डॉ शिवानी कटारा
जन्माष्टमी, जिसे श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के रूप में भी जाना जाता है, भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है। भगवान श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व धर्म, नीति, प्रेम, करुणा और कूटनीति का अद्वितीय संगम प्रस्तुत करता है, और उनका जन्मोत्सव सनातन संस्कृति के इन मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित करता आया है।
श्रीमद्भागवत, महाभारत और विष्णु पुराण में वर्णित कृष्ण जन्मकथा का केंद्र मथुरा है और, भारत के अनेक तीर्थस्थलों में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है, परंतु वृंदावन में इसका महत्व विशेष और अद्वितीय है। वृंदावन, जिसे ‘कृष्ण की लीलाओं की भूमि’ कहा जाता है, न केवल जन्माष्टमी के धार्मिक उत्सव का केंद्र है, बल्कि यह भक्ति, लोक कला, संगीत और आध्यात्मिक अनुभव का अद्वितीय संगम प्रस्तुत करता है। वृंदावन यमुना नदी के किनारे स्थित है और पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह वही स्थान है जहाँ बालकृष्ण ने अपने गोप-बाल मित्रों के साथ लीलाएं कीं, तुलसी और कदंब वृक्षों के मध्य रासमंडल रचाया, और गोपियों के साथ अलौकिक प्रेम का अनुभव कराया। मध्यकाल में, 16वीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन के दौरान चैतन्य महाप्रभु जैसे संतों ने वृंदावन को पुनः खोजा और यहाँ अनेक मंदिरों की स्थापना की, जिनमें गोविंद देव, मदन मोहन, श्री राधा वल्लभ, राधा रमण और बांके बिहारी मंदिर प्रमुख हैं।
वृंदावन में जन्माष्टमी का पर्व केवल एक दिन का आयोजन नहीं, बल्कि पूरे सप्ताह या उससे भी अधिक समय तक चलने वाला महोत्सव है। मंदिरों को फूलों, दीपों और रंग-बिरंगे वस्त्रों से सजाया जाता है। अष्टमी की रात ठीक बारह बजे भगवान कृष्ण का ‘जन्म’ माना जाता है, तब घंटियों, शंखनाद और जयघोष से वातावरण गूंज उठता है। मध्यरात्रि अभिषेक और आरती पंचामृत, दूध, गुड़ और फूलों के साथ की जाती है। ब्रज कलाकार श्रीकृष्ण की लीलाओं का नाट्यरूपांतरण करते हैं, जो लोकनाट्य शैली में भक्तिभाव और सांस्कृतिक रंग-रूप का अद्भुत मिश्रण प्रस्तुत करता है। वृंदावन की गलियों और मंदिरों में भजनों की स्वर-लहरियां निरंतर गूंजती रहती हैं, विशेषकर सूरदास, मीराबाई और रसखान की रचनाएं। वृंदावन की जन्माष्टमी में ब्रजभाषा के लोकगीतों और रसिया गायन की विशेष परंपरा है। सोहर गीत, जो जन्म के अवसर पर गाए जाते हैं, कृष्ण के आगमन को पारिवारिक और सामाजिक उत्सव का रूप देते हैं, विराटिय दृष्टान्त गीत—जैसे ब्रज भजन “मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो”—भावनात्मक व सांस्कृतिक गहराई प्रदान करते हैं जबकि रसिया गीतों में राधा-कृष्ण की दिव्य प्रेम लीला और उनके मधुर संवादों का भावपूर्ण चित्रण होता है। वृंदावन की गलियों में बच्चों द्वारा कृष्ण-बलराम के वेश में निकलने वाली शोभायात्राएं पूरे ब्रज क्षेत्र को जीवंत कर देती हैं। झूला यात्रा में भक्त कलात्मक झूलों में बालकृष्ण की मूर्ति को झुलाते हुए भजन गाते हैं, जो प्रेम और सौहार्द का प्रतीक है।
रासलीला और झांकियां प्रशासनिक आयोजनों से लेकर स्थानीय गांवों तक होती हैं, जहाँ नाट्य, लोकनृत्य और रंगीन परिधान कथात्मक और आध्यात्मिक दोनों अनुभव प्रदान करते हैं। वृंदावन की सांस्कृतिक लोकभाषा, लोकगीत और पारंपरिक खान-पान जन्माष्टमी को संवेदनशील रूप से प्रदर्शित करते हैं। चप्पन भोग, पंचामृत, पापड़ी–मिक्स, ब्रज क्षेत्रीय पकवान जैसे मैथुरा पेड़ा, ब्रज पंजिरी और वृंदावन दही-अरबी झोर का प्रसाद वितरित किया जाता है। धार्मिक पर्यटन और उससे जुड़ी अर्थव्यवस्था की दृष्टि से जन्माष्टमी एक ‘धार्मिक पूंजी’ (Religious Capital) का निर्माण करती है, जिसमें भक्ति और आस्था के साथ-साथ सामाजिक प्रतिष्ठा, नेटवर्किंग और आर्थिक अवसरों का भी विस्तार होता है। वार्षिक आर्थिक अनुमान बताता है कि जन्माष्टमी के दौरान ब्रज मंडल (मथुरा–वृंदावन) में 2,500 से 5,000 करोड़ रुपये तक का कारोबार होता है, जिसमें पर्यटन और हस्तशिल्प भी सम्मिलित हैं। लगभग दो हजार छोटे और मध्यम उद्योग तथा करीब दो लाख कारीगर इस अवसर से प्रभावित होते हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार का ‘ब्रज सर्किट’ और जागरूक पर्यटन नीतियां इस क्षेत्र को संरचनात्मक रूप से मजबूत बना रही हैं। वृंदावन की जन्माष्टमी एक धार्मिक उत्सव से आगे बढ़कर सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक यात्रा है। यहाँ कृष्ण को ‘लीलामय’ ईश्वर के रूप में देखा जाता है, जो जीवन के हर पहलू में आनंद, प्रेम और करुणा का संदेश देते हैं। वृंदावन की भक्ति परंपरा यह सिखाती है कि ईश्वर के साथ संबंध केवल पूजा का विषय नहीं, बल्कि गहन प्रेम और आत्मिक मिलन का अनुभव है। समाजशास्त्रीय रूप से देखा जाए तो वृंदावन की जन्माष्टमी एक ‘समग्र सामाजिक घटना’ (Total Social Fact) बन जाती है, जिसमें धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भावनात्मक और राजनीतिक सभी आयाम एक साथ सक्रिय रहते हैं। यह न केवल आध्यात्मिक संतोष प्रदान करती है, बल्कि सामाजिक संरचना को भी सजीव, लचीला और सामूहिक अनुभवों से परिपूर्ण बनाती है।