीं तोड़ा जाता है न।

1999 में पेरियार हॉस्टल के कमरा नंबर 50 से शुरू हुई यह यात्रा आखिरकार भव्य दुर्गापूजा के प्रतिष्ठापन में 2001 ईस्वी में कावेरी छात्रावास के सामने होती है, लेकिन इसके लिए कथा में कई पेंच भी आते हैं। वह किशोर हवन करने की घोषणा करता है और पेरियार के वार्डन कांति वाजपेयी की पेट में मरोड़ होने लगता है। बाकी के तीन वार्डन भी उनके साथ हो जाते हैं, फिर चलता है, नेगोशिएशन और काउंटर-निगोशिएशन का दौर। कांति वाजपेयी साहब अपना सारा ज्ञान उड़ेल कर ‘पूजा’ (Worship) और ‘उत्सव’ (festival) का अंतर बताते हैं, धार्मिक और सामाजिक कृत्य की व्याख्या करते हैं, होली और नमाज की व्याख्या करते हैं, कर्मकांड और त्योहार पर ज्ञान देते हैं। वह किशोर भी कुशल संत की तरह मौन धारण कर लेता है, अपना प्रवक्ता परिसर के खासे लोकप्रिय छात्र अशोक शर्मा को नियुक्त कर देता है (न भी करता, तो वह स्वयंभू तौर पर इसका जिम्मा ले ही चुके थे..हा हा हा)…इस बीच परिसर में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पूरी तरह हो चुका रहता है, वार्डनों के सामने कई बार उस छात्र की पेशी हो चुकी होती है….उसके साथ के अमित आनंद, रमेश, उत्पल, अनिल सिंह, अशोक शर्मा इत्यादि (और कई ऐसे, जिनका नाम छूट गया है) दसियों छात्र मरने-मारने पर आमादा थे। वह छात्र साक्षी भाव से तमाशा देख रहा था। इस बीच अशोक शर्मा नहाते-नहाते बाथरूम से सफेद टॉवेल में हॉस्टल के प्रांगण में आकर गर्जन-तर्जन करते हैं, सफेद तौलिए और लंबे बाल में वह संजय दत्त सरीखे दिखते हैं, वार्डन को धमकाते हैं और माहौल को और ‘उत्तेजक’ बना जाते हैं।

बहरहाल, समझौते का फार्मूला निकलता है और हवन हॉस्टल के बाहर होता है- पेरियार के ठीक सामने। इस हवन कांड की प्रतिक्रिया जबर्दस्त होती है। बीबीसी वाले जेएनयू में चलनेवाली शाखा में पहुंचते हैं, अशोक शर्मा कई जगह इंटरव्यू देकर फैल जाते हैं और वह किशोर भी अचानक खुद को महत्वपूर्ण समझने लगता है। पायनियर नामक अखबार में संजीव त्रिवेदी (फिलहाल सहारा में बड़े पद पर कार्यरत) जेएनयू के यूटोपियन सेक्युलरिज्म पर संपादकीय पन्ने पर आलेख लिखते हैं, किशोर का एक सीनियर-शुभोजित रॉय, उसी अखबार में खबर की रिपोर्टिंग करता है, लेकिन उस किशोर का नाम छापे बगैर। फिर, आकर उसे डांटता भी है कि वह पढ़ने-लिखने की बजाय यह क्या कर रहा है? इसी तरह, किशोर के स्थानीय गार्जियन श्यामानंद झा भी बहुत चिंतित थे। वह आइसा के थे और हॉस्टर प्रेसिडेंट रह चुके थे। किशोर उनके खिलाफ प्रचार कर चुका था, यह बात अलग है। झाजी जब किशोर को धोती-कुर्ता और रुद्राक्ष की माला में लैस देखते हैं, तो सिर पीट लेते हैं। बहरहाल, किशोर का लक्ष्य पूरा हो चुका होता है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पूरी तरह हो चुका है, जेएनयू में लाल टीका धारण किए लोग अब घूमने लगे हैं, परिषद का वोट बैंक मजबूत हो चुका है और वह परिसर में मजबूत हो रही है।

हालांकि, जिन्न को बोतल से निकालना आसान है, वापस बंद करना कठिन। अगले वर्ष हवन नर्मदा हॉस्टल के सामने होता है और बिना किसी चूं-चपड़ के या मुद्दा बने बिना संपन्न हो भी जाता है। यहीं, संघी तत्व सक्रिय होते हैं। इसके अगले वर्ष हवन के समय तृतीया को संघ के मुकेश कश्यप बिना किसी विचार-विनिमय के रातों-रात ही कलश की स्थापना पेरियार के सामने कर देते हैं। यह वही वक्त था, जब उदारीकरण की दूसरी खेप लागू हो रही थी, केंद्र में एनडीए की सरकार थी और संघी-भाजपाई-बजरंगी-परिषदीय तत्व जेएनयू के बाद 16 अशोका रोड को ही अपनी मंजिल मान रहे थे। कैंपस में फिर से बवाल होता है, डीन चूंकि कोई मुसलमान थे, इसलिए मामला और भी संगीन हो जाता है। कलश को उठवाने के लिए कांति वाजपेयी ग्रुप4 के गार्ड्स को तलब करते हैं, लेकिन वे गार्ड नौकरी छोड़ देना मंजूर करते हैं और जूता उतारकर कलश की जगह को प्रणाम करते हैं।

किशोर के सपनों का यह हश्र नहीं था। उसमें और संघी कश्यप में जमकर तकरार होती है, लेकिन समाज में कट्टरता, हमेशा ही योजना और बौद्धिकता पर भारी रही है। जिस योजना की शुरुआत उस किशोर के कमरे से हुई थी, वह अब फैलकर बरगद के आकार की हो चुकी है…जिस पर नियंत्रण उसके भी बस में नहीं रहा। एक पूरी तरह अधार्मिक और महज रिटैलिएटरी क्रिया एक धार्मिक उत्सव का शक्ल ले लेती है, परिसर में लोग अब हिंदू या मुसलमान होते हैं….विद्यार्थी परिषद पहली (और शायद आखिरी भी) बार छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव जीत जाता है, भले ही उसके तुरंत बाद आपसी हठों और झगड़ों में इसे गंवा भी देता है।

आज, फाइलिन के गुज़र जाने के बाद, अपने घर टूटी हुई डालों और कुचले-बिखरे पत्तों को देख रहा हूं। जमुना में बहुत गाद और कीचड़ जमा हो गया है, टनों कूड़ा तब से उसमें समा चुका है, लेकिन आज जब महिषासुर उत्सव और ऐसी ही मूर्खताओं पर लोगों को खड्गहस्त देखता हूं, तो सिवाय हंसी के और कुछ नहीं आती।

(जेएनयू में दुर्गापूजा उत्सव की शुरूआत करनेवाला वह नौजवान कोई और नहीं बल्कि लेखक व्यालोक पाठक ही थे, जो आज दशक भर बाद अपना संस्मरण साझा कर रहे हैं।)